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इमेज झोंकने के दौर में अपनी आंखें खुली रखिए
बीते कुछ समय में सवाल पूछने को लेकर जिस तरह से लोगों को दबाया गया, कुचला गया, मज़ाक उड़ाया गया उसका नतीजा यह हुआ कि लोग महीनों तक चुप रहे, फिर उन्हें इसकी आदत हो गयी है. ये धारणा बन चुकी है कि ये जो भी बोलेगा उसे ट्रोल कर के ख़त्म कर दिया जायेगा, और इसकी आदत लोगों को बनी रहे, इसलिए आया फेक न्यूज़. यानी झूठ. गांधी सत्य का प्रयोग करते थे, हमारा टेलीविज़न, हमारे अख़बार आज कल झूठ के साथ प्रयोग करते हैं. ऐसा पहली बार हुआ की जब प्रधानमंत्री 15 अगस्त को भाषण दे कर गए तो चार दिनों तक लोग फैक्ट चेकिंग करते रहे की प्रधानमंत्रीजी सही बोले या नहीं बोले. यह अच्छी बात नहीं है. अटलजी के स्टाइल में, ‘यह अच्छी बात नहीं है.’
वियतनाम की तस्वीर लगा कर छत्तीसगढ़ का पुल बताते है, स्पेन-मोरक्को की तस्वीर लगाकर आपको बताते है भारतीय सीमाओं को प्रज्ज्वलित कर दिया गया, कहीं और की तस्वीर लगा कर कहते है कि हमने 50 हज़ार किलोमीटर हाईवे को एलईडी से रौशन कर दिया है. इतनी जल्दी में क्यों है आप? अच्छा किया कि आपने बाद में हटाया, माफ़ी मांग ली, बहुत अच्छी बात है लेकिन कुछ तो इसमें पैटर्न है कि आप लगातार झूठ के साथ प्रयोग कर रहे है और ये झूठ के साथ प्रयोग क्या है आपको सब पता है?
पहले लोग आंखों में धूल झोंकते थे, आज कल इमेज झोंकते हैं. तरह-तरह के इमेज झोंके जाते है. बहुत कम जगह पर स्वच्छता के नाम पर डस्टबिन लगी, कम ही कर्मचारी भर्ती किये गए और मैनहोल में जो लोग सर पे मैला उठाते है, नंगे बदन जाते है, मर जाते है, उनके लिए कपड़े तक नहीं आए. इसके बाद भी बैनर पोस्टर अभियान 10 तरह का लग गया, उसका क्रॉस चेकिंग नहीं हुआ.
मगर इमेज ही अच्छा हो रहा है. अच्छा तो हो ही रहा है, उससे प्रभावित हो के बहुत लोगों ने अच्छा किया है, लेकिन सिस्टम तो नहीं बना न? सिस्टम नहीं बना. आपके इंडिविजुअल कंट्रीब्यूशन को सिस्टम का कंट्रीब्यूशन नहीं माना जा सकता. वो उसको कॉम्पलिमेंट करता है, सप्लीमेंट नहीं करता. पर यहां वह तस्वीर गायब कर दी जाती है, इमेज झोंक दिया जाता है. वो इमेज लगातार झोंका जा रहा है.
इतिहास मिटाने के लिए इमेज झोंकने का एक नया उदहारण मैं देता हूं कि कुछ समय पहले कलकत्ता में था. वहां अख़बार में एक ऐड छपा. पूरे ऐड में कि ‘70 साल हो गए आज़ादी को और हम अभी तक इस ट्रैफिक जाम से मुक्त नहीं हो पाए’. कमाल की बात है साहब, पिछले 20 साल में तो लोगों ने कार खरीदना शुरू किया. पिछले 20 साल के दौरान ही सरकारों ने ऑटोमोबाइल लॉबी के चक्कर में पब्लिक ट्रांसपोर्ट को ख़त्म किया है. इसलिए तो सबने गाड़ियां खरीदीं और सड़क को भर दिया, तो जाम लगा. वो जाम सत्तर साल का नहीं है. वो सत्तर साल कि उपलब्धि का नकारात्मक परिणाम है कि सड़कों पर चलना मुश्किल हो गया है.
