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क्या सचिन वालिया की हत्या और पुलिस की प्रतिक्रिया पहले से तय थी?
उत्तर प्रदेश पुलिस के बारे में यहां के प्रबुद्ध निवासियों की आम धारणा यह रहती है कि यहां की पुलिस कुछ भी कर सकती है, बशर्ते वह चाह जाए. मामला नीयत का होता है, कार्रवाई का नहीं. ऐसी घटनाएं भी दुर्लभ ही होती हैं जहां पुलिस-प्रशासन की नीयत शुरू से काफी संजीदा दिखे और अधिकारियों के बयानात में घटना से लेकर जांच के निष्कर्ष तक रत्ती भर फ़र्क न दिख सके. भीम आर्मी के सहारनपुर जिला अध्यक्ष कमल वालिया के छोटे भाई सचिन वालिया की बीते 9 मई को हुई मौत एक ऐसी ही दुर्लभ घटना है, जहां मौत के तुरंत बाद शहर के एसपी और एसएसपी के बयान से लेकर 13 मई को प्राथमिक जांच के पूरा होने तक मेरठ ज़ोन के एडीजी के बयान में रत्ती भर फ़र्क नहीं है.
ऐसा कैसे हो सकता है कि घटना के तुरंत बाद पुलिस कहती है कि यह मौत एक ”दुर्घटना” है और सारे साक्ष्य जुटा लेने के बाद इसी बात को पुलिस के आला अधिकारी 13 मई की प्रेस कॉन्फ्रेंस में दुहरा देते हैं? क्या यह घटना पहले से तय थी? या फिर घटना कुछ भी होती, पुलिस की प्रतिक्रिया उस पर तय थी? या फिर यह भी हो सकता है कि पहली प्रतिक्रिया के हिसाब से साक्ष्य जुटाए गए ताकि उसकी पुष्टि की जा सके? अगर घटना, पुलिस की प्रतिक्रिया और जुटाए गए साक्ष्यों को पहले से तय माना जाए, तो फिर इसे ‘दुर्घटना’ कैसे कहेंगे? यह तो कोई साजि़श जान पड़ती है. अगर कुछ भी तय नहीं था, सब कुछ एक हादसे की शक्ल में सामने आया है, तो बिना जांच शुरू हुए पुलिस ने किस आधार पर सचिन वालिया की मौत को प्रथम दृष्टया ‘दुर्घटना’ का नाम दे दिया?
एक घटना के बतौर सचिन वालिया की मौत वह नहीं है, जो एक राजनीति के बतौर दिखायी जा रही है. दोनों में फ़र्क है. असल कहानी पर आने से पहले दो बयानों पर ध्यान दें- पुलिस का शुरू से कहना रहा है कि यह मौत एक ‘दुर्घटना’ है. सचिन के परिवार का शुरू से कहना रहा है कि मौत के लिए पुलिस-प्रशासन जिम्मेदार है (चार नामजद राजपूतों के अलावा) जिसने राजपूतों को महाराणा प्रताप जयन्ती पर जुलूस निकालने की मंजूरी दी. पुलिस की ‘दुर्घटना’ वाली मान्यता से ऐसा लगता है कि शुरू से वह किसी को बचाने की कवायद में है. सचिन के परिजनों की मान्यता पर जाएं तो ऐसा लगता है कि शुरू से ही इस घटना पर दी गई प्रतिक्रिया में उसने भीम आर्मी की राजनीति का भी बखूबी खयाल रखा है. राजनीति में जब दुश्मन की पहचान साफ़ हो, तो घटना की प्रकृति बहुत मायने नहीं रखती. अगर सचिन की मौत नहीं होती, हाथ या पैर में गोली लगती तब भी आरोप राजपूतों पर ही होता. यह आरोप ‘परिस्थितिजन्य’ ज्यादा जान पड़ता है. कैसे? आगे देखेंगे.
