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युद्ध और जौहर

तीर-कमान, भाला, त्रिशूल, तलवार, बंदूक, तोप, टैंक, अणु-बम की तरह बलात्कार भी युद्ध के लिए प्रयोग होने वाला एक हथियार है. तोपों और टैंकों का इस्तेमाल आबादी नष्ट करने के लिए होता है और बलात्कार का इस्तेमाल विजयी सेना पराजित सेना के मनोबल को ध्वस्त करने के लिए करती है.

इस पृथ्वी का अतीत ऐसे उदाहरणों का मलबा है जिनमें युद्ध जीतने के बाद या युद्ध जीतने के लिए शक्तिशाली पुरुष शत्रु ने कमजोर पुरुष शत्रु के पुल काट दिए, फसलें जला दीं और स्त्रियों को कुचल डाला.

आपका दुश्मन, जैसे न्यायाधीश लोया के दुश्मन, आप पर हमला करे तो आप क्या करेंगे? आपकी फसल जला दें, जैसे दंगों में बस्ती जला देते हैं, तो आप क्या करेंगे? स्त्रियों के दुश्मन अगर उनका बलात्कार करें तो उन स्त्रियों को क्या करना चाहिए? और वो बलात्कार भी अगर डंके की चोट पर हो, तब कोई भी क्या करे? कोई तब क्या करे जब बलात्कारियों का समूह बलात्कार के विरोध में आपके हिंसक विरोध का जवाब भी बलात्कार से ही दे?
क्या करे कोई?

आप अपने धड़कते हृदय, ध्यान दें मैंने धड़कते हृदय की बात की है, पर हाथ रख कर बताएं, उपरोक्त किन किन परिस्थियों में आपका उत्तर ‘आत्मसमर्पण करना’ होगा? और जो उत्तर आपका उत्तर होगा वही सबका क्यों हो?

आत्महत्याएं इसलिए भी होती हैं. जब मनुष्य शरीर की पराजय के बरक्स चेतना की पराजय में से किसी एक को चुनने के लिए बाध्य हो जाता है तो हर बार वो चेतना की पराजय ही चुने, यह जरुरी तो नहीं.

यह दुखद है, मनुष्यता के माथे पर अमिट एक दाग है लेकिन आत्महत्याएं हमारे समय की हकीकत हैं. सारे समयों की रही होंगी. कितने सारे पहलू इस समाज के सामने ही तब आते हैं जब कोई आत्महत्या करता है. यह साहसिक समाज, जो पद्मावती के विरोध और पक्ष में लड़ा मरा जा रहा है, इस बौद्धिक समाज के अधबहरे कानों में आवाज भी, बाज मर्तबा, आतमहत्या से ही दुर्भाग्यवश जाती है.

सती और जौहर को अलग-अलग कर के देखें. चाकू, ज़हर, गोली, बंदूक की तरह ही सती प्रथा भी हत्या की प्रविधि है. जौहर या ऐसी ही क्रूरतम मिसालें, मैं जहां तक समझ पा रहा हूं, पराजित, हताश और मिटते समूहों द्वारा ईजाद किया गया जघन्यतम तरीका था. बिलाशक वह जला कर मार डालने का तरीका भी शासकों का ही ईजाद किया हुआ था. लेकिन आधुनिक समय के युद्ध अपराध कोई पैटर्न बनाते हैं तो यह देखा जा सकता है कि बलात्कार एक हथियार है और स्त्रियां अपने तईं उससे बचने का उपाय भी करती हैं. कई तो अपना ही जीवन हर लेती हैं.

तुर्की में एक समूह ने, जो बहुसंख्यक थे और जिनकी सरकार थी, आर्मेनियाई समूह के लोगों को परेशान करते करते पहाड़ पर इतना ऊपर पहुंचा दिया जहां से उनके पास सबके साथ नदी में कूदने के अलावा कोई चारा न था. ठंढी नदी में कूदने वालों की संख्या पच्चीस हजार थी, तो क्या सब के सब कायर थे? नहीं. उनके पास एकमात्र रास्ता ही वही बचा था. 1915 के इस दुखद दौर में लाखों आर्मेनियाई मार दिए गए थे. कई लाख विस्थापित हुए और उस विस्थापन में बलात्कार की अनेकों घटनाएं घटी जिससे बचने के लिए स्त्रियों ने आत्महत्याएं कीं.

