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इतिहास बनाने की वर्जिश

यह नायाब शोध इतिहास के पन्नों में कहीं दबी-ढकी रह गई थी कि अमर शहीद राजगुरु का राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से नाता था. वे राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के स्वयंसेवक थे. मतलब यह कि वे संघ की शाखा में उपस्थित होते रहते थे. यह गहरी शोध नरेंद्र सहगल ने की है. सहगल साहब के बारे में तो आप जानते ही होंगे कि वे ख्यातिप्राप्त पत्रकार (!) हैं तथा राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रचारक शोधकर्ता हैं. इन दिनों हिंदुत्व के बगीचे में ऐसी प्रतिभाओं की जरखेज फसल पैदा हो रही है और खूब काटी जा रही है. 

राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की खासियत ही यह है कि आप प्रतिबद्धता के साथ इससे जुड़ते हैं तो आप एक साथ मौलिक चिंतक, इतिहासकार, शोधकर्ता और राष्ट्रवादी बन जाते हैं. तो नरेंद्र सहगल साहब के व्यक्तित्व के भी इतने ही आयाम हैं. उन्होंने अपने ताजा शोधग्रंथ में लिखा है कि 1931 में जिन तीन अमर शहीदों, राजगुरु, सुखदेव व भगत सिंह को फांसी दी गई थी, उनमें से राजगुरु राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के स्वयंसेवक थे.

इतना गहरा शोध मैंने पूरे कौतूहल से पढ़ा और फिर मुझे खेद हुआ कि शोधकर्ता ने इतिहास में थोड़ी और गहरी डुबकी लगाई होती तो उसे यह जरूर पता चल जाता कि सिर्फ राजगुरु नहीं बल्कि तीनों ही शहीद राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के स्वंयसेवक थे. जब तालाब भी अपना हो, गोताखोर भी आप ही हों और मोती चुनने की ठेकेदारी भी अपनी ही कंपनी की हो तब आप जो न निकाल लाएं और जिसे जो न घोषित कर दें! 

यहूदी आइंस्टाइन जब जर्मनी से निकल आए और अमरीका में जा बसे, और सारी दुनिया उनकी वैज्ञानिक प्रतिभा से चकाचौंध होने लगी और उन्हें नोबल पुरस्कार मिला तो किसी ने उन्हें बताया: अब जर्मनी कह रहा है कि आप तो उसके हैं! 

आइंस्टाइन ने हंसते हुए कहा: हां, ठीक ही है! आज जर्मनी मुझे अपना बताता है, अमरीका भी कहता है कि मैं उसका हूं. लेकिन अगर यह सारा सम्मान-सफलता न हुई होती  तो क्या होता जानते हो? जर्मनी कहता कि वह यहूदी था और अमेरिका कहता कि वह शरणार्थी था! मेरा इतिहास नहीं, मेरा वर्तमान मेरी पहचान बना कर सब उसका श्रेय लेना चाहते हैं. आइंस्टाइन हंस दिए लेकिन वह हंसी हमारी करुण आंतरिक दरिद्रता के बारे में थी.

जिनके इतिहास नहीं होते वे वर्तमान से ऐसी ही भीख मांगते चलते हैं. इसलिए कहना पड़ा सत्यशील और हर्षवर्धन राजगुरु को कि उनके दादा अमर शहीद राजगुरु का ऐसा राजनीतिक इस्तेमाल कोई न करे, क्योंकि इसका कोई आधार नहीं है जिससे जोड़ कर यह बात कही जा सके कि वे राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से संबंधित थे.

अब कहा जा रहा है कि भूमिगत रहने के दौर में कभी राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के संस्थापक हेडगवार साहब ने राजगुरु को ठहराने में मदद की थी, कोई कह रहा है कि अरुणा आसफ अलीजी को राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के हंसराज गुप्ता ने अपने घर में छुपाया था.

हुआ होगा यह सब लेकिन इससे कहां और कैसे साबित करेंगे आप कि राजगुरु या अरुणा संघ परिवार की थीं? भगत सिंह तो एक लंबे दौर तक कानपुर में गणेश शंकर विद्यार्थी के आश्रय रहे और उनकी पहचान पोशीदा रखने के लिए विद्यार्थीजी ने उन्हें अपने ‘प्रताप’ में नौकरी भी दे रखी थी. क्या इस आधार पर कभी कोई कहने की जुर्रत कर सकता है कि भगत सिंह कांग्रेस के या गांधी के आदमी थे? यह कायर कोशिश है.  

ऐसी कोशिश नई नहीं है, पहली भी नहीं है. इतिहास खंगालें तो आप देखेंगे कि भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में जिनकी भूमिका कहीं भी दर्ज नहीं है या विपरीत है, वे सभी इस कोशिश में रहे हैं कि उस संग्राम के किसी-न-किसी प्रतीक पुरुष को अपना लें, और फिर इतिहास पर अपना दावा ठोंक दें.