सचिन की मौत की आपराधिक ‘घटना’ और भीम आर्मी की ‘राजनीति’ के बीच एक ऐसा धुंधलका फैला हुआ है जिसे चीर कर उस पार देख पाना इतना आसान नहीं है. यही वजह है कि मीडियाविजिल ने सहारनपुर का दौरा मौत के ठीक अगले दिन किया, लेकिन कहानी सामने आने में थोड़ा वक्त लग गया. जब चीज़ें आंखों के सामने तुरंत और बहुत जल्द साफ़ हो जाएं, तो थोड़ा ठहरना ज़रूरी हो जाता है. रविवार को मेरठ ज़ोन के एडीजी प्रशांत कुमार की प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद जो सवाल खड़े हुए हैं, अगर कहानी पहले लिख दी जाती तो शायद उन पर बात करने की मोहलत न मिलती. रविवार को मेरठ से भीम आर्मी के कुछ लड़कों को पुलिस ने दंगा भड़काने के आरोप में गिरफ्तार किया जिसके बाद एडीजी ने प्रेस कॉन्फ्रेस की और सहारनपुर एसएसपी व एसपी के शुरुआती बयानों को दुहराते हुए कहा कि सचिन की मौत एक ”दुर्घटना” थी. पता नहीं किसी ने उनसे पूछा या नहीं, कि अगर दंगा भड़काने के आरोप में भीम आर्मी के लड़कों को गिरफ्तार किया गया तो फिर वे राजपूत युवक अब तक क्यों बाहर हैं जिन्होंने सचिन की मौत का जश्न मनाते हुए एक वीडियो बनाकर वायरल कर दिया था. किसी पत्रकार ने यह सवाल क्यों नहीं पूछा कि सचिन की मां द्वारा नामजद चार राजपूत नेता अब तक कैसे और क्यों बाहर घूम रहे हैं. उपदेश राणा, जिसका धमकी भरा वीडियो वायरल हुआ था, वह क्षेत्रीय टीवी चैनलों पर बैठकर अब तक उपदेश कैसे दे रहा है? और सवाल यह भी है कि जिस शेर सिंह राणा का नाम एफआइआर में शामिल है, क्या ये वही है जो सचिन के घर जाकर उसे परिजनों से सांत्वना मुलाकात करने की बात कह रहा है? ये कौन सा कानून है जहां एफआइआर में नामजद आरोपी मृतक के परिजनों से मिलने का प्रस्ताव देकर अपनी छवि को उदार बना रहा है और पुलिस इस पर चुप है?
सचिन वालिया के घर
मीडियाविजिल सचिन की अंत्येष्टि के दिन देर शाम उसके घर पहुंचा. सहारनपुर में रामनगर रोड पर एक रविदास मंदिर है जिसके संरक्षक भीम आर्मी के जिलाध्यक्ष कमल वालिया हैं. उसी मंदिर से सटी गली दाहिने हाथ पर कमल का मकान है. शाम के कोई आठ बजे होंगे. आंगन में बहुत भीड़ थी. एक चारपाई पर सचिन के बड़े भाई कमल लेटे हुए थे. भीतर वाले आंगन में कोई दो दर्जन औरतें अंधेरे में बैठी थीं. रोने की आवाज़ें आ रही थीं. कुछ लड़के आगंतुकों को चाय पानी देने में जुटे थे. कमल की आवाज़ बैठी हुई थी. वहां मौजूद चेहरों में एकाध शहरी चेहरे भी थे. ये अशोक भारती की टीम के लोग थे. अशोक भारती भी साथ पहुंचे थे. अशोक भारती नैकडोर नाम की संस्था से जुड़े रहे हैं और आजकल एक राजनीतिक पार्टी बनाने की कोशिश में हैं. उनका भीम आर्मी से कोई सीधा जुड़ाव नहीं है लेकिन वे खुद को इस इलाके में दलित-मुस्लिम एकता के राजदूत के तौर पर पेश करते हैं और 2 अप्रैल को हुए दलित आंदोलन का भी श्रेय लेते हैं. काफी देर तक अशोक वहां बोलते रहे. उन्होंने 20 मई को दिल्ली के संसद मार्ग पर ”सचिन की हत्या के विरोध में” एक बड़े जुटान की योजना बनाई है. उनके पास इस संबंध में देश भर से फोन आ रहे हैं. वे सबको पूरी ताकत से इकट्ठा होने को कह रहे हैं. वे इस बारे में कमल और उनके साथियों को भी बता रहे थे. इसी बीच वहां कोई दर्जन भर मुस्लिम युवक कुछ मौलानाओं के साथ आते हैं. जमाते-उलेमा-ए-हिंद के लोग हैं. भारती से इनका पूर्व परिचय है. वे लोग बमुश्किल दस मिनट बैठते हैं. जाने से पहले जमाते-उलेमा-ए-हिंद के सचिव मौलाना हकीमुद्दीन क़ासमी धीमी आवाज़ में भारती से उनके कान में पूछते हैं कि क्या पैसे अभी दे दिए जाएं? भारती सकारात्मक जवाब देते हैं. फिर उनके बीच सबसे बुजुर्गवार मौलाना को साथ लेकर वे भीतर के आंगन में सचिन की मां के पास जाते हैं और नोटों की एक गड्डी थमाते हुए कुशलक्षेम की कामना करते हैं. इसके बाद वे लोग निकल जाते हैं.
