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दो पाले में बंटे समाज का सच है अंकित की हत्या

अंकित सक्सेना की हत्या के मामले को हिंदू बनाम मुस्लिम बनाने की कोशिशें ख़तरनाक मूर्खता हैं. प्रेम करने के लिए मारे जानेवालों में आपको हर धर्म, संप्रदाय, जाति और समुदाय में मिल सकते हैं. कई मामलों में तो लड़का और लड़की के परिवारवालों ने आपसी सहमति से अपनी संतानों को मारा है. यह कथित ऑनर किलिंग का मामला इतना संगीन हो चुका है कि कुछ दिन पहले सर्वोच्च न्यायालय को खाप पंचायतों को अवैध कहना पड़ा. इन पंचायतों को लगभग हर बड़ी पार्टी के स्थानीय नेताओं का समर्थन प्राप्त होता रहा है. प्रेम को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश में केंद्र सरकार इतनी उतावली हो गयी कि उसने हदिया मामले में एनआईए तक को लगा दिया और बेहद दूर्भाग्यपूर्ण फ़ैसले में केरल उच्च न्यायालय ने उसकी शादी को ही तोड़ दिया. इसमें भी सर्वोच्च न्यायालय को दख़ल देना पड़ा.

बहरहाल, अगर आँकड़ों को देखें, तो एक भयावह तस्वीर उभरती है.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक, 2014 में 28, 2015 में 192 और 2016 में 68 कथित ऑनर हत्याएँ हुईं. वर्ष 2015 और 2016 के बीच 65 मामले गैर-इरादतन हत्या के सामने आये थे जिनमें ऑनर किलिंग का उद्देश्य था.

वर्ष 2016 में सबसे अधिक 18 मामले मध्य प्रदेश में हुए, जबकि 2015 में सर्वाधिक 131 मामले उत्तर प्रदेश में हुए. वर्ष 2014 में उत्तर प्रदेश में ऐसी मात्र एक घटना हुई थी.

वर्ष 2010 में कानून विशेषज्ञों- अनिल एवं रंजीत मल्होत्रा- ने जनवादी महिला समिति के आँकड़ों के हवाले से एक शोध में बताया था कि भारत में हर साल 1000 से अधिक हत्याएँ ऑनर किलिंग से जुड़ी होती हैं. उन्होंने बताया था कि हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश में करीब 900 तथा शेष भारत में 100-300 ऐसी हत्याएँ होती हैं.

ऑनर किलिंग के अलावा कथित अवैध प्रेम संबंधों को लेकर भी हत्याओं का आँकड़ा भयावह है. वर्ष 2015 में उत्तर प्रदेश में 383, तमिलनाडु में 175, बिहार में 140 और गुजरात में 122 आपराधिक मामले ऐसे दर्ज हुए थे, जो प्रेम संबंधों से जुड़े थे. ऐसे मामलों में हत्याओं का ब्यौरा इस प्रकार है- 214 महाराष्ट्र में, 198 आंध्र प्रदेश में, 190 उत्तर प्रदेश में और 125 बिहार में.

‘ऑनर किलिंग’ के मुद्दे पर कुछ समय पहले नकुल सिंह साहनी ने एक ज़रूरी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म ‘इज़्ज़तनगर की असभ्य बेटियाँ’ बनायी थी. उस फ़िल्म को देखा जाना चाहिए.

अंकित सक्सेना की हत्या के बाद कई मामले आँखों के सामने घूम गये. साल 2007 में हुई मनोज और बबली की हत्या का मामला लगभग 11 साल बाद अभी भी देश की सबसे बड़ी अदालत में लंबित है. इसमें खाप के फ़ैसले के बाद बबली के परिवार ने दोनों की हत्या की थी. खाप और जातीय दंभ का इतना असर था कि करनाल की कचहरी में कोई भी वकील इस केस को लड़ने के लिए तैयार नहीं हुआ. यह भी शर्मनाक रवैया इसी देश में होता है जहाँ कभी देश, कभी धर्म और कभी जाति के नाम पर वकील मुकदमा ही नहीं लेते.

वर्ष 2002 में दिल्ली से सटे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नीतीश की हत्या हुई. उस मामले में देश ने देखा कि हत्यारों के ताक़तवर परिवार के सामने नीतीश की माँ ने कितनी दृढ़ता से लड़ाई लड़ी थी. मनोज की माँ और बहन उसी तरह से लड़ रही हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश में 2013 में एक पिता ने तो उसकी हत्या करने से पहले अपनी गर्भवती बेटी से बलात्कार किया था. वर्ष 2014 में भावना की हत्या उसके माता-पिता ने दिल्ली में की थी.

वर्ष 2016 की तमिलनाडु की घटना तो वीडियो में दर्ज हुई थी जिसमें दिनदहाड़े बीच सड़क पर प्रेमी युगल पर हमला हुआ जिसमें लड़की की जान किसी तरह से बच पायी थी. इन मामलों में कथित सवर्ण, पिछड़े और दलित सभी जातियों के पीड़ित और हत्यारे हैं. कई बार कह दिया जाता है कि कम पढ़े-लिखे या कम आर्थिक क्षमता के समाज में ऐसा होता है. लेकिन ऐसा नहीं है. ऊपर के कुछ मामलों के साथ यूरोप और उत्तरी अमेरिका में बसे उन मामलों को देखा जा सकता है जिनमें भारतीय परिवारों ने ऑनर किलिंग की.

वर्ष 1992 के मामले को भी नहीं भूला जाना चाहिए जब हिंदुजा परिवार के सबसे धनी व्यक्ति के इकलौते पुत्र ने प्रेम और शादी पर परिवार की रज़ामंदी न मिल पाने के कारण आत्महत्या कर ली थी. यह परिवार ब्रिटेन का सबसे धनी परिवार है. इसका नाम अन्य मामलों में आप सुनते रहे होंगे. कुछ दिनों के बाद इनकी चर्चा आपकी मीडिया अक्सर करनेवाली है.

ऐसे युवाओं की भी बड़ी संख्या है जो परिवार और समाज के दबाव और डर से आत्महत्या करने के लिए विवश हो जाते हैं. आवश्यकता यह है कि समाज की मानसिकता बदले और अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण न मिले. साथ ही, ऑनर किलिंग के मामलों के निपटारे के लिए अलग से क़ानून बनाया जाना चाहिए. अंकित की हत्या के आरोपी हिरासत में हैं और उम्मीद है कि उन्हें अदालत से जल्दी सज़ा मिलेगी. इस मामले को सांप्रदायिक रंग न दिया जाये. इसमें बड़ी चिंता की बात यह भी है कि घटना के समय वहाँ मौजूद और गुज़रते हुए लोगों ने तात्कालिक मदद नहीं की. यह भी समाज में बढ़ते विलगन का संकेत है. ऐसा ही चलता रहा, तो हम ज़ोम्बियों की भीड़ में बदल जायेंगे.