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शह-मात का सिलसिला है देवभूमि की राजनीतिक हिंसा
नाम गुप्त रखने की शर्त पर एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने मुद्दे की बात बताई- “यह स्थान विषम संख्या में यकीन नहीं करता. अगर एक सीपीएम का कार्यकर्ता मारा जाता है, बदले में आरएसएस कार्यकर्ता की मौत में देर नहीं होती. यही बात दूसरी तरफ भी लागू होती है. शांति तभी रहती है जब मौतों की संख्या बराबर हो.”
न्यूज़लॉन्ड्री केरल के कन्नूर जिले में करीब एक पखवारे तक था. शायद यह देश का पहला स्थान है जहां भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी- मार्क्सवादी (सीपीएम) ने भारतीय जनता पार्टी समर्थित राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (आरएसएस) को प्रभावहीन कर रखा है.
जिस शिद्दत से सीपीएम अपने किले पर जमा है और भाजपा मशक्कत से जगह बनाने को संघर्षरत है, इस लड़ाई में सड़कें खून से सन गईं हैं. पार्टी कार्यालयों पर हमले, कार्यकर्ताओं की हत्या हो रही है. यहां तक की उनके घरों को भी नहीं छोड़ा जा रहा.
परिवार, मित्र या नौकरी- राजनीति से बड़ा कुछ भी नहीं है. किसी भी व्यक्ति की सामाजिक सफलता का पैमाना उसका राजनीतिक कद है न कि उसकी पेशेवर उपलब्धियां. “यहां हर व्यक्ति की एक राजनीतिक पहचान है”, कन्नूर के पुलिस कप्तान पी. शिवा विक्रम ने बताया.
मौतें रोजमर्रा की बात हो गई है और बहुतों को कोई फर्क नहीं पड़ता. 52 वर्षीय सीपीएम कार्यकर्ता मोहनन और 29 वर्षीय भाजपा समर्थक रेमिथ, सभी इस बड़े राजनीतिक फलक के छोटे से हिस्से हैं.
बम गोले आम बात हैं. तलवार, चाकू और कुल्हाड़ी जैसे कुछ अन्य हथियार हैं जिनका उपयोग दोनों तरफ के लोग करते हैं और संगठन निर्माण और सुरक्षा का वादा भी करते हैं.
“दोनों तरफ के कार्यकर्ताओं को देशी बम बनाने कैसे बनाया जाता है, मालूम है. वे बनाते और व्यक्तिगत क्षमता में उसे संरक्षित भी करते हैं. केरल में लोगों के पास गैरकानूनी बंदूक रखने की कोई सुविधा नहीं है. परिणाम स्वरूप आप बमुश्किल ही ऐसे वारदात देखेंगे जहां लोगों को गोली मारी जाती है.”
कन्नूर पुलिस की आंतरिक रिपोर्ट के अनुसार, मई और नवंबर 2016 के बीच, कन्नूर में 655 छापे पड़े और निम्न चीजें जब्त की गईं-
75 बम (स्टील के बने बम, देशी और आईसक्रीम बम), 3.5 किलो बारूद, 24 तलवार, 15 चाकू, 2 बंदूक, 2 कुल्हाड़ी, 1 गंड़ासा.
केरल में, पिछले दस वर्षों में, 107 जानें गईं हैं. अकेले 2017 में, पांच मौतें हुई हैं.
मुख्यमंत्री पिन्नरयी विजयन की वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (एलडीएफ) की सरकार मई 2016 में सत्ता में आई. पुलिस विभाग की आंतरिक जांच एक मई से 18 नवंबर के बीच हिंसाओं की संख्या में बढ़ोत्तरी की तरफ इशारा करता है. लेकिन कई वारदातें एक दूसरे से जुड़ी थी. “19 मई को गिनती वाले दिन, कोठुपुरंबू में संघ कार्यकर्ताओं द्वारा सीपीएम कार्यकर्ता रवींद्रन की हत्या के बाद वारदातों की श्रृंखला शुरू हो गई. पुलिस प्रशासन के हस्तक्षेप के बाद शांति बहाल हो सकी.”
इन वारदातों ने राष्ट्रीय सुर्खियां बनायीं.