उनके साथ कुछ लोग पड़ोस के गांव नयागांव से आए थे. वे भारती को वहां चलने को कहते हैं. भीड़ इतनी थी कि उस वक्त कमल से बात करना मुमकिन नहीं था. लिहाजा हम भी साथ हो लेते हैं. नयागांव में एक घर के दालान में कुछ लोगों के साथ हमारी बात होती है. यह जगह मुख्य रामनगर मार्ग से बमुश्किल आधा किलोमीटर दूर रही होगी. वहां मौजूद एक मास्टर हैं जो सचिन को स्कूल में पढ़ा चुके हैं. वे बताते हैं कि जो लोग महाराणा प्रताप जयंती के जुलूस में आए थे उनके पास तलवारें या बंदूकें होने की बात तो सामने नहीं आई है. वहां मौजूद एक युवक का कहना था कि सब लोग चूंकि डरे हुए थे इसलिए अपने घरों में कैद थे. कोई चश्मदीद मिलना मुश्किल है. गांव के प्रधान वहां मौजूद थे. उनका कहना था कि अगर सड़क पर मेडिकल स्टोर और कुछ दुकानों पर लगे सीसीटीवी कैमरों के फुटेज की जांच की जाए तो सच्चाई सामने आ सकती है. घटना से इतर कुछ और सियासी बातें भी हुईं. फिर हम कमल के घर लौट आए. कोई साढ़े नौ बज रहे होंगे. इस वक्त भीड़ छंट चुकी थी.
कमल से लंबी बात हुई. कमल समेत वहां मौजूद युवाओं का कहना था कि जुलूस में शामिल लोगों के पास तलवारें थीं. हमने पूछा कि क्या किसी ने खुद देखा है, तो जवाब में इनकार मिला. कमल बताते हैं कि उन्होने रविदास मंदिर से एक दिन पहले ही गांव में मुनादी कर दी थी कि जुलूस के वक्त सब अपने घरों में रहें. कोई बाहर न जाए. फिर सचिन बाहर कैसे गया? वे बताते हैं कि स्थानीय गुप्तचर इकाई (एलआइयू) के दो लोग सुबह घर आए थे, जिन्हें बाहर तक छोड़ने सचिन गया. उसके बाद ही उसे गोली लगी. गोली कहां लगी? घटनास्थल के बारे में किसी को पुख्ता जानकारी नहीं थी. सबका कहना था कि राजपूतों ने गोली मारी. एफआइआर कमल की मां ने करवायी. कमल ने इस बारे में पूछने पर कहा कि लड़कों ने एफआइआर करवायी थी. कौन लड़के थे? उनका कहना था कि उन्हें इस बारे में कुछ नहीं पता क्योंकि वे ससुराल गए हुए थे. मौत की ख़बर लगते ही वे वापस आए. एफआइआर में चार लोगों को नामजद किस आधार पर करवाया गया? इसका जवाब हमें नहीं मिला. क्या एफआइआर में नामजद शेर सिंह राणा वही शख्स है जो फूलन देवी का हत्यारा है? इस पर कमल और उनके साथियों के बीच कुछ गुफ्तगू हुई, फिर कमल ने साफ़ किया कि वह नहीं है. ये वाला शेर सिंह राणा कोई लोकल लड़का है. पुलिस को दी गई तहरीर में शेर सिंह राणा से पहले साफ़ लिखा है “राजपूत महासभा अध्यक्ष” यानी फूलन देवी का हत्यारा शेर सिंह राणा. ये लोकल शेर सिंह राणा कहां से आ गया फिर? यह एक अनसुलझी गुत्थी है.
