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ये भी जान लीजिए कि जुकरबर्ग की सुनवाई, आंखों में धूल झोंकने की कार्यवाही थी
अपने लाखों यूजर्स के डेटा के जायज और नाजायज इस्तेमाल को लेकर चौतरफ़ा घिरे फ़ेसबुक के मुखिया मार्क ज़ुकरबर्ग से अमेरिकी कांग्रेस की संयुक्त सीनेट कमेटी की पूछताछ को देखते हुए हैदर अली आतिश का यह शेर याद आ रहा था-
‘बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का /
जो चीरा तो इक क़तरा-ए-ख़ूँ न निकला.’
इस सुनवाई में ‘रूसी ट्रोल’ बन कर फ़ेसबुक के ख़िलाफ़ शांतिपूर्वक विरोध कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता अमांडा वर्नर ने फ़ेसबुक और इक्वीफ़ैक्स जैसी बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों को निजी सूचनाएं सार्वजनिक करने के लिए गंभीर रूप से सज़ा की मांग करते हुए कहा है कि ठोस क़ानूनों के बिना ऐसी सुनवाइयां दिखावा भर हैं और वे (वर्नर) तब तक चर्चा में रहेंगे, जब तक कि सीनेट सदस्य माहौल बनाने की जगह क़ानून बनाना शुरू नहीं कर देते.
यह भी रेखांकित करना ज़रूरी है कि ज़ुकरबर्ग ने सुनवाई से पहले सच कहने की कोई शपथ नहीं ली थी, हालांकि उनसे यह उम्मीद थी कि वह सच बोलेंगे, क्योंकि कांग्रेस के सामने झूठ बोलना वहां एक संघीय अपराध है. सुनवाई की परिपाटी के लिहाज़ से देखें, तो न्यायिक कमेटी गवाहों को शपथ दिलाती है, पर वाणिज्य कमेटी ऐसा नहीं करती. वैसे ग़ैर-सरकारी गवाहों को न्यायपालिका अक्सर शपथ नहीं दिलाती है.
इस सुनवाई पर चर्चा करने से पहले सुनवाई के कुछ अहम बिंदुओं पर नज़र डालना ठीक होगा. जैसा कि फ़ेसबुक एवं ज़ुकरबर्ग कैंब्रिज एनालाइटिका प्रकरण के सामने आने के बाद से अपनी ग़लती मान चुके हैं और डेटा सुरक्षा के लिए समुचित पहल करने का भरोसा दिला चुके हैं. ऐसे में यह अनुमान पहले से ही थी कि ज़ुकरबर्ग सीनेटरों के सामने इन बातों को दोहरायेंगे. ऐसा करना व्यावसायिक नज़रिये से भी ज़रूरी है क्योंकि बीते दिनों में फ़ेसबुक की साख़ को यूज़र्स और स्टॉक बाज़ार में धक्का लगा है.
पर यह दिलचस्प है कि इस सुनवाई के शुरू में ज़ुकरबर्ग ने पहली बार यह माना कि फ़ेसबुक पर आने वाली चीज़ों के लिए उनका प्लेटफ़ॉर्म जवाबदेह है. ‘द वाशिंग्टन पोस्ट’ में ब्रायन फ़ंग ने चिन्हित किया है कि कंटेंट के लिए अपनी जवाबदेही मानना इसलिए ख़ास है कि इस कंपनी ने लगातार ख़ुद को एक ‘न्यूट्रल टेक्नोलॉजी’ के रूप में पेश किया है. पर यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि सुनवाई के दौरान भी ज़ुकरबर्ग लगातार अपने प्लेटफ़ॉर्म को ‘न्यूट्रल’ कहते रहे और यह भी कह दिया कि कंटेंट की जवाबदेही लेना उनके बुनियादी इरादों के उलट है, जो कि तकनीक और संबंधित उत्पाद बनाने का है. फ़ंग ने सही ही इंगित किया है कि ज़ुकरबर्ग ने पहले कभी भी तकनीकी और मीडिया प्लेटफ़ॉर्म के बीच के अंतर पर ऐसे अपनी राय ज़ाहिर नहीं की थी.
