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‘पहले दिन, पहले शो’ से भी पहले पद्मावति देखने वाले पत्रकारों के नाम पत्र

प्रिय रजत, अर्नब और वैदिकजी,

आप तीनों को बधाई. सवा सौ करोड़ की आबादी में आप तीन ही वो किस्मत वाले हैं जिन्हें, सेंसर बोर्ड से भी पहले पद्मावति देखने का सौभाग्य हासिल है. पत्रकार बिरादरी का होने के चलते हमें भी आप पर गर्व है. आपकी किस्मत का चेतक ऐसे ही हवा में कुलांचे भरता रहे. रस्क सुधीर चौधरी को था सो उन्होंने अपनी पीड़ा ट्विटर के जरिए जाहिर कर दी. हालांकि उनकी पीड़ा दबंगों की सभा में भुला दिए गए छोटे वाले पहलवान सरीखी थी सो लोगों ने उस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया. एक पत्रकार होने के नाते हमें बस इतना ही दुख रहा कि बात नियम-कानूनों के तहत निपटती तो बेहतर होता.

संजय लीला की लीला भी निराली है. जिस तरीके से उन्होंने आप लोगों को पद्मावति दिखाई वह मुंहदेखाई जैसा था. पूर्वांचल के गांवों में आज भी जब नई बहू आती है तो आस-पास की 10-20 बुजुर्ग महिलाएं आकर नई बहू का दर्शन करती हैं, 10-20 रुपया नेग देती हैं और फिर पूरे गांव-बाजार में उनके द्वारा यह बात फैला दी जाती है कि आने वाली नई बहू सुंदर है, कामचलाऊ है या फिर बदसूरत है.

कानूनी प्रक्रिया से पहले, सेंसर बोर्ड की चौखट जाने से पहले भंसाली ने शॉर्टकट से गंतव्य तक पहुंचने की कोशिश की जो शायद असफल कही जाएगी. पर हम इसके लिए आप लोगों से ज्यादा भंसाली की हुड़क को जिम्मेदार मानते हैं. जाहिर है अगर भंसाली कानून व्यवस्था में भरोसा दिखाते, सेंसर बोर्ड का इंतजार करते, कचहरी का सहारा लेते तो एक गलत परंपरा की नींव पड़ने से रह जाती. मैं मानकर चलता हूं कि एक पत्रकार होने के नाते आप तीनों भी मेरी इस राय से सहमत होंगे.

पर अपनी शिकायत यह नहीं है. हमारे मन में एक स्वाभाविक सा सवाल उठता है कि जब फिल्मकार ने शॉर्टकट (स्थापित प्रक्रियाओं से अलग) पकड़ने का फैसला कर ही लिया था तो फिर वो फिल्म किसी ऐसे व्यक्ति को दिखाते जो कम से कम इतिहास और पद्मावति मामलों का जानकार हो. हो सकता है भंसाली के मन में ऐसी कोई गलतफहमी हो कि आप लोगों की सत्तापक्ष से करीबी है.

खैर, हमारे यहां यह बात प्रचलित है कि दुनिया में अकेला पत्रकार ही वो जंतु है जिसे दुनिया जहान के सभी विषयों की जानकारी होती है. ज्यादातर पत्रकार भी खुद को इसी चश्मे से देखते हैं. पर माफी के साथ सिर्फ एक बात कि विशेषज्ञता का कोई विकल्प नहीं है. स्टीव जॉब से लेकर नरेंद्र मोदी तक इसके अनगिनत उदाहरण हैं.

मुद्दे पर लौटते हैं. गुस्ताखी माफ लेकिन जहां तक हमारी जानकारी है आप तीनों की  इतिहास में विशेषज्ञता नहीं है. रजतजी आप ने तो अपने शो में ही कह दिया कि बेहतर हो कि फिल्म किसी इतिहासकार को दिखाई जाय और तब करणी सेना के लोग निर्णय लें. अर्नब गोस्वामी ने सोशल एंथ्रोपोलॉजी में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से मास्टर्स की डिग्री ली है. वैदिकजी हिंदी भाषा में पीएचडी हैं. रजतजी ने दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स से अर्थशास्त्र में मास्टर डिग्री ली है. अगर मैं गलत होऊं तो आप तीनों सही रास्ते ला सकते है.

इतिहास और वो भी संवेदनशील, विवादग्रस्त इतिहास पर कोई फैसला करने के लिए इतिहास का विशेषज्ञ होना पहली जरूरत है, इसका कोई विकल्प नहीं है.

पर हमारी शिकायत यह भी नहीं है. सवाल उठता है कि फिल्म देखने के बाद आप तीनों ने किया क्या? वैदिकजी को इस सवाल से परे रखते हैं क्योंकि उनके पास आपकी तरह इंडिया टीवी या रिपब्लिक टीवी जैसा मंच नहीं है.

रजतजी के चैनल पर हमने पद्मावति पर एक घंटे आज की बात देखी. इसमें वैदिकजी भी शामिल रहे. आप पूरे कार्यक्रम के दौरान क्षत्राणियों के गुस्से और राजपूतों की नाराजगी से सहमत होते समानांतर धारा खींच रहे थे. भावनाओं के बहाव में एक वक्त ऐसा भी आया जब आपने अपनी राजस्थानी पहचान को दांव पर लगाते हुए कहा कि आपको भी राजपूती आन-बान-शान पर गर्व है. पर आपकी इस समांतर विचारधारा से न तो फिल्म का कोई भला हुआ, ना ही भंसाली का. बुरा यह कि आपने खुद ही मान लिया कि फिल्म का रिव्यू किसी इतिहासकार से करवाना चाहिए. इसके साथ ही आपने भंसाली की शॉर्ट कट वाली पूरी कवायद पर पानी फेर दिया.