कमल ने हमें दो फोन रिकॉर्डिंग सुनाई. एक फोन एसएसपी सहारनपुर से बातचीत का था. एसएसपी ने कमल को घटना के दिन 9 मई को सुबह सवा आठ बजे फोन किया था. हालचाल लिया और पूछा- “कमल, चुनाव लड़ रहे हो क्या?” उसके इनकार करने पर एसएसपी ने पूछा, “तो क्या चुनाव लड़वा रहे हो?” यह बातचीत सचिन की मौत की ख़बर से कोई तीन घंटे पहले की है. एसएसपी पूछता है क्या घर पर हो? कमल कहता है, “हां”. मीडियाविजिल को उसने बताया था कि वह उस वक्त ससुराल में था. नेशनल दस्तक को दिए इंटरव्यू में भी उसने कहा है कि वह ससुराल से कोई पौने ग्यारह बजे लौटा. सएसपी से उसने घर पर होने की बात क्यों कही? हम नहीं जानते. एसएसपी ने तीसरी बार पूछा कि ये चुनाव वाली बात क्या है? इसका जवाब देने के बजाय कमल ने इस बात पर असंतोष प्रकट किया कि उन्होंने महाराणा प्रातप जयन्ती के जुलूस की अनुमति क्यों दे दी है. एसएसपी कहता है कि यह तो तीन-चार साल से होता आ रहा है. कमल अपनी आशंका जताता है कि उसमें लोग तलवार लेकर आते हैं, तो एसएसपी का एक गूढ़ जवाब आता है कि किसी को छोड़ने या रगड़ने का एक समय होता है. अंत में एसएसपी उसे हिदायत देता है कि ध्यान रखे कहीं कोई गड़बड़ न होने पाए. बात बंद हो जाती है. तीन घंटे बाद गड़बड़ भी हो जाती है.
कमल ने हमें एसपी और सीओ को वॉट्सएेप पर हुई वार्ता दिखायी. इसमें उपदेश राणा के वीडियो को भेजते हुए उसने कार्रवाई की मांग की थी. उधर से ओके का जवाब भी आया था. इससे समझ आता है कि पुलिस को पहले से आगाह कर दिया गया था कि कुछ गड़बड़ होने वाला है. इसमें कोई दो राय नहीं कि जुलूस के दौरान पुलिस व्यवस्था काफी मुस्तैद थी. कमल के एक साथी बताते हैं कि पुलिस फोर्स इतनी तगड़ी थी कि रविदास मंदिर की गली तक लगी हुई थी. इतनी तगड़ी फोर्स के बावजूद गोली कैसे चली? यह भी एक सवाल है. नेशनल दस्तक की सचिन के परिवार से हुई बातचीत को देखें तो कुछ बातें साफ़ होती हैं. मसलन, इसमें एक बात सामने आती है कि परिवार को घंटे भर बाद सचिन की मौत की ख़बर लगी. यह ख़बर खुद कमल ने दी. कमल बताते हैं कि उन्हें जैसे ही ख़बर मालूम हुई उन्होंने पुलिस अधिकारी को फोन कर के खुद इसकी सूचना दी और अपना रोष प्रकट किया कि आगाह करने के बावजूद उन्होंने ऐसा कैसे होने दिया. कमल कहते हैं कि वे हर फोन रिकॉर्ड रखते हैं लेकिन उनके मुताबिक इस फोन की रिकॉर्डिंग उनके पास नहीं थी. कमल ने एक और फोन रिकॉर्डिंग सुनाई जो घटना से एक रात पहले की है. यह बातचीत किसी पुलिस अधिकारी के साथ है, जिसमें अधिकारी उपदेश राणा के वीडियो के बारे में कह रहा है कि यह आदमी सहारनपुर का नहीं है, बाहर के शहर का है. वह कहता है कि सुबह होते ही इसे पकड़ लेगा.