जुलाई में, भारतीय युवा लोकतांत्रिक संघ (सीपीएम का युवा संगठन) के नेता सीवी धनराज को कुन्नरवू के उसके अपने घर के बरामदे में मौत के घाट उतार दिया गया था. यह स्पष्ट तौर पर बदले की कारवाई थी. उसी रात भारतीय मजदूर संघ (भाजपा का मजदूर यूनियन) के नेता सीके रामचंद्रन को सीपीएम कार्यकर्ताओं द्वारा मारा गया. अक्टूबर में, सीपीएम शाखा के सचिव, 52 वर्षीय के मोहनन की कूठपारांबू के एक ताड़ी दुकान में नृशंस हत्या कर दी गई. बदले में, 29 वर्षीय रेमिथ, एक भाजपा समर्थक की सीपीएम कार्यकर्ताओं द्वारा हत्या कर दी गई. रेमिथ को उसकी मां के सामने मौत के घाट उतार दिया गया.
हत्या की भूमि
यह पहली बार नहीं है जब कन्नूर के ‘रणक्षेत्र’ खबरों में हैं. लेकिन अब यह पहले से कहीं ज्यादा सुर्खियों में रहने लगी हैं. जुलाई में तिरूवनंतपुरम संघ कार्यकर्ता राजेश की चाकुओं से गोद कर हत्या के बाद आनन-फानन में केंद्रीय वित्त मंत्री अरूण जेटली केरल पहुंचे थे.
राष्ट्रीय मीडिया ने उनकी बर्बर हत्या को व्यापक कवरेज दिया था. राकेश सिन्हा जैसे संघ के नेताओं ने केंद्र सरकार से हस्तक्षेप की मांग की थी. टीवी चर्चाओं में हत्या को मार्क्सवादियों के ‘आंतक का राज’ जैसे उदाहरणों के साथ पेश किया गया. नई दिल्ली में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में संघ के वरिष्ठ नेता दत्तात्रेय होसबाले ने कथित तौर पर पिन्नारयी सरकार को हत्याओं में बढ़ोत्तरी का जिम्मेदार बताया.
ग्राउंड जीरो से
25 अगस्त को जैसे ही न्यूज़लॉन्ड्री कन्नूर पहुंचा, हमने पाया कि शहर संघ-भाजपा की प्रचार सामग्री से पटा हुआ था. कांग्रेस और भारतीय संघ मुस्लिम लीग (आईयूएमएल) के नेतृत्व वाली विपक्षी संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा (यूडीएफ) की प्रचार सामग्री, संघ-भाजपा की तुलना में कम थे.
अगर होर्डिंग और झंडे-बैनर के पैमाने पर देखे तो ऐसा प्रतीत होगा कि राज्य में या कम से कम जिले में भाजपा दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत तो जरूर होगी. नए पाठकों को बताते चलें कि 140 सदस्यीय केरल विधानसभा में भाजपा के पास सिर्फ एक सीट है. यह पार्टी के लिए पहली इकलौती विधानसभा सीट है. यह जीत उन्हें कन्नूर से नहीं बल्कि तिरूवनंतपुरम के किसी विधानसभा सीट पर प्राप्त हुई थी. अभी भी भाजपा केरल में लोकसभा में अपना खाता नहीं खोल सकी है.
संघ और भाजपा को एहसास है कि उनके काडर का आधार सीपीएम की तुलना में काफी कम है. “यह 80:20 के अनुपात में सीपीएम के पक्ष में होगा”, केरल संघ के सह संचालक केके बालाराम ने कुबूल किया. राज्य के पहले भाजपा विधायक ओ राजगोपाल के मुताबिक यह 3:1 के अनुपात में सीपीएम के पक्ष में हो सकता है.
राज्य विधानसभा में वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (एलडीएफ) की 91 सीटें हैं. भाजपा को 14.6 फीसदी और एलडीएफ को 44 फीसदी वोट मिले. कन्नूर में 11 निवार्चन क्षेत्र हैं और मुख्यमंत्री विजयन और सीपीएम के राजकीय सचिव कोडियरी बालाकृष्णन दोनों एक ही जिले से आते हैं.
फिर इतने कमजोर काडर के आधार पर भाजपा और संघ मौतों की “सम संख्या” कैसे बनाए रख पाते हैं
आकंडें बोलते हैं
जिला अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, 1987 से अगस्त 2017 के बीच दोनों तरफ पीडितों की संख्या लगभग बराबर है.
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के ताजा आंकड़ों के अनुसार, 2015 में भारत में अपराध की संख्या, हत्याओं के मामले में केरल 17 वें स्थान पर है.