एक निजी जातीय समूह जो अपने नाम के साथ सेना सटाकर गुंडई पर उतारू है, जो पुरातन, जड़ियल, जातिगत पहचान के नाम पर विशुद्ध गुंडई और लंपटई कर रहा है, जो देश के संविधान और आजादियों का मखौल उड़ा रहा है, उससे कड़े सवाल पूछने की बजाय आपका पूरा कार्यक्रम उसके सामने समर्पित याचक की मुद्रा में रहा. जब रण की जरूरत थी तब आपने याचना की भूमिका चुनी.

ऐसा लगता है कि पद्मावती की स्क्रीनिंग ने अर्नब के ऊपर रजत शर्मा के बिल्कुल विपरीत असर किया. रजत शर्मा याचक मुद्रा में थे जबकि अर्नब विस्फोटक. अर्नब… आपने भी उसी शाम पंचायत जमाई. ऐसा लगा कि प्राइम टाइम की अंधेरी रातों में, सुनसान राहों पर एक बार फिर से कोई मसीहा निकल पड़ा है, हर जुल्म मिटाने को.

आप करणी सेना के दो रंगरूटों को अपने स्टूडियो में बिठाकर, सारा हरबा-हथियार लेकर चढ़ बैठे. पुरानी शैली में, सामने वाले को बोलने का मौका नहीं देते हुए पांच-पांच मिनट लंबे मोनोलॉग देते रहे. करणी सेना के रंगरूट बीच-बीच में कॉमा, फुलस्टॉप के वक्त ‘लोकतांत्रिक’ तरीके से अपना विरोध दर्ज कराते रहे. बात आई गई हो गई. अमूमन आजकल ऐसा ही होता है, आपकी हर सुपर, मेगा एक्सक्लूजिव अगली शाम लोग भूल जाते हैं.

खैर, हमारी शिकायत यह भी नहीं है. आप लालू यादव की घनघोर एक्सक्लूजिव स्टोरी, शशि थरूर की नई ज़मीन तोड़ने वाली इन्वेस्टिगेशन में जिस तरह हफ्ते-हफ्ते भर अभियान चलाते रहे. उससे पहले कोलगेट, टूजी, सीडब्लूजी के जमाने में आपकी अभियानकारी पत्रकारिता ने बड़े-बड़े चमत्कार किए हैं. यहां जब पांच-पांच राज्यों के मुख्यमंत्री करणी सेना के पक्ष में खड़े हो गए तब आपको सवाल करने के लिए करणी सेना के दो रंगरूट ही मिले. आपको नहीं लगा कि हाथों में तलवार लिए, लोगों का गला और नाक-कान काटने की धमकी दे रही भीड़ को ताकत वसुंधरा राजे, शिवराज सिंह चौहान, आदित्यनाथ, विजय रूपानी और अमरिंदर सिंह जैसे लोगों से मिल रही है.

आपको जरूरी नहीं लगा कि पांचों राज्यों के मुख्यमंत्रियों से सवाल किया जाय कि वो एक गुंडा सेना के सुर से सुर क्यों मिला रहे हैं. हाथों में तलवारें लेकर, लोगों का गला काटने का ईनाम घोषित कर रही भीड़ के खिलाफ अब तक एक भी एफआईआर या शिकायत पुलिस ने क्यों दर्ज नहीं की. इन राज्यों की पुलिस और कानून व्यवस्था किसके पक्ष में है.

अब तो सत्ताधारी भाजपा के सदस्य ही गला काटने पर ईनाम घोषित करने लगे हैं. मामला सत्ताधारी दल के साथ आधिकारिक रूप से जुड़ चुका है. भाजपा नेता रामक़दम को भी यह शिकवा है कि फिल्म उन्हें एक बार दिखाने के बाद ही रिलीज हो. लिहाजा अगला सवाल रजतजी से पूछना ठीक नहीं होगा क्योंकि वे अपने मित्र अरुण जेटली के पक्ष में अरविंद केजरीवाल के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में शपथपत्र दाखिल कर चुके हैं. अतीत में एबीवीपी के सदस्य भी रह चुके हैं, उनका पार्टी से जुड़ाव सार्वजनिक है.

पर अर्नब आपको ऐसा नहीं लगा कि भाजपा नेताओं को अपनी अदालत में बुलाकर उनसे सफाई मांगी जाय कि घड़ी-घड़ी धमकी दे रहे पार्टी वालों पर भाजपा का रवैया क्या है.

फिल्म दिखाने का एक मकसद यह भी था कि आप तीनों भाजपा के अलावा करणी सेना जैसे लुंपेन समूह से उपरोक्त सवाल पूछते. आप दोनों के याचना और रण में ये जरूरी सवाल पीछे छूट गए या चालाकी से छोड़ दिए गए.

पत्र लंबा हो रहा है. संजय लीला भंसाली के साथ पूरी संवेदना के साथ बस यही कहूंगा कि आधी छोड़ पूरी को धावै, आधी मिले न पूरी पावै. आप ऐतिहासिक फिल्में बनाते रहे हैं, इस ऐतिहासिक कहावत का अर्थ आपको पता होगा.

नमस्कार
आप तीनों का
अतुल चौरसिया