दिलचस्प बात है कि उस वीडियो में उपदेश राणा कह रहा है कि जयन्ती के दिन वह नागपुर में होगा. एफआइआर में नामजद शेर सिंह राणा भी उस दिन जमशेदपुर में था, सहारनपुर में नहीं. राजपूतों ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर के कहा है कि यह उन्हें बदनाम करने की साजिश है. उन्होंने माना है कि चार नामजद में से केवल दो लोग ही जुलूस में शारीरिक रूप से उपस्थित थे.
कमल की बातचीत से एक बात साफ़ होती है कि उसने पुलिस को लगातार उपदेश राणा के वीडियो से आगाह किया था. इसके अलावा भीम आर्मी के लेटरहेड पर उसने एक ज्ञापन भी प्रशासन को सौंपा था कि जुलूस की अनुमति नहीं दी जाए. स्थानीय अखबारों में छपी खबरों की मानें तो अनुमति डेढ़-दो सौ लोगों की दी गई थी लेकिन आए थे कोई हज़ार लोग. इन हजार लोगों को देखने का दावा करने वाला एक भी शख्स हमें नहीं मिला. नयागांव में प्रधान जिस सीसीटीवी की बात कह रहे थे, उसके बारे में कमल का कहना था कि वहां पर कोई सीसीटीवी नहीं है. पुलिस ने भी किसी सीसीटीवी की बात अब तक नहीं कही है. अलबत्ता एक एलआइयू द्वारा बनाए गए वायरल हुए वीडियो और एक मुखबिर के वायरल फोन कॉल का जि़क्र काफी हुआ है जिसमें सड़क से खून के धब्बे धोते हुए लोगों को दिखाया गया है. मुखबिर दावा कर रहा है कि ताज़ा घटनाक्रम में पुलिस ने सड़क किनारे एक बंद कमरे पर छापा मारकर खून से सने गद्दे इत्यादि बरामद किए हैं और इसी मकान को वह दुर्घटनास्थल मान रही है. अखबारों की मानें तो इस काम में पुलिस की मदद एक बच्ची ने की थी.
बेमेल तथ्यों से उपजे सवाल
कहानी में आगे बढ़ने से पहले कुछ सवाल पूछ लेना ज़रूरी है ताकि बाद में उनके जवाब एक-एक कर के खोजे जा सकें.
1) सचिन की मौत कहां पर हुई?
2) जिस तमंचे से सचिन को गोली लगी वह यदि बरामद नहीं हुआ तो कहां है?
3) गोली लगने के वक्त सचिन के साथ कौन-कौन था?
4) अगर शेर सिंह राणा और उपदेश राणा जुलूस में मौजूद नहीं थे तो उनके खिलाफ़ एफआइआर क्यों करवायी गई?
5) चूंकि कमल के मुताबिक एफआइआर “लड़कों” ने करवायी, तो एफआइआर करवाने में नाम डालने का फैसला किसने लिया?
6) घटना के वक्त कमल ससुराल में थे या घर में?
7) एसएसपी घटना की सुबह कमल को किए फोन कॉल में चुनाव की बात क्यों कर रहे थे और उन्हें कुछ न करने की हिदायत क्यों दे रहे थे?
8) पुलिस ने शुरू में बिना जांच के घटना को “दुर्घटना” का नाम कैसे दे दिया? क्या केवल मुखबिर के फोन और वायरल वीडियो के आधार पर?
9) पुलिस को उस कमरे का पता कैसे चला जहां से सबूत बरामद किए गए हैं?
10) पुलिस ने अब तक दंगा भड़काने के आरोप में उपदेश राणा और वायरल वीडियो में सचिन की मौत का जश्न मनाते युवकों को क्यों नहीं उठाया है और अकेले भीम आर्मी के ल़ड़कों को क्यों गिरफ्तार किया है?
11) अगर मामला “दुर्घटना” का है तो सचिन तमंचे से क्या कर रहा था? तमंचा कहां से आया? (कमल के मुताबिक उनके पास कोई तमंचा नहीं है)
12) अगर गांव के सभी लोग घरों में थे और जुलूस का कोई भी चश्मदीद नहीं है तो सचिन दूसरे के घर में क्या कर रहा था?