सामान जनसंख्या वाले राज्यों की तुलना में केरल में न्यूनतम हत्याएं हुई हैं. देश की कुल आबादी का सिर्फ तीन प्रतिशत केरल में बसता है और राष्ट्रीय औसत की तुलना से यहां कम हत्याएं हुई हैं. केरल के पूर्व डीजीपी एलेक्जेंडर जैकब ने न्यूज़लॉन्ड्री से कहा. यहां तक कि अगर राजनीतिक हत्याओं की बात की जाए तो केरल उत्तर प्रदेश और झारखंड से भी पीछे है.
जब रूस में पानी पड़ता है....
केरल में सीपीएम को सत्ता से हटाने के लिए किसी भी दल को कन्नूर के लिट्मस टेस्ट से होकर गुजरना होगा. यह क्षेत्र कम्युनिस्टों के लिए ऐतिहासिक महत्व का रहा है. एक समय पर कहा जाता था, जब रूस में बारिश होती है तो केरल के लोग अपनी छतरियां खोल लेते हैं. यह पुराने सोवियत संघ के दौर की बात है. कन्नूर आज भी इस कथन में यकीन करता है.
इस जगह का साम्यवाद से मजबूत और आजादी से पहले का संबंध रहा है. सीपीआई (बाद में सीपीएम) की राज्य में स्थापना 1939 में कन्नूर के पाराप्रम गांव में हुई एक गुप्त मीटिंग के बाद हुई थी. हिंसा के दौर की शुरुआत करीब तीन दशक बाद हुई. यह लड़ाई सीपीएम-संघ के पहले कांग्रेस बनाम सीपीएम और सीपीएम बनाम आईयूएमएल हुआ करती थी. कन्नूर में अपनी छाप छोड़ने को बेताब संघ ने यहां राजनीति की रंग, भाषा और शैली बदल दी है.
संघ और सीपीएम की लड़ाई का पहला शिकार 1969 में वाडीक्कल रामाकृष्णन हुए. यह गणेश बीड़ी कॉपरेटिव सोसायटी विवाद का नतीजा था. सीपीएम समर्थित बीड़ी कार्यकर्ताओं ने हड़ताल का आह्वान किया था.
गणेश बीड़ी के बंद होने के बाद दिनेश बीड़ी कोऑपरेटिव सोसायटी की शुरुआत हुई. गणेश बीड़ी का मालिक जनसंघ का कोषाध्यक्ष था. ट्रेड यूनियनों की कुछ मांगों को लेकर उन्होंने फैक्ट्रियां बंद की थीं. संघ ने एक वैकल्पिक रास्ता खोज निकाला (गणेश बीडी), सीपीएम के कन्नूर जिला सचिव पी जयराजन ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया.
जयराजन के मुताबिक यहीं से शुरुआत हुई. उनके मुताबिक संघ कार्यकर्ताओं ने बेरोजगारों को बीड़ी पत्ते मुहैया कराना जारी रखा और गणेश बीड़ी फैक्टरी को बीड़ी मिलती रही. उनके मुताबिक यह सीपाएम के हड़ताल के साथ सरासर धोखा था.
सह संचालक बालाराम इसे नहीं मानते, “ये सब सिर्फ अंदाजा है. संघ और गणेश बीड़ी कोऑपरेटिव सोसायटी के बीच संबंधों का कोई साक्ष्य मौजूद नहीं है. फिर भी यह हिंसा भड़कने का एक कारण रहा.”
वामपंथियों का भी मानना है कि गणेश बीड़ी के मालिक के पैसों पर संघ की शाखाएं शुरू हुई. 28 अप्रैल, 1969 को सीपीएम कार्यकर्ताओं ने रामाकृष्णन को मार डाला. सीपीएम का पहला शहीद यूके कुन्हीरमण था जिसकी हत्या चार जनवरी, 1972 को थलासरी दंगों के दौरान हुई. दंगों के जांच के लिए कमीशन बनाए जाने की अफवाह से दंगों की शुरुआत हुई थी. रिपोर्ट में बताया गया कि पहले चरण का उपद्रव हिंदू सांप्रदायिक तत्वों द्वारा पहले से नियोजित था. दूसरे चरण में मुसलमानों द्वारा बदले की कारवाई हुई. इसपर हिंदुओं द्वारा फिर बदले की कारवाई की गई. सीपीएम कार्यकर्ता मस्जिद बचाने गए थे और उसी दौरान खुन्हीरमण को मार दिया गया. इसके बाद से बारी-बारी हत्याओं का सिलसिला चल पड़ा जो अब तक जारी है.