और ये दावा कौन कर रहा है? वो कंपनी जो टैक्सी का धंधा करती है, जिसकी गाड़ियां जहां तहां पार्कों में, पब्लिक प्लेस में बिना कोई पार्किंग फीस दिए पार्क हो रही हैं. पर चुंकि उसको पता है सत्तर साल वाला स्लोगन जो है वो कामयाब स्लोगन है आज के दौर में. मानो सत्तर साल में देश में कुछ नहीं हुआ तो ट्रैफिक जाम को भी सत्तर साल में मढ़ दो. वे खुद ही अनैतिक हैं अपने आप में, लेकिन उसने आपकी आंखों में एक इमेज झोंक दी. आपने मान लिया कि भई सत्तर साल से ट्रैफिक जाम में है. हैलुसिनेशन हो गया सबको कि सत्तर साल में ट्रैफिक जाम. लोग अपना वो सारा अनुभव भूल गए कि पिछले पचास साल के दौरान ‘नया दौर’ फिल्म के एक सीन में पूरी सड़क में एक ही गाड़ी चली आ रही है. हमने वो तस्वीर नहीं देखी थी क्या?
लेकिन एक टैक्सी कंपनी वाला स्मार्ट निकला, उसने सोचा कि सरकार से भी एकाकार हो जाते हैं. तो सरकार ब्रह्म है सब उसी में लीन हुए चले जा रहे हैं. तो कैसे चलेगा भई? अध्यात्म को अध्यात्म कि तरह रखो और लोकतंत्र को लोकतंत्र कि तरह रखो न? सूचना सही होनी चाहिए.
अख़बार में एक ऐड छपता है हीरो बाइक्स का. उसका अंग्रेजी ऐड का एक बहुत मज़ेदार स्लोगन है, मैं बताता हूं. उसमे एक नायक खड़ा है. कोई आम आदमी जैसा मिलिट्री के ड्रेस में जो मॉल रोड पर, दिल्ली यूनिवर्सिटी के बाहर मिलता है. वो मिलिट्री के कपड़े पहन कर खड़ा है एक बच्चे के साथ. स्लोगल है ‘सैल्यूटिंग द हीरोज बिहाइंड द हीरोज.’ अब बताइये कौन से हीरो के पीछे कौन हीरो है? उसमें कुछ भी सही या काम का नहीं है. सिर्फ मॉडल सेना कि ड्रेस में है. क्युंकी सेना के ड्रेस में है और आपको पता है कि दिनभर टीवी पर सेना-सेना चल रहा है तो विज्ञापन भी सेना का बना दो और लिख दो ‘सैल्यूटिंग द हीरोज बिहाइंड द हीरोज.’ इसका मतलब कुछ नहीं होता. क्या सेना हीरो बाइक बना रही है? क्या हीरो बाइक ने सेना का प्रदर्शन अच्छा कर दिया? हमें तो मालूम नहीं कि सेना के जवान पल्सर बाइक पसंद करते है या हीरो पसंद करते है. किसी को मालूम नहीं है लेकिन सेना की इमेज अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर लिया.
नेशनलिज्म देश प्रेम कंज्यूम करने का आइटम नहीं है दोस्तों. यह आटे कि बोरी बेचने का जरिया नहीं है. यह अपने नागरिकों पर भरोसा करने का मंत्र है, जज़्बा है. यह साबुन तेल बेचने का जज़्बा नहीं है. यह देश प्रेम जो टीवी ने फैलाया, चुंकि वो नकली देश प्रेम था तो उसकी परिणीति यही होनी थी कि उसके नाम पर कुकर बिकना था, उसके नाम से साबुन, तेल और हीरो बाइक बिकनी थी.
एक अपने बाबा रामदेवजी हैं, अच्छे हैं. मोदीजी मेक इन इंडिया चला रहे है, कह रह है- आओ भाई, बाहर से आओ, हमारे यहां बनाओ. बाबा रामदेवजी का ऐड देखें तो लगता है कि खड़े हो कर यहीं से सलामी मार दें. वे कह रहे हैं ‘स्वदेशी.’ लग रहा है गांधीजी के बाद तो यही आये हैं. कह रहे है भगाओ सारी कंपनियों को यहां से. भगा कोई किसी को नहीं रहा है, लेकिन विज्ञापन चल रहा है. तो राष्ट्रवाद एक नया धूल बना दिया इन्होंने जिसका इमेज लेकर आपकी आंखों में धोखा झोंका जा रहा है. तो प्लीज अपने देश को अपनी आंखों से देखिये.
(तोशन चंद्राकर द्वारा ट्रांसक्राइब)
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