अर्धसत्य का संधान
मीडियाविजिल ने पिछले दो दिनों के दौरान सहारनपुर से लेकर दिल्ली तक दर्जनों लोगों से बात की. इनमें भीम आर्मी के साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़े लोग, दलित राजनीति से जुड़े कार्यकर्ता जो भीम आर्मी में किन्हीं कारणों से दखल रखते हैं, पत्रकार, दलित काडर, कुछ बुद्धिजीवी जो भीम आर्मी के मसले पर सक्रिय रहे हैं, दिल्ली के एनजीओ और जमात के लोग शामिल हैं. इसके अलावा बीते पांच दिनों के दौरान मीडियाविजिल ने स्थानीय अखबारों पर निगाह रखी, दलित कार्यकर्ताओं के सोशल मीडिया पोस्ट देखे और दलित नेताओं के बयानों व आवाजाही पर गौर किया. जो बात निकलकर सामने आई है, उसमें कुछ पुष्ट, कुछ अपुष्ट तथ्य हैं. कुछ अटकलें हैं. कुछ दरारें हैं. उनके पीछे की छिटपुट साजिशें हैं और महत्वाकांक्षाओं का खेल है जिसका एक सिरा सहारनपुर में है तो दूसरा सिरा गुजरात तक जाता है. गुजरात का सीधा सा आशय विधायक जिग्नेश मेवाणी से है जो खुद में एक लोकप्रिय दलित नेता हैं और जो सचिन की मौत के अगले दिन उसके घर पर होने के बजाय बंगलुरु में डॉ. कफ़ील के साथ योगी आदित्यनाथ के खिलाफ़ प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे थे. कर्नाटक का चुनाव न होता तो शायद भीम आर्मी के सपोर्ट बेस में मौजूद दरारों को देखना भी मुश्किल हो जाता.
इस राजनीति पर हम आगे आएंगे. पहले पुष्ट और अपुष्ट तथ्य. नेशनल दस्तक को दिए इंटरव्यू में कमल वालिया ने गांव से एक गिरफ्तारी की बात कही थी. मीडियाविजिल को उन्होंने इस बारे में नहीं बताया था. शायद उस वक्त तक पता न रहा हो. यह गिरफ्तारी किसकी थी? सूत्रों की मानें तो पुलिस ने 9 मई को घटना के तुरंत बाद एक गिरफ्तारी की थी जिसे सार्वजनिक नहीं किया गया था. बहुत मुमकिन है कि यह गिरफ्तारी उसी मकान से हुई होगी जहां से पुलिस ने साक्ष्य बरामद किए हैं. शायद यही वजह थी कि अगले ही पल पुलिस ने “दुर्घटना” का दावा भी कर दिया. दूसरी बात, पुलिस ने पीडि़त कमल वालिया के घर की भी छानबीन की और उनसे चार घंटे पूछताछ की. क्या यह महज बयानों के बेमेल होने का परिणाम था या पुलिस के पास वाकई कुछ ठोस तथ्य थे? जिस शख्स ने पुलिस को दो दिन तक हादसे की आशंका से आगाह किया, उसी से पूछताछ क्यों की गई? यह बात भीम आर्मी के लोगों के गले नहीं उतर रही. इसी का गुस्सा सचिन वालिया के तीजे में दिखा जिसने दलित आक्रोश के चलते राजनीतिक शक्ल ले ली.
भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर आज़ाद जेल में रह कर सांगठनिक विज्ञप्तियां जारी करते रहे हैं. काडरों को संदेश भिजवाते रहे हैं. सूत्र बताते हैं कि उन्होंने साफ़ तौर से कहा था कि राजपूतों के जुलूस को रोका नहीं जाना चाहिए क्योंकि उनका काम जाति का अंत करना है न कि किसी जाति के जलसे का विरोध. ज्यादा से ज्यादा यह हो सकता है कि एक ज्ञापन देकर अनुमति रद्द करने की बात प्रशासन से कह दी जाए. ज्ञापन कमल वालिया के नाम से जारी हुआ लेकिन सोशल मीडिया पर लगातार राजपूतों के जुलूस को नाकाम बनाने की बात अनौपचारिक रूप से चल रही थीं. ऐसा कैसे हुआ? क्या चंद्रशेखर की पकड़ संगठन पर कमजोर पड़ रही है या उनके निर्देशों की अवहेलना की जा रही है?
