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अमिय-गरल, शशि-सीकर, रविकर, राग-विराग भरा प्यारा
दूधनाथ जी नहीं रहे. इलाहाबाद थोड़ा और सूना हो गया. हम सब थोड़े और कम हो गए. फोनबुक पलटते हुए एक और नंबर अब उदास कर देगा. रवीन्द्र कालिया, सत्यप्रकाश मिश्र, नीलाभ और दूधनाथ सिंह, सब एक के बाद एक गए और यों स्मृतियों में बसे इलाहाबाद के जगमग रंग स्मृतियों में ही चमकने को शेष रह गए. दूधनाथ जी का जाना हिंदी साहित्य, प्रगतिशील-जनवादी-लोकतांत्रिक धारा की क्षति तो है ही पर मेरे लेखे उनको सबसे ज़्यादा इलाहाबाद याद करेगा.
वे बहुत प्रतिभावान थे. उन्होंने अपने जीवन में कई-कई भूमिकाएं एक साथ निभाईं. एक रचनाकार के रूप में उन्होंने कई विधाओं में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किया. इन सब हस्तक्षेपों मंन वे एक जैसे व्यवस्थित दिखते थे, क़रीने और तैय्यारी के साथ शब्द सजाता एक शिल्पी. उनकी व्यक्तिगत धज से लेकर लेखकीय धज तक में एक व्यवस्था, क़रीने का बोलबाला था.
वे ज़बरदस्त शिक्षक थे. छुट्टियों में उनकी ‘अतिरिक्त कक्षाएं’ हिंदी के हर विद्यार्थी के लिए सम्मोहन का बायस होती थीं. हालांकि मैं उनका कक्षा-विद्यार्थी कभी नहीं रहा पर उनके अध्यापन की सम्मोहकता के किस्से हम तक उनके शिष्यों से छनकर पहुंचते रहे. इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के लोकप्रिय शिक्षकों में उनका नाम हमेशा के लिए अंकित रहेगा, ख़ासकर कविता पढ़ाने के सिलसिले में. उनके अकादमिक जीवन के बारे में यह दिलचस्प तथ्य भी हमेशा याद किया जाता रहेगा कि उन्होंने ता-ज़िंदगी शोध पूरा नहीं किया, प्रोफ़ेसर नहीं बने. यह विडम्बना और अकादमिक जगत की उलटबांसियों में से एक नहीं तो और क्या है कि ‘निराला: आत्महंता आस्था’ जैसी किताब लिखने वाले को शोध का मोहताज होना पड़ा? उनके ख़ुद के रचनाकर्म पर हुए ढेरों शोध इस विडम्बना को और गाढ़ा करते हुए अकादमिक जगत की जड़ता-कुंठा को हमारे सामने ला देते हैं.
उनके स्नेहिल अभिभावकत्व के किस्से भी इलाहाबाद में सबकी ज़ुबान पर थे. अपनी संततियों और कुछ एक शिष्यों के साथ उनका स्नेह अद्भुत था. हालांकि उनके सभी शिष्यों को यह सुयोग हासिल न हो सका और बहुतेरों के साथ तो उनकी ठन-गन भी चली. यह भी उनके व्यक्तित्व का एक हिस्सा था.
निराला, महादेवी और मुक्तिबोध पर लिखी उनकी आलोचनात्मक किताबें उनकी खोजी वृत्ति और विश्लेषण क्षमता की स्मारक बनी रहेंगीं. इसमें भी ‘निराला: आत्महंता आस्था’ महत्वपूर्ण किताब रहेगी क्योंकि वहाँ निराला के जीवन सूत्रों के सहारे उनके रचनाकर्म की बारीकियों को एक कवि-कथाकार की नज़र से देखना ज़्यादा है. उनकी आलोचना वहां सिद्ध होती है जहां वे जीवन के सहारे रचना की वृत्तियों का विश्लेषण करते हैं और वहां कमज़ोर जहां यह काम नहीं हो पाता. जहां जीवन की वृत्तियों पर ज़ोर बढ़ जाता है, वहां बात नहीं बन पाती.
