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वाचडॉग के लिए भूंकना और काटना बहुत जरूरी है

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम जजों में से एक जस्टिस कुरियन जोसेफ ने सोमवार को एक कार्यक्रम में छात्रों के साथ बातचीत में लोकतंत्र के दो वाचडॉग यानी निगरानीकर्ता बताया. ये हैं न्यायपालिका और मीडिया. जस्टिस कुरियन ने कहा कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए दोनों हिस्सों को लगातार चौकन्ना रहना होगा और ख़तरे की स्थिति में चिल्लाकर लोगों को बताना भी होगा.

जस्टिस कुरियन यहीं नहीं रुके. उन्होंने कहा- “भूंकना इसलिए जरूरी है ताकि जिम्मेदार लोग सजग बने रहें. अगर भूंकने से भी कोई नतीजा नहीं निकलता है, जिम्मेदार लोग इस पर ध्यान नहीं देते हैं तो फिर वाचडॉग के पास सिर्फ एक ही विकल्प बचता है, काटने का. हालांकि यह अपवाद की स्थिति है जैसा कि पुरानी कहवात भी है कि भूंकने वाले कुत्ते शायद ही कभी काटते हैं.”

गौरतलब है कि जस्टिस कुरियन का बयान सुप्रीम कोर्ट के एक अन्य वरिष्ठ जज जस्टिस जे चेलमेश्वर के बयान के 48 घंटे बाद ही आया है. जस्टिस चेलमेश्वर ने वरिष्ठ पत्रकार करन थापर के साथ एक साक्षात्कार में सार्वजनिक घोषणा की थी कि वे रिटायरमेंट के बाद किसी भी तरह का सरकारी पद नहीं लेंगे. जस्टिस चेलमेश्वर ने कहा था, “22 जून को मेरे रियारमेंट के बाद, मैं किसी भी सरकार से किसी तरह के पद की अपेक्षा नहीं करूंगा.”

जस्टिस कुरियन ने भी छात्रों के साथ बातचीत में एक छात्र के सवाल पर इस बात को रेखांकित किया. उन्होंने कहा- “मैं रिटायरमेंट के बाद कोई भी सरकारी पद नहीं लूंगा.” दो दिन आगे पीछे दो वरिष्ठ जजों के बयान से यह बात एक बार फिर साबित हुई है कि विधायिका और न्यायपालिका के बीच रिश्ते निम्नतम धरातल पर हैं. जस्टिस कुरियन और जस्टिस चेलमेश्वर के बयानों में काफी हद तक समानता है. मसलन करन थापर के साथ बातचीत में जस्टिस चेलमेश्वर ने साफ किया था कि वे किसी व्यक्तिगत संपत्ति के लिए नहीं लड़ रहे हैं बल्कि उनकी लड़ाई एक संस्थान को बचाने की है. यही इशारा जस्टिस कुरियन ने भी किया.

रिटायरमेंट के बाद जजों को सरकारी पदों पर आसीन करने की घटना हाल के दिनों में न्यायपालिका में बड़ा मुद्दा बनकर उभरी है. इस तरह के सरकारी पदों पर जजों की नियुक्ति को लेकर एक सोच है कि इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता और जजों की तटस्थता कायम नहीं रह पाती. मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद पर रिटायर जजों को ही बिठाने का नियम है. इस समय इसके अध्यक्ष जस्टिस एमएल दत्तू हैं. रिटारमेंट के बाद जजों को सरकारी पदों पर आसीन करने का सबसे ताजा और विवादित मसला रहा कुछ साल पहले पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस पी सथाशिवम को केरल का राज्यपाल मनोनीत करना. लीगल हल्के में इसकी तीखी आलोचना हुई और एक तबके का मानना था कि पूर्व मुख्य न्यायाधीश को राजनीतिक पद नहीं लेना चाहिए था.

पूर्व में यूपीए की सरकार के दौरान साल 2012 में वर्तमान वित्तमंत्री अरुण जेटली ने रिटायरमेंट के बाद संवैधानिक पदधारकों को सरकारी पद लेने पर कड़ी आपत्ति दर्ज करते हुए कहा था कि इससे जजों की तटस्थता और निष्पक्षता प्रभावित होती है. इसलिए किसी भी संवैधानिक पद से रिटायर व्यक्ति के लिए 2 साल तक का एक गैप पीरियड होना चाहिए. तब जेटली का कहना था कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों के लिए तो पोस्ट रिटायरमेंट के पद पहले से ही निर्धारित और सार्वजनिक होने चाहिए.

गौरतलब है कि जस्टिस चेलमेश्वर और जस्टिस कुरियन उन चार जजों में शामिल हैं जिन्होंने जनवरी महीने में वर्तमान मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा को लिखे पत्र को सार्वजनिक करने के लिए प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी. इस पत्र के मुताबिक मुख्य न्यायाधीश मामलों के आवंटन में ईमानदारी नहीं बरत रहे थे. संवेदनशील मामलों को अपेक्षाकृत जूनियर जजों की बेंच को सुपुर्द किया जा रहा था. इससे उन अटकलों को बल मिला कि इन मामलों में मनचाहे निर्णय की अपेक्षा से ऐसा किया जा रहा था. हालांकि मुख्य न्यायाधीश ने स्पष्ट कर दिया था कि सुप्रीम कोर्ट के मास्टर ऑफ रोस्टर वे ही हैं लिहाजा मामलों के आवंटन का अधिकार सिर्फ उन्हें ही है. इस पर प्रश्न नही उठाया जा सकता.

जस्टिस कुरियन ने भूंकते रहने और मजबूरी में काटने की सलाह दी है, मीडिया के लिहाज से यह सलाह महत्वपूर्ण है जिसने कायदे से भूंकना ही छोड़ दिया है, काटना तो दूर की बात है.