भीम आर्मी का नीतिगत फैसला है कि किसी नुकसान की स्थिति में सरकार से भरपाई या मुआवजे की मांग नहीं की जाएगी. ऐसा हमें कई काडरों ने बताया. सचिन की मां की ओर से पुलिस को दी गई तहरीर में 50 लाख मुआवजे और एक सरकारी नौकरी की मांग की गई है. यह भीम आर्मी की नीति के खिलाफ़ है. जवान बेटे के गुज़र जाने पर ऐसी भावनाओं का निजी रूप से सम्मान किया जाना चाहिए लेकिन संज्ञान में आते ही इस मांग को क्या हटा नहीं लिया जाना चाहिए था? जब सचिन की मौत की जिम्मेदारी राजपूतों के जुलूस को मंजूरी देने वाले प्रशासन के मत्थे मढ़ी जा रही हो, और खासकर तब जबकि संगठन के नेता पर ज़मानत के बाद रासुका लगाया गया हो, तब कौन सी राजनीति में यह मांग फिट बैठती है. वह भी उस नेता के परिवार से जो नेतृत्व की दूसरी कतार में खड़ा है. इसी से जुडी बात यह भी है कि अगर पुलिस सचिन की मौत को एक ”दुर्घटना” साबित कर देती है (जिसके वह बहुत करीब है) तो क्या इसकी भरपाई वह सरकारी नौकरी और सांत्वना राशि से करेगी? बड़ी बात यह कि क्या भीम आर्मी के नेतृत्व की दूसरी कतार का सबसे बड़ा नेता इसे स्वीकार करेगा? यह सवाल सांगठनिक और राजनीतिक है जिस पर बाहर किसी का अख्तियार नहीं है, लेकिन एक आपराधिक घटना के बतौर सचिन की मौत की पृष्ठभूमि को समझने के लिहाज से ज़रूरी है.
मीडियाविजिल के सूत्र बताते हैं कि गोली लगने के वक्त सचिन के साथ तीन और लड़के मौजूद थे, जिनमें से एक को पुलिस ने तभी उठा लिया था और बाकी दो गायब हैं. चूंकि गोली की आवाज़ किसी ने नहीं सुनी (जैसा कि कमल और उनके साथियों ने हमें बताया) तो जाहिर है इन्हीं तीनों में से किसी एक ने गोली चलने की ख़बर बाहर किसी को फोन कर के बताई होगी. क्योंकि बाहर पुलिस फोर्स तैनात थी और खुद जाकर इस खबर को सार्वजनिक करना आत्मघाती हो सकता था. पुलिस की ”दुर्घटना” वाली थ्योरी को सही मानें तो सवाल उठता है कि आखिर ये कब और कैसे हुआ कि गोली चलने की ”घटना” और उससे हुई ”मौत” को राजपूतों की ओर से गोली ”चलाकर” ”हत्या” कर देने के नैरेटिव में बदल दिया गया? भीम आर्मी के काडरों की संख्या बहुत बड़ी है. ऐसे किसी हादसे पर सबको एक ही बात एक ही वक्त में कम्युनिकेट कर देना आसान नहीं है. या तो वास्तव में ‘हत्या’ हुई होगी क्योंकि पूरी भीम आर्मी इस पर सहमत है, या फिर यह परिस्थितिजन्य ‘हत्या” है. राजपूतों का जुलूस इसके पीछे का लॉजिक गढ़ता है.
