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रामनवमी का भारतबंद
कवि ने गाया था: राम तुम्हारा चरित स्वंय ही काव्य है / कोई भी कवि बन जाए सहज संभाव्य है! हम छुटभैय्यों की राम-राजनीति अह्लादित है: राम तुम्हारा नाम ही करतार है / जब भी रगड़ो आग-ही-आग है! तो आग धधक रही है. और जैसे जहर ही जहर को काटता है कुछ उसी तर्ज पर दलितों ने भी आग जला रखी है. बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश में रामनवमी के जुलूस से आग भड़काई गई और फिर तर्क गढ़ा गया कि हिंदू परंपराओं का अपमान और उन पर प्रतिबंध हमें कुबूल नहीं है. कुछ उसी तरह एससी/एसटी एक्ट की कुछ धाराओं को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जांच के दायरे में लाने को अपना व संविधान का अपमान घोषित कर दलित संगठनों ने भारत बंद की आवाज आग में बदल दी.
टीवी पर यदि भरोसा किया जाए तो कम-से-कम 12 लोगों की जान गई. करोड़ों की संपत्ति का नुकसान हुआ. कभी इस बात की फिक्र हुआ करती थी कि सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान न हो, अब नहीं होती है, क्योंकि तब यह देश हमारा हुआ करता था, अब यह देश किसी का नहीं है.
अब जातियां हैं, संप्रदाय हैं, नेता और पार्टियां हैं. तब ईश्वर-भक्त होने की साधना में लोग सारा जीवन होम कर डालते थे और फिर इस सत्य को उपलब्ध होते थे कि “मो सम कौन कुटिल खलकामी.” अब रातोंरात लोग मोदीभक्त बन भी जाते हैं और अपने इस योनि परिवर्तन का गुणगान भी करते हैं, क्योंकि कुल बात इतनी ही बची है कि अपनी नहीं, किसी दूसरे की जान जाए या माल, अपनी गोटी हो लाल!
अब कोई यह सवाल नहीं पूछता है कि रामनवमी के जुलूस उन रास्तों से गुजरे ही क्यों जिन पर रहने वालों को उससे आपत्ति है? यह सवाल आयोजकों को खुद से पूछना चाहिए, आयोजकों से प्रशासन को पूछना चाहिए, और प्रशासन से सरकार को पूछना चाहिए. और इससे भी भला तो यह हो कि पहले ही सरकार ऐसा आदेश जारी करे कि विवादास्पद रास्तों से कोई भी, कैसा भी जुलूस नहीं ले जाया जा सकता है.
या फिर बात ऐसी भी हो सकती है कि समाज के सयाने लोग साथ बैठ कर एक राय बना लें कि जुलूस कब, कैसे और किधर से जाएगा और जब, जैसे और जिधर से जाएगा वहां की शांति बनाए रखने की जिम्मेवारी नागरिकों की मिली-जुली समिति उठाएगी जिसकी मदद में प्रशासन सन्नद्ध रहेगा. इन दोनों में से कोई व्यवस्था न बने तो वही होगा, जो हुआ! लेकिन लोगों को उन्माद से भरा जाए, प्रशासन को पंगु बना दिया जाए और सरकार को जो सब करना चाहिए, उसे छोड़ कर, सरकार वह सब करे जो उसे नहीं करना चाहिए, तो नतीजा वही होगा जो हुआ. मतलब जो हुआ वही इनकी रामनवमी है!
ऐसा लगता है कि हमारा संसदीय लोकतंत्र अब सबको भारी पड़ रहा है. विधायिका और कार्यपालिका ने तो कब के हाथ खड़े कर दिए हैं. बची थी न्यायपालिका, तो वह अपना कार्टून खुद ही बनाने में लगी है. कोई पूछे कि सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यों वाली संवैधानिक पीठ ने जो फैसला किया था, दो सदस्यों वाली सामान्य पीठ उसमें कैसे तरमीम कर सकती है ? अव्वल तो ऐसा होना नहीं चाहिए, लेकिन ऐसी नौबत आ ही जाए तो पूरी संविधान पीठ का गठन कर, मामले को फिर से जांच लेना क्या आसान रास्ता नहीं था?
इसी काम के लिए तो हम सर्वोच्च न्यायालय जैसा सफेद हाथी पीठ पर लादे चलते हैं! न्यायमूर्ति गोयल और ललित को नहीं लगा कि ऐसे संवेदनशील मामले को छेड़ने से पहले, उन्हें कानूनी ही नहीं, सामाजिक तैयारी भी कर लेनी चाहिए? सर्वोच्च न्यायाधीश दीपक मिश्रा को यह क्यों जरूरी नहीं लगा कि वे जिस पीठ को यह मामला सौंप रहे हैं, उसे यह समझ भी सौंप दें कि हमारा सामाजिक-राजनीतिक स्वास्थ्य कैसा है?