जातिगत समीकरण
सीपीएम और संघ दोनों ही मरने वालों की जातिगत पहचान नहीं बताते. हालांकि थिय्या समुदाय दोनों ही संगठनों का प्रमुख हिस्सा हैं. कन्नूर में संघ प्रचार प्रमुख एडवोकेट आर जयप्रकाश ने बताया, “मारे जाने वालों में करीब 60-65 फीसदी थिय्या समुदाय के होगें. ये समुदाय कन्नूर और मालाबार क्षेत्र में सबस ज्यादा संख्या में मौजूद है.”
कुछ पुलिस अधिकारियों ने बताया कि थिय्या समुदाय राजनीतिक विचारधारा के प्रति प्रतिबद्घ होते हैं. “वे साहसी और अंतिम दम तक लड़ने को तैयार रहते हैं.”
किसी भी क्षेत्र का राजनीतिक झुकाव वहां बिजली के खंभों के रंग से लगाया जा सकता है. सीपीएम के वर्चस्व वाले इलाकों में खंभों का रंग लाल है और कुछ जगह दीवारों पर चे ग्वेरा की तस्वीरें लगीं है. इसी तरह संघ के प्रभाव क्षेत्र में खंभों का रंग भगवा है. यह “पार्टी गांवों” (वह क्षेत्र जिसमें समूचे तौर पर किसी खास दल का प्रभाव हो) में और स्पष्ट रुप से उभर कर आता है.
झंडे, नेताओं का झुंड और बैनर जनता का ध्यान आकर्षित करने के आसान तरीके हैं.
मिस्ट कॉल दीजिए, सदस्य बनिए
संघ-भाजपा का सदस्य बनना आसान है. वहीं सीपीएम में यह कठिन है. शाखा से जुड़कर कोई भी संघ का सदस्य बन सकता है. भाजपा से जुड़ने के लिए एक मिस्ट कॉल देना होगा. इस तरह की सदस्यता संस्कृति का जयराजन जैसे सीपीएम नेता मखौल उड़ाते हैं.
धर्मदाम में 31 वर्षीय शीजिन ने बताया, “भाजपा की तरह आप सीपीएम में मिस्ट कॉल देकर सदस्य नहीं बन सकते हैं. सबकी मदद करनी पड़ती है. डेढ़ साल तक स्थानीय क्षेत्र में अपनी मेहनत से लोगों को जोड़ना होता है. तब पार्टी जांचकर सदस्यता देती है.”
शीजिन बंगलुरु में मजदूरी का काम करते हैं और तीन साल से सीपीएम का सदस्य बनने की कोशिश में लगे हैं लेकिन अबतक मौका नहीं मिला है. “सदस्य बनने के बाद मैं शायद शादी करूंगा. मेरी पत्नी काम करेगी और मैं कोई पार्ट टाइम नौकरी. मैंने अपना बाकी का जीवन पार्टी के कार्य के लिए समर्पित करने की योजना बनाई है.”
शीजिन कन्नूर में सीपीएम कार्यकर्ताओं की दिमागी अवस्था का सामान्य उदाहरण है.
कल्याणकारी नीति
खूनी खेल, हंगामों और हत्याओं के बावजूद भी पार्टियों को नए सदस्य कैसे मिलते हैं. संघ और सीपीएम दोनों की अपने कार्यकर्ताओं के लिए ‘कल्याणकारी नीतियां’ हैं.
जब कोई समर्थक मारा जाता है या किसी न्यायिक प्रक्रिया में पकड़ा जाता है तब मदद के लिए पार्टी आगे आती है. पार्टियां शहीदों की याद में स्मारक भी बनवाती हैं.
जुलाई में 42 वर्षीय सीपीएम कार्यकर्ता श्रीजन बाबू पर थलेसरी में बर्बर हमला किया गया. बाबू अभी भी 22 गंभीर चोटों से थलेसरी कोऑपरेटिव हॉस्पिटल में उबर रहे हैं. उनके परिजनों ने बताया कि इलाज का पूरा खर्चा पार्टी वहन कर रही है. कोऑपरेटिव हॉस्पिटल में काम कर रहे और सीपीएम कार्यकर्ता निजील ने बताया, “करीब 30 लाख रुपये उनके इलाज में लगे. यह पूरा खर्च पार्टी ने उठाया. हमें मुसीबत की घड़ी में साथ खड़े होना चाहिए.”
