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अवसाद और असलियत का पोर्ट्रेट, कड़वी हवा
जिस फिल्म के साथ मनीष मुंद्रा, नीला माधव पांडा, संजय मिश्रा, रणवीर शौरी और तिलोत्तमा शोम जुड़े हों, वह फिल्म खास प्रभाव और पहचान के साथ हमारे बीच आती है. दृश्यम फिल्म्स के मनीष मुंद्रा भारत में स्वतंत्र सिनेमा के सुदृढ़ पैरोकार हैं. वहीं नीला माधव पांडा की फिल्मों में स्पष्ट सरोकार दिखता है. उन्हें संजय मिश्रा, रणवीर शौरी और तिलोत्तमा शोम जैसे अनुभवी और प्रतिबद्ध कलाकार मिले हैं. यह फिल्म उन सभी की एकजुटता का प्रभावी परिणाम है.
कड़वी हवा जैसी फिल्मों से चालू मनोरंजन की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए. हमें देखना चाहिए कि वे सभी अपने कथ्य और नेपथ्य को सही रखते हैं या नहीं?
बेघर और बंजर हो रहे मौसम के मारे हेदू और गुणों वास्तव में विपरीत और विरोधी किरदार नहीं है. दहाड़ मार रही बदहाली के शिकार दोनों किरदार एक ही स्थिति के दो पहलू हैं. बुंदेलखंड के महुआ गांव में हेदू अपने बेटे, बहु और दो पोतियों के साथ रहता है गांव के 35 लोग कर्ज में डूबे हुए हैं. उनमें से एक हेदू का बेटा मुकुंद भी है. हेदू अंधा है फिर भी यथाशक्ति वह घर परिवार के काम में हाथ बंटाता है. हेदू अपने बेटे मुकुंद के लिए चिंतित है. स्थितियां इतनी शुष्क हो चली हैं कि बाप बेटे में बात भी नहीं हो पाती. एक बहु ही है, जो परिवार की धुरी बनी हुई है.
दूसरे पहलू की झलक दे रहा गुनु उड़ीसा के समुद्र तटीय गांव से आया है. स्थानीय ग्रामीण बैंक में वह वसूली कर्मचारी है, जिसे गांव वाले यमदूत कहते हैं. गुनु इस इलाके की वसूली में मिल रहे डबल कमीशन के लालच में अटका हुआ है. उसके पिता को समुद्र निगल चुका है. बाकी परिवार तूफान और बारिश से तबाह हो जाने के भय में जीता रहता है.
‘कड़वी हवा’ सतह पर बदलते मौसम की कहानी है. बदलते मौसम से आसन्न विभीषिका को हम फिल्म के पहले फ्रेम से महसूस करने लगते हैं. नीला माधव पांडा ने अपने किरदारों के जरिए अवसाद रचा है. कर्ज में डूबी और गरीबी में सनी हेदू के परिवार की जिंदगी महुआ गांव की झांकी है. कमोबेश सभी परिवारों का यही हाल है. इसी बदहाली में जानकी के पिता रामसरण की जान जाती है. हेदू को डर है कि कहीं उसका बेटा मुकुंद भी ऐसी मौत का शिकार ना हो जाए लाचार हेदू अपने बेटे के संकट को कम करने की युक्ति में लगा रहता है. इसी क्रम में वह गुनु की चाल में फंसकर वसूली में मददगार बन जाता है.
हालांकि हेदू अनैतिक आचार नहीं करता और गुनु वसूली के लिए अत्याचार नहीं करता, लेकिन इस संवेदनशील और दमघोंटू माहौल में उनकी मिलीभगत नकारात्मक लगती है. फिल्म के अंत में पता चलता है कि गुनु भी हेदू की तरह परिस्थिति का मारा और विवश है. अपने तई खुद को परिवार के संकट से उबारने का यत्न कर रहा है.
सुखाड़ के माहौल में परिदृश्य की ‘कड़वी हवा’ उदास करती है. इस उदासी में ही हेदू की चुहल और गुनु के अहमकपने से कई बार हंसी आती है. अपनी पोती कुहू से हेतु का मार्मिक संबंध ग्रामीण परिवेश में रिश्ते के नए आयाम से परिचित कराता है. लेखक-निर्देशक ने किरदारों को बहुत ख़ूबसूरती से रचा और गूंथा है.
यह फिल्म संजय मिश्रा और रणवीर शौरी की जुगलबंदी के लिए देखी जानी चाहिए. दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और परस्पर प्रयास से फिल्म के कथ्य को प्रभावशाली बनाते हैं. अभिनेता संजय मिश्रा के अभिनय का एक सिरा कॉमिक रोल में हमें हंसाता है तो ट्रैजिक रोल में द्रवित भी करता है.
अच्छी बात है कि वे एक साथ दोनों तरह की फिल्में कर रहे हैं. रणवीर शौरी ऐसी फिल्मों में लगातार सहयोगी भूमिकाओं से खास भरोसेमंद पहचान हासिल कर चुके हैं. संजय मिश्रा और रणवीर शौरी के बीच के कुछ दृश्य उनकी पूरक अदाकारी की वजह से याद रह जाते हैं. तिलोत्तमा शोम भी अपनी भूमिका पूरी सजीवता से निबाहने में सफल रहीं.
फिल्म के अंत में गुलज़ार अपनी पंक्तियों को खुद की आवाज़ में सुनाते हैं. गुलज़ार की आवाज में कशिश और लोकप्रियता है, जिसकी वजह से ऐसा लगता है कि कोई संवेदनशील और गंभीर बात कही जा रही है. इन पंक्तियों को ग़ौर से पढ़ें तो यह तुकबंदी से ज्यादा नहीं लगती हैं.
(साभार: चवन्नी चैप ब्लॉग)
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