भारतीय वाम और दक्षिण दोनों यहां एक साथ कदमताल करते दिखाई देते हैं. दोनों ने अपने राजनीतिक रेगिस्तान में ऐसी फसलें लगाने की कोशिश की है जिनकी जड़ें वहां हैं ही नहीं. भगत सिंह-त्रयी को वामपंथी घोषित कर, उनको अपने साथ करने की कोशिश लंबी चली है. वह फसल लहलहा नहीं सकी, क्योंकि फलसफा एक चीज है और पार्टी दूसरी चीज है.  इसलिए भगत सिंह पचाए नहीं जा सके.

फिर दक्षिणपंथी ताकतों को लगा कि जो काम पार्टी के कारण नहीं हुआ वह काम राष्ट्र उन्माद के नाम पर हो जाएगा. सो उसने इन सबको भगवा चादर पहनानी चाही. अब ये सभी देशप्रेमी थे इससे कौन इंकार कर सकता है, और देशप्रेम की होलसेल दूकान हमारे पास है तो इन्हें हमारी दूकान में ही होना चाहिए. लेकिन जब माल दुकान से बड़ा हो तब आप क्या करेंगे? या तो दुकान बदलनी पड़ेगी या तो माल! इनके साथ यही दिक्कत हो रही है. 

सुभाषचंद्र बोस के साथ भी यह खेल खूब खेला गया. सुभाष बाबू के साथ परेशानी तो और भी ज्यादा थी कि उनका अपना एक राजनीतिक दल था, जिसे उनके जाने के बाद भी अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए उन्हें जिंदा बनाए रखना जरूरी था. इसलिए सुभाष बाबू के कितने अवतार गढ़े गये और कितनी तरह से गांधी, नेहरू आदि सबको चालबाज साबित करने की कोशिशें हुईं.

लेकिन इतिहास का कमाल यह है कि वह किसी के पक्ष या विपक्ष में नहीं होता है. वह सही मानो में तटस्थ होता है, समझिए कि आईने की तरह! जैसी सूरत ऊपर वाले ने दी है, आईने में वही और वैसी ही दिखाई देती है. इतिहास किसी के एवज में न तो काम करता है, न दर्ज करता है. वहां तो बलिदान भी खुद ही देना पड़ता है और बलि का बकरा भी खुद ही चुनना पड़ता है.

यह अकारण नहीं है कि बंगाल में जितने सशस्त्र क्रांतिकारी पैदा हुए, उतने ही या कि उसके आस पास ही मुखबिर पैदा हुए. आज आंबेडकर को इतना और इस तरह घिसा जा रहा है कि उनकी सारी चमक छूट जाए और आंबेडकर के साथ और आंबेडकर वालों के साथ आसानी यह है कि इन्हें सत्ता की छांव में आसानी से बिठाया जा सकता है. आप देख रहे हैं न कि सारे दलित राजनीतिज्ञ और प्रधानमंत्री इसी खेल में तो लगे हैं. 

नकली गांधी कम हुए हैं क्या! यह तो कहिए कि गांधी की अपनी तपिश ही ऐसी है कि नकली उसमें होम हो जाता है अन्यथा लोगों ने कोई कमी तो छोड़ी नहीं थी! मूर्ति, मंदिर, सरकारी दफ्तर, प्रात:स्मरणीय, सत्याग्रह, उपवास, चरखा, गाय, राजघाट जैसे-जैसे न मालूम कितने हथियार इस्तेमाल किए गये लेकिन यह आदमी सच में कब्र में से आवाज लगा कर इन सारे चक्रव्यूहों से बाहर आता रहा है. 

दिक्कत हिंदुत्व वालों की यह है कि उनके पास स्वतंत्रता, समता और सामाजिक न्याय का इतिहास नहीं है. इसलिए उनके पास कोई नायक नहीं हैं. वे यहां-वहां हाथ मारते तो हैं लेकिन जो है नहीं वह मिलेगा कहां से? इन्हें पता नहीं है कि इतिहास मिलता नहीं है जैसे किन्हीं अवांतर कारणों से कुर्सी मिल जाती है. इतिहास तो बनाना पड़ता है. लंबी कोशिशों के बाद यह जो सत्ता मिली है, इतिहास बनाने में इसका इस्तेमाल किया जा सकता है बशर्ते कि आपके पास दृष्टि हो.

लेकिन आप देखिए कि पिछले चार सालों से एक ही खेल चल रहा है कि दूसरों के नारे छीनो, नायक छीनो, भव्यतर समारोह करो और एक व्यक्ति को स्थापित करो!  यह तो अपना पुराना रेगिस्तान ही बड़ा करने का काम हुआ है न! सत्ता की तिकड़में, चुनावी लड़ाई और जुमलेबाजी- अगर आपके तरकश में ये तीन ही तीर हैं तब तो इतिहास बनने से रहा!

(कुमार प्रशांत के ब्लॉग से साभार)