आपत्तिजनक कंटेंट की जवाबदेही और स्व-नियमन को लेकर ज़ुकरबर्ग का यह जवाब कि आर्टिफ़ीशियल इंटेलिजेंस के द्वारा हम इन दिक्कतों पर क़ाबू पा सकते हैं, अपने आप में कई सवाल खड़ा करता है. फ़ंग ने नीति विश्लेषकों के हवाले से इस विडंबना की ओर संकेत किया है कि एक तरफ़ तो कांग्रेस सदस्य फ़ेसबुक की आलोचना यह कहते हुए कर रहे हैं कि यह प्लेटफ़ॉर्म बहुत ज़्यादा ताक़तवर हो गया है, पर दूसरी तरफ़ उसे और भी ताक़तवर तौर-तरीक़ों को अपनाने को कह रहे हैं.
ज़ुकरबर्ग की पेशी को बाजार ने कैसे देखा?
इस संदर्भ में यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि आर्टिफ़ीशियल इंटेलिजेंस को लेकर उठीं गंभीर शंकाओं का समाधान होना बाक़ी है. दोनों दिनों की चलताऊ सुनवाई और ज़ुकरबर्ग के आत्मविश्वास पर बाज़ार के रुख को भी देखा जाना चाहिए. पहले दिन स्टॉक मार्केट में अपराह्न तक फ़ेसबुक के मार्केट कैपिटलाइज़ेशन में तीन बिलियन डॉलर से अधिक का उछाल आया. इस उछाल के महत्व को इस बात से समझा जा सकता है कि दो साल में यह कंपनी की सबसे बड़ी बढ़त थी. दूसरे दिन भी हालत कमोबेश यही रही. सीएनबीसी ने तो एक ख़बर की हेडलाइन में लिख भी दिया- ‘वॉल स्ट्रीट पर ज़ुकरबर्ग की जीत’.
ज़ुकरबर्ग भी अपनी ताक़त से अनजान नहीं हैं. जब एक सीनेटर ने उनसे पूछा कि क्या वे टेक इंडस्ट्री पर अधिक विनियमन का समर्थन करेंगे, तो उनका जवाब था कि ‘हां, यदि वह सही नियमन हुआ तो.’
देखने में दो दिनों की कार्यवाही बहुत कड़ी और प्रभावी लग सकती है, पर असली बात वह है, जो एक सुनवाई कर रहे एक सीनेटर ने कहा. उनका कहना था कि वे ऐसी कई कार्यवाहियां देख चुके हैं जहां माफ़ी मांगी गई है. उनकी नज़र में बिना किसी बाहरी एजेंसी की निगरानी में नियमन के अपने सुधार की वादे बेमानी हैं. यह भी दिलचस्प है कि कई रिपब्लिकन सीनेटरों की सबसे बड़ी चिंता यह थी कि उनकी पार्टी के समर्थकों के पोस्ट फ़ेसबुक हटा देता है, वहीं सबसे कड़ी टिप्पणियां डेमोक्रेट सीनेटरों ने की.
भारत के संदर्भ में
ज़ुकरबर्ग का एक बयान भारत के संदर्भ में अहम हो सकता है. रिपब्लिकन और कंजरवेटिव राजनीति को लेकर पक्षपात करने की बात सीनेटर टेड क्रुज़ ने उठायी, तो फ़ेसबुक के प्रमुख ने कहा कि इस चिंता को वह समझ सकते हैं क्योंकि सिलिकॉन वैली का राजनीतिक रूझान लेफ़्ट की ओर बहुत ज़्यादा है.