कश्मीर और भारतीय सेना का जिक्र मैं नहीं करूंगा लेकिन पूर्वी पाकिस्तान पर हुए पाकिस्तानी अत्याचार को याद करें. सलमान रश्दी ने अपने उपन्यास ‘आधी रात की संतानें’ में बलात्कारों के ऐसे खौफनाक मंजर पेश किए हैं जो स्मृति मात्र से आपको दहला देते हैं.
1947 की जो घटना याद रह जाने वाली है वो भारत-पाकिस्तान बंटवारा है. उस बंटवारे के दौरान अनेकों युवतियों ने विरोधी पक्ष से डर कर कुएं में छलांग लगा कर जान दे दी थी, कई फंदे से झूल गई थीं. तो क्या उस त्रासदी का मजाक उड़ाया जाएगा? कमअक्ल शायद इसी गुमान में रहते हों कि युद्ध में मनुष्यता के नियम चलते हैं! नहीं चलते.

जर्मनी में भी ऐसे ही हाल थे. 1945 में, जब लगने लगा कि हिटलरी शेखचिल्लीपना खत्म होने वाला है, तकरीबन एक हजार लोगों ने आत्महत्या की थी. आधुनिक युग में युद्ध ने अनगिनत आत्महत्याएं करवाई हैं. वही हाल प्राचीन और मध्यकाल के युद्धों का भी था. दुश्मन से बचने के लिए सीमित कायदे ही थे, या तो युद्ध जीतना या पराजित होना या स्त्रियों का बलात्कार या बच्चों का सामूहिक कत्ल या बलात्कार से बचने के लिए आत्महत्याएं.
मनुष्य का जीवन लेने का अधिकार किसी को नहीं, यहां तक कि खुद उस मनुष्य को भी नहीं. लेकिन ऐसे में कोई क्या करे जब कोई रास्ता ही न बचे. और ये आत्महत्याएं समाज द्वारा रची हुई हत्याएं हैं. किसानों की आत्महत्या, रोहित वेमुला तथा अन्य छात्रों की आत्महत्या, ये सब हत्याएं हैं. वैसे ही युद्ध के दौरान की आत्महत्याएं थीं. वो युद्ध का परिणाम थीं. युद्ध खत्म कीजिए वो अपमान से होने वाली आत्महत्याएं बंद हो जाएंगी.

आखिर अब तो जौहर नहीं होते?

पद्मावती के विरोध में जुटे दिमाग बदमाश हैं. वो बदमाश दिमाग दूसरे ऐसे लोगों का इस्तेमाल कर रहे हैं जिनका गौरव एक खास समय में आहत हुआ था. जौहर उसी आहत गौरव का परिणाम है.

पद्मावती के पक्ष में जुटे लोग पद्मावती के प्रदर्शन होने के पक्ष में लड़ें. कोई जौहर को जीवन का कायदा बताने लगे तो उससे लड़ें लेकिन खामखां किसी बिगड़े अतीत पर हंसना, वो भी जो खत्म सी एक बात है, किसी का दिल दुखाने जैसा है. पद्मावती का जौहर कायरता नहीं है. वह पराजय के अस्वीकार का मृत्यु-लिपि में बयान है. हो यह रहा है कि लोग पद्मावती सिनेमा के पक्ष में अपनी बात रखने में अक्षम हैं तो दूसरों को जौहर के खिलाफ बोलने के लिए उकसा रहे हैं. यह लकीर पीटने की कवायद है वरना पद्मावती फिल्म भी जौहर के पक्ष में ही खड़ी मिलेगी. जिन्हें लग रहा है कि पद्मावती का समर्थन जौहर का विरोध है वो सिनेमा देखकर पछताने की तैयारी भी लगे हाथ करते रहें.

पद्मावती का समर्थन विशुद्ध कलाकृति का समर्थन होना चाहिए. उसमें जीवन जिस रूप में आया है उसकी आलोचना-विलोचना हो सकती है किन्तु इस फिल्म को  दफ़न करने  वाले तर्क उतने ही लचर हैं जितने यह तर्क कि पद्मावती कलाकृति के समर्थन में खड़ा होने का मतलब अतीत पर हंसना भी है. दोनों अछोर हैं.

साभार: सौतुक डॉट कॉम