वे प्राथमिक रूप से कथाकार थे. साठोत्तरी कहानी के चार यारों- ज्ञानरंजन, रवीन्द्र कालिया, काशीनाथ सिंह और दूधनाथ सिंह में से एक. साठ के बाद देश भर में बदलते चेतना के लैण्डस्केप की पैमाइश करते इन कथाकारों में दूधनाथ जी शहरी और ग्रामीण, दोनों इलाक़ों में हो रहे साभ्यतागत बदलाओं को चित्रित करते हैं. ज्ञानजी जैसे कथाकारों ने जहां एक समय के बाद कहानी-लेखन बंद-सा कर दिया और साठोत्तरी के ही अव्वल कहानीकार के रूप में जाने जाते रहे वहीं साठोत्तरी कहानी के वृत्त से आगे निकलते हुए दूधनाथजी ने कहानी के इलाक़े में प्रयोग जारी रखे. उनके कई चरित्रों के बारे में कहा जाता है कि उनकी वास्तविक जीवन के चरित्रों से काफ़ी समानताएं हैं.
वास्तविक चरित्रों का कहानी में आना बुरा नहीं, बुरा तब है जब रचनाकार अपने ही चरित्रों से बदले की चाह में दिखने लगे. जहां तक उनकी रचनाओं में वास्तविक चरित्र अपनी वास्तविकता और स्वाभाविकता में आए हैं, वहां तक वे जीवन को समझाते-सुलझाते हैं, वहां बात बन जाती है पर जहां ऐसा नहीं हो सका है, वहां वे चरित्र लेखक की निजी विचार प्रक्रिया के शिकार होकर वास्तविकता का कैरीकेचर बन कर रह गए हैं. कथा के क्षेत्र में उनका शाहकार ‘आख़िरी कलाम’ उपन्यास है, जो न सिर्फ़ साम्प्रदायिकता की समस्या को बारीकी से छूता है बल्कि इस भयावह बीमारी के प्रति हमारे उत्तरदायित्व से हमें सचेत भी करता है. उनकी कहानियों और उपन्यासों का चाक-चौबंद शिल्प, भाषाई रम्यता और गढ़न किसी भी नए कथाकार के लिए ईर्ष्या-स्पर्धा का कारण बनी रहेगी.
उनकी कविताएं अपने बेहतर अन्दाज़, चमकीले शिल्प और कहन की अदा में बेजोड़ हैं. उनकी कविताएं अपने मूल में एक रसभीगे पाठक की काव्यात्मक प्रतिक्रियाएं हैं. मेरी समझ से वे मूलतः कवि न थे, उनके कथाकार-आलोचक व्यक्तित्व के छलकती लय कविताओं के रूप में हमारे सामने है.
‘लौट आ, ओ धार’ के संस्मरण उनके समकालीनों, वरिष्ठों और उनके ‘निज’ को भी खोलते हैं. ख़ासकर शमशेरजी पर लिखे संस्मरण इस किताब की जान हैं. ‘यमगाथा’ के मिथकीय आख्यान की पुनर्प्रस्तुति के ज़रिए उन्होंने प्रगतिशील धारा के भीतर परम्परा से सम्वाद की चली आ रही धारा को थोड़ा और विकसित परिमार्जित करने की कोशिश की. एक सम्पादक के रूप में उनके द्वारा आपातकाल के वक़्त सम्पादित ‘पक्षधर’ तो महत्वपूर्ण है ही, निराला की लम्बी कविता ‘कुकुरमुत्ता’ का सम्पादन-पाठालोचन भी उनके यादगार कामों में से एक है.
कितनों के प्यारे और कितनों के शत्रु, कितनों के हितू और कितनों के अनहितू, कभी रुष्ट, कभी प्रसन्न, निंदा-रस से सिक्त दूधनाथजी लीला-पुरुष थे, रस-पुरुष थे. यह उनका जीवन जीने का तरीक़ा था. पर ता-ज़िंदगी वे विचार और रचना के मोर्चे पर, जनवाद और जम्हूरियत, अमन, बराबरी और इंसाफ़ के लिए दृढ़ता से चलते रहे. एक आंतरिक दृढ़ प्रतिबद्धता उनमें हमेशा घनीभूत थी. जीवन भर वे प्रगतिशील आंदोलन का हिस्सा रहे और आख़िरी साँस जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष के बतौर ली. वे मेरे डबल-गुरु थे, मेरे शिक्षकों के शिक्षक. मैं ख़ुद और अपने शिक्षकों की ओर से उन्हें याद करता हूं. अपनी ताक़त और कमज़ोरियों के साथ साहित्य-संस्कृति के मोर्चे पर अनवरत जूझते-लड़ते वे हमारी स्मृतियों में हमेशा रहें. आमीन!
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