यहां यह साफ़ कर देना ज़रूरी है कि अमेरिका और यूरोप में ‘लेफ़्ट’ का मतलब हमारे देश की तरह कम्युनिस्ट राजनीति नहीं होता है और रिपब्लिकन और कंजरवेटिव राजनीति से इतर हर प्रगतिशील और लोकतांत्रिक सोच को लेफ़्ट के व्यापक दायरे में रखा-देखा जाता है.
ज़ुकरबर्ग की यह बात हमारे लिए इसलिए महत्वपूर्ण है कि यदि सिलिकॉन वैली के राजनीतिक वातावरण का असर फ़ेसबुक के कामकाज पर है, तो फ़ेसबुक के भारतीय कर्मचारियों की सोच का असर यहां भी हो सकता है. इसका एक मतलब यह है कि भारत में शिकायत करने के बाद भी दक्षिणपंथी सोच के प्रोफ़ाइल और पेज अक्सर बने रहते हैं, जबकि विरोधियों पर तमाम बंदिशें लगा दी जाती हैं. मुझे लगता है कि ज़ुकरबर्ग को भारतीय कर्मचारियो की समझ का भी आकलन करना चाहिए.
पश्चिमी मीडिया का नज़रिया
इस सुनवाई पर अमेरिकी और यूरोपीय मीडिया की कुछ टिप्पणियां बहुत महत्वपूर्ण हैं और वे इंगित करती हैं कि यह पूरी कार्यवाही एक तमाशे से अधिक कुछ नही थी.
‘द गार्डियन’ में छपे एक लेख में अमेरिकी अकादमिक और राजनीतिक कार्यकर्ता ज़ेफायर टीचआउट ने सीनेट की सुनवाई को ‘पूरी तरह पाखंड’ की संज्ञा दी है. वे कहती हैं कि इस सुनवाई का आयोजन ही ध्यान भटकाने और भ्रमित करने के लिए किया गया था तथा सीनेटरों ने भी इसे एक टीवी शो की तरह ही लिया.
उनका कहना है कि इस सुनवाई ने ज़ुकरबर्ग और उनकी कंपनी की छवि को बेहतर ही किया है तथा उन्हें नियंत्रित करने की कोई गंभीर कोशिश नहीं की गयी. टीचआउट का कहना है कि सीनेट की बड़ी सुनवाई होनी चाहिए जहां सीनेटरों को कुछ मिनट मिलने के बजाय असीमित समय मिलता है. वह कहती हैं कि भले ही ऐसी किसी सुनवाई में दो माह लग जाय, पर ऐसा होना ज़रूरी है.
सीएनएन के वरिष्ठ पत्रकार डिलन बायर्स ने अपने लेख का शीर्षक ही बना दिया कि “सीनेट इस ज़ुकरबर्ग टेस्ट में विफल रही है.” उन्होंने अमेरिकी जन-प्रतिनिधियों को 21वीं सदी की तकनीक को लेकर निरक्षर बताते हुए लिखा है कि उन्हें न तो यह पता था कि फ़ेसबुक काम कैसे करता है और न ही उनके पास समस्याओं का कोई समाधान था, यहां तक कि सीनेटरों को इस बात का अहसास भी नहीं था कि आख़िर वे फ़ेसबुक के प्रमुख को इस सुनवाई में बुला क्यों रहे हैं.
बायर्स ने रेखांकित किया है कि सुनवाई के दौरान ऐसे कई मौक़े आये, जब सीनेटर ज़ुकरबर्ग से यह पूछते दिखे कि फ़ेसबुक काम कैसे करता है, इसका बुनियादी स्वरूप क्या है और इसका बिज़नेस मॉडल क्या है.
चालीस साल की उम्र से नीचे के अमेरिकियों में ज़ुकरबर्ग सबसे धनी हैं और देश के समस्त धनिकों में वे चौथे स्थान पर हैं. उनकी संपत्ति का आकलन 60 बिलियन डॉलर से ज़्यादा है. फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप जैसी सेवाएं देनेवाली उनकी कंपनी के विस्तार की अपार संभावनाएं भी मौज़ूद हैं.