अगर मुकदमें में पकड़े जाते हैं तो कानूनी मदद दी जाती है. संघ कार्यकर्ता बीजू धनराज को हत्याकांड का दोषी पाया गया उसे 12 मई को मौत के घाट उतार दिया गया. उसके पिता पुरूषोत्तम, जो पयन्नर क्षेत्र में कक्कमपारा के निवासी है, उन्होंने बताया कि उनका बेटा जमानत पर बाहर था. अन्य पीड़ित परिवारों की तरह पुरूषोत्तम के पास भी एफआईआर की कॉपी नहीं थी.
अरोली के ‘सीपीएम गांव’ में संघ कार्यकर्ता सुजिथ पीवी 2016 में सबसे पहली राजनीतिक हत्या का शिकार हुआ. उसकी मां ने बताया कि संघ ने उन्हें मुआवजा दिया.
दोनों, संघ और भाजपा के लोग मुआवजे और कानूनी सहायता को सही ठहराते हैं. वे कहते हैं कि शहीदों के परिवारों को संकट की घड़ी में अकेला छोड़ा नहीं जा सकता.
स्मारक बनाने से दलों को नई भर्ती में आसानी होती है. वे अन्य पार्टी कार्यकर्ताओं को साथी कॉमरेड या शाखा सदस्य की शहादत की याद दिलाते हैं. यह एक सशक्त भावनात्मक अपील की तरह होती है. कई बार इतनी मजबूत की पार्टी के निचले दर्जे के कार्यकर्ताओं को इन हत्याओं का बदला लेने की प्रेरणा मिल जाती है, पार्टी नेतृत्व को भरोसे में लिए बिना. कई स्थानीय पार्टी कार्यकर्ताओं ने बताया कि धनराज रामचन्द्रन की हत्या के मामले में ऐसा ही हुआ था.
संघ का विस्तार
शुरुआत में राजनीतिक हिंसा कांग्रेस और कम्युनिस्टों के बीच होती थी. 1960 में, संघ ने केरल में और खासकर कन्नूर में अपना जनाधार बढ़ाना शुरू किया. संघ और सीपीएम दोनों ही मुख्य रूप से हिंदू प्रभुत्व वाली पार्टियां हैं. इनके काडर का बड़ा हिस्सा हिंदू समाज से आता है, द अनटोल्ड वाजपेयी किताब के लेखक और पत्रकार उल्लेख एनपी ने बताया. ईसाई और मुसलमान पारंपरिक तौर पर मुस्लिम लीग का समर्थन करते हैं.
संघ का बढ़ता प्रभाव सीपीएम के लिए खतरा था. “सीपीएम कार्यकर्ताओं ने युवाओं और उनके परिवारों को शाखा जाने से रोका. हिंसा बढ़ी और साथ ही संघ ने अपना विस्तार करना शुरू किया,” इंडियन एक्सप्रेस से जुड़े पूर्व पत्रकार केए एंटनी ने कहा.
कन्नूर के कुछ क्षेत्रों में संघ मजबूत है. पड़ोस के जिले कासारगोड़ में पांच में से दो विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र सांप्रदायिक स्तर पर विभाजित हैं. यहां भारतीय संघ मुस्लिम लीग के बाद भाजपा दूसरी सबसे बड़ी ताकत है.
संघ कार्यकर्ता बलराम बताते हैं कि आपातकाल के बाद संगठन की सदस्यता में काफी बढ़ोत्तरी हुई. “आज हमारे पास अकेले कन्नूर में 300 से 400 शाखाएं हैं,” उन्होंने कहा.
गैर सीपीआई और हिंदुत्व के विचारों पर संघ और भाजपा काम करती है. मारे गए संघ कार्यकर्ता बीजू के पिता पुरुषोत्तम जो कक्कमपारा के निवासी हैं, को यह बताने में कोई झिझक नहीं हुई कि उनका बेटा हिंदुत्व के विचारों से प्रेरित होकर संघ से जुड़ा था. ठीक ऐसी ही स्थिति सुजिथ के परिवार के साथ थी.
लाल ज़मीन पर शिवाजी और विनायक
कन्नूर में विनायक संस्कृति प्रसिद्ध हो रही है. “यह एक नई संस्कृति है. ध्वनि की व्यवस्था और सहभागी कानून व्यवस्था को लचर कर देते हैं. तेज आवाज में डीजे विरोधी दल के सदस्यों को उकसाते हैं और हिंसा की घटनाएं होती हैं”, एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने बताया.” पिछले साल कन्नूर के कुछ हिस्से चखरक्काल और इडक्कड़ में हिंसा की घटनाएं दर्ज की गई थीं. इन क्षेत्रों में सीपीएम को निशाना बनाया गया,” उसने कहा.