न्याय की अपनी स्वतंत्र हैसियत तो होती है लेकिन उसका सामाजिक संदर्भ भी बहुत अहम होता है बल्कि मैं तो कहूंगा कि न्याय का मतलब ही सामाजिक संदर्भ को समझना होता है. न्याय सुनने की कम, दिखने की चीज ज्यादा होती है! और हम जानते हैं कि हमारे समाज का सत्तालोलुप वर्ग समाज को खंड-खंड कर, अपने वोटबैंक में बदलने और उसे येनकेन-प्रकारेण अपनी मुट्ठी में रखने में लगा है. यह सामूहिक राष्ट्रद्रोही धूर्तता है. न्यायकर्ता की नजर में यह सत्य न हो तो न्याय किसका और किससे?
आजादी के 70 सालों में हमारा इतना राजनीतिक विकास हुआ है कि दलितों के नाम पर राज में हिस्सा बंटाने कुछ दलित आ पहुंचे हैं लेकिन दलित समाज में शिरकत करने वाले कितने हैं? दलितों में खोजें कि सवर्णों में, सामाजिक भागीदारी करने वाले तो आज भी खोजे नहीं मिलते! दलितों का राजनीतिक इस्तेमाल करने वालों की लाइन में आप भी हैं और हम भी हैं लेकिन दलितों की राजनीति खड़ी करने वालों में भी हम कहीं हैं क्या? सब उनका इस्तेमाल करने में लगे हैं. फिर किसी एकाध मामले के आधार पर, जहां दलित वर्ग के किसी ने, किसी सवर्ण को गलत तरीके से फंसाया हो, क्या न्यायपालिका अपने फैसले का आधार बदल देगी? यह कहीं से आते इशारे पर किया गया फैसला तो नहीं है?
अगर ऐसा नहीं है तो सरकार ने पुनर्विचार याचिका दाखिल करने में इतनी देर क्यों लगाई? क्या इसलिए कि वह भांपने में लगी थी कि उसके घटक दल कैसी प्रतिक्रिया देते हैं, और समाज का सवर्ण तबका उसके समर्थन में कितना आगे आ कर आग लगा सकता है?
जब उसने देखा कि जिन घटक दलों की आत्मा उसने सत्ता-सुख से कुचल रखी है, वह कुलबुलाई है, भविष्य की राजनीति के मद्देनजर वह इस फैसले में शिरकत से इंकार कर सकती है; जब उसने देखा कि दलित भीड़ का उन्माद हाथ से बाहर जा रहा है, तब लाचार वह अदालत के दरवाजे याचिका ले कर पहुंची. उसे पता है कि चुनाव वोट का खेल है और वोट मतदाता के हाथ में है और मतदाता को हमने भीड़ में बदल दिया है, और वह भीड़ हमारे हाथ से निकल सकती है, तो उसने अपना रुख बदला.
लेकिन यह भी ध्यान रखने की बात है कि न रामनवमी का उपद्रव सारे हिंदू समाज का प्रतिनिधित्व करता है, न भारत बंद की आगजनी सारे दलित समाज का. सबके अपने-अपने गुंडा तत्व हैं और सबके अपने-अपने पालक हैं. सत्ता की ऐसी गर्हित चालें देश को निचोड़कर, अपने लिए सत्ता की सुरा बनाती है.
सोचना दलित संगठनों को भी है. क्या आरक्षण की बैसाखी अब दलितों की दोहरी पिटाई नहीं कर रही है? कोई है कि जो बीच में ही आरक्षण से मिलने वाला लाभ लपक ले रहा है, ठीक वैसे ही जैसे केंद्रित विकास का सारा लाभ वंचितों तक पहुंचने से पहले ही कोई लपक ले रहा है. आरक्षण की बैसाखी का कलंक और छूंछा आरक्षण दोनों का ठीकरा सामान्य दलित के सर फोड़ा जा रहा है. तो जैसे यह जरूरी हो गया है कि व्यापक समाज के संदर्भ में इस बिचौलिये को रास्ते से हटाने का कोई रास्ता खोजा जाए वैसे ही यह भी जरूरी हो गया है कि आरक्षण को निहित स्वार्थों से मुक्त किया जाए. यह तभी संभव होगा और न्यायसंगत भी होगा जब इसकी मांग लेकर दलित सड़कों पर उतरेंगे. और मैं मानता हूं कि एक छोटे-से वर्ग को छोड़ कर, जिसे हमारी अदालत ने मलाईदार वर्ग कहा है, पूरा भारतीय समाज दलित है. तो रामनवमी का भारत बंद हो- शांतिपूर्ण, अनुशासित और निर्णायक!
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