‘क्वार्ट्ज़’ पर हीथर टिमॉन्स और हाना कोज़लोवस्का ने एक अहम बात कही है. अमेरिका ने शुरू से ही अपनी टेक कंपनियों के नियमन और नियंत्रण के प्रयास नहीं किये और इसमें उसे असफलता ही हाथ लगी है. अब इस सुनवाई के बाद अमेरिकी कांग्रेस जो भी तय करती है, उसका असर न सिर्फ़ फ़ेसबुक पर होगा, बल्कि गूगल, आमेज़न और अन्य टेक कंपनियां भी अछूती नहीं रह सकेंगी.
पर मुझे संदेह है कि ऐसा कुछ ख़ास होने जा रहा है. क़रीब ढाई दशक पहले इसी कांग्रेस ने माइक्रोसॉफ़्ट की भी तो सुनवाई की थी!
इस संदर्भ में दो बातें और ध्यान देने योग्य हैं. अमेरिकी सार्वजनिक जीवन में छवियों का बहुत महत्व होता है और इसमें टेलीविज़न और तस्वीरों की सबसे बड़ी भूमिका होती है. यही कारण है कि आज अमेरिकी मीडिया में इस बात की भी ख़ूब चर्चा है कि टीशर्ट, जींस और हूडी पहननेवाले ज़ुकरबर्ग टाई-कोट में सुनवाई के लिए हाज़िर हुए. बतकही का आलम यह है कि सुनवाई कमेटी के एक मुखिया की टाई का रंग ज़ुकरबर्ग की टाई के रंग से मेल खा रहा था.
बहरहाल, दूसरी बात अधिक ध्यान देने योग्य है और वह है अमेरिकी राजनीति में कॉरपोरेट पैसे का दख़ल. ‘द वर्ज’ ने एक पड़ताल में विस्तार से बताया है कि सुनवाई कर रहे सीनेटरों को फ़ेसबुक से कितना राजनीतिक चंदा मिला है. हालांकि फ़ेसबुक की बाज़ार पूंजी (क़रीब 400 बिलियन डॉलर) की तुलना में उसने बहुत कम चंदा अब तक दिया है. बीते लगभग 12 सालों में उसका चंदा सात मिलियन डॉलर है. लेकिन यह कोई अचरज़ की बात नहीं है. क़रीब 700 बिलियन डॉलर की कंपनी आमेज़न ने 20 सालों में मात्र चार मिलियन डॉलर ही राजनीतिक चंदे के रूप में दिया है.
आंकड़े बताते हैं कि ज़ुकरबर्ग की कंपनी ने रिपब्लिकन पार्टी से थोड़ा ही अधिक पैसा डेमोक्रेटिक पार्टी को दिया है. हालांकि यह भी सच है कि पैसा पानेवाले कई सीनेटरों और हाउस ऑफ़ रिप्रेज़ेंटेटिव के सदस्यों ने सुनवाई में कड़े सवाल पूछे हैं. पर, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि चंदा देनेवालों के हित को बचाने का हुनर भी अमेरिकी राजनेताओं को ख़ूब आता है. आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर आगामी दिनों में फ़ेसबुक चंदा और चैरिटी में ज़्यादा धन ख़र्च करने लगे.
अमेरिका समेत दुनियाभर में जिस तरह से डिजिटल डेटा को लेकर खेल हो रहा है, उसे देखते हुए यह उम्मीद पालना बेकार है कि टेक कंपनियों पर अमेरिकी कांग्रेस या कोई और सरकार लगाम लगायेगी. अगर कुछ ऐसा होता भी है, तो वह कुछ और स्वार्थों की सिद्धि के लिए होगा, नियंत्रण और सुरक्षा के लिए नहीं. ज़ुकरबर्ग ने ख़ुद माना है कि 87 मिलियन से अधिक फ़ेसबुक यूज़र के डेटा कितनों के पास हो सकता है, उन्हें इसका पता नहीं है.
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