संघ रणनीति के तहत हिंदू रीति-रिवाजों का इस्तेमाल कर विनायक त्यौहार के जरिए विस्तार कर रहा है. कन्नूर में टैक्सी ड्राईवर अरुण कुमार ने बताया, “अभी हम लोग विनायक का जुलूस निकालेगा तो इसमें सीपीएम को क्यों प्रॉब्लम होता है. वो इसपर क्यों अटैक करता है.” संघ कुमार जैसे लोगों पर नजरें बनाये रहता है. भगवा झंडों पर छत्रपति शिवाजी की तस्वीर कोई कैसे भूल सकता है. झंडों पर ‘जनता का राजा’ भी छपा है.
केरल के लोग हिंदी या मराठी में झंडों पर क्यों लिखेंगे. क्या यह किसी संगठन द्वारा लाए गए हैं. इस पत्रकार ने हू-ब-हू झंडे दक्षिण क्षेत्र के मंगलुरु बेल्ट में देखे थे, जो संघ के मजबूत प्रभाव वाला इलाका है.
अगर इन जुलूसों के दौरान हिंसा भड़क जाए तो मार्क्सवादियों को हिंदू विरोधी घोषित करना आसान हो जाएगा. यह सीपीएम के लिए घातक होगा क्योंकि वे हिंदू काडर को फिसलने देना नहीं चाहेंगे. मार्क्सवादियों को मालूम है कि संघ ने पहले ही उनके धड़े में सेंध लगा दी है.
सीपीएम ने अब एक नया तरीका निकाला है. धर्म को धर्म से काटने का. यह 27 अगस्त को काम कर गया.
इस दिन मुख्यमंत्री कलारी त्यौहार (स्थानीय मार्शल आर्ट) में भाग लेने कन्नूर आए. यह विनायक जुलूस के दिन आयोजित किया गया. ऐसा कर विजयन ने सीपीएम काडर को अपने आयोजन में व्यस्त रखा ताकि हिंसा की संभावनाओं से बचा जा सके.
क्या शांति की संभावना खत्म हो रही है?
विजयन ने वर्ष 2017 के शुरूआत में संघ से शांति वार्ता शुरू की. जयप्रकाश और केके बलराम जैसे संघ नेताओं ने इस कदम को सराहा. “हम मुख्यमंत्री की नीयत पर शक नहीं करते लेकिन काडर के बारे में यही बात नहीं कह सकते,” बलराम ने कहा.
नई व्यवस्था के अंतर्गत दोनों दलों ने हिंसा की वारदातों पर नज़र रखने पर सहमति जताई और अगर सीपीएम कार्यकर्ता गलत करते पाए गए तो संघ जिला नेतृत्व को आगाह करेगा और ठीक यही प्रक्रिया अपनाई जाएगी जब संघ कार्यकर्ता गलत करते पाए जाएंगें. तब यह स्थानीय नेतृत्व की जिम्मेदारी होगी कि दोषियों पर कार्रवाई की जाए. “अगर यह तरीका काम कर गया तो क्षेत्र में शांति बहाल की जा सकेगी,” बलराम उम्मीद करते हैं.
राजनीतिक मतभेद गहराई तक धंसे हुए हैं. दोनों पार्टियां एक दूसरे को उकसावे की जिम्मेदार बताती है.
भाजपा विधायक राजगोपाल के मुताबिक, “सीपीएम के रगों में हिंसा है. संघ और भाजपा ने कम्युनिस्ट हिंसा पर रोक लगाई है. दूसरे दल निष्क्रिय रहे हैं. लेकिन यहां संघ में जब हमें कोई और तरीका नहीं सूझता तब हम बदले की कारवाई करते हैं.”
संक्षेप में यही दावा सीपीएम का भी होता है. लेकिन जब वह सत्ता में होती है तो अलग ही तरह का विरोधाभास का सामना करती है. सत्तारूढ़ दल होने के नाते हिंसा पर रोक लगाने की उनकी जिम्मेदारी है. अगर वह यह भी दावा करे कि हिंसा के लिए संघ जिम्मेदार है तब भी इसका स्पष्ट संदेश जाता है कि सरकार कानून व्यवस्था को बनाए रख पाने में नाकामयाब हुई है.
कला: अनीश डाउलागुपू
एनिमेशन: वेंकटेश सेल्वराज
फोटो: अमित भारद्वाज
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