इस गुत्थी को दो चीजों ने उलझा दिया है. पहला, डॉक्टर ने बयान दिया है कि गोली कुछ दूर से ”मारी” गई है. दूसरे, न्यूज़18 ने खबर की है कुल दो गोलियां लगी थीं जिसमें एक बरामद हुई और दूसरी आरपार हो गई. अगर यह ”दुर्घटना” है, तो दो गोली एक बार घोड़ा दबाकर कैसे निकल सकती है? दो में से एक तो सायास ही रही होगी? सुनियोजित? अगर एक गोली लगी है और कुछ दूरी से, जैसा कि नेशनल दस्तक ने एक या दो मीटर का दावा डॉक्टर के हवाले से किया है, तो यह गोली ”मारी” गई है. सवाल उठता है कि पुलिस किसे और क्यों बचा रही है?
जेल में नेता, संगठन में सेंध
भीम आर्मी फिलहाल अपने सबसे कमज़ोर दौर से गुज़र रही है. इसका पता इस बात से लगता है कि पिछले साल 21 मई को संसद पर जब चंद्रशेखर की अगुवाई में जुटान हुआ था, तो पूरी दिल्ली की सड़क नीली हो गई थी. इसके बरक्स पिछले महीने विनय रतन सिंह की अगुवाई में सामूहिक गिरफ्तारी के लिए हुए जुटान को देखिए, 200 से ज्यादा लोग नहीं दिखे. हालत यह थी कि खुद कमल वालिया सहारनपुर से अकेले पहुंचे थे. बाद में विनय को गिरफ्तार कर लिया गया. वे जेल में हैं. इस बीच चंद्रशेखर की रिहाई के लिए कई अभियान चले. हिमांशु कुमार पांच लोगों को लेकर पदयात्रा पर निकल पड़े. चंद्रशेखर को छुड़ाने के लिए उनके साथी दिल्ली से इलाहाबाद के चक्कर लगाते रहे. दो बार जिग्नेश मेवाणी जेल में चंद्रशेखर से मिलने गए. उन्हें मिलने नहीं दिया गया. उधर चंद्रशेखर जेल में ही अनशन पर बैठ गए और कमज़ोर होते गए. उनके पास कई प्रस्ताव लेकर कई लोग पहुंचे लेकिन यह चंद्रशेखर का जीवट था कि उन्होंने किसी के आगे घुटने नहीं टेके. जब सबसे बडे़ नेता ने समझौतों से इनकार कर दिया, तब छोटे नेताओं को फांसने का खेल शुरू हुआ. सब जानते हैं कि भीम आर्मी की ताकत की उपेक्षा कर के दलित राजनीति संभव नहीं है. इसी समझदारी को लेकर कई किस्म के दलित हितैषी पैराशूट से सहारनपुर में एक-एक कर के गिरे. अशोक भारती इन्हीं में एक हैं. थोड़ा कांग्रेस ने भी ज़ोर लगाया. थोड़ा बसपा ने भी. सबकी मंशा भीम आर्मी के काडर में सेंध लगाने की थी. वास्तव में, पुलिस प्रशासन भी बिलकुल इसी काम में लगा पड़ा था कि कैसे संगठन के भीतर दरार पैदा कर दी जाए. इसके पीछे पुलिस प्रशासन का केवल एक स्वार्थ था कि जब तक भीम आर्मी का खतरा दिखाया जाता रहेगा, तब तक चंद्रशेखर के ऊपर रासुका बढ़ता रहेगा और चीजें नियंत्रण में रहेंगी.
इसके लिए ज़रूरी था कि बाहर एक समानांतर नेता पहले खड़ा किया जाए. विनय के जेल जाने के बाद कमल उसके स्वाभाविक हक़दार थे. 9 मई को महाराणा प्रताप जयन्ती से ज्यादा मुफ़ीद मौका कुछ नहीं हो सकता था. शब्बीरपुर की बरसी भी थी. हो सकता है कि कमल ने इसीलिए शायद पुलिस-प्रशासन को बार-बार इतना आगाह किया रहा हो और अनुमति रद्द करने की दरख्वास्त डाली हो. कमल कहते हैं, “अनुमति रद्द करने की अर्जी मैंने ही दी थी इसीलिए वे मुझे मारना चाहते थे. मेरे भाई की शक्ल और मेरी शक्ल बहुत मिलती थी. गफ़लत में उन्होंने सचिन को मार दिया. अगर अनुमति नहीं देते तो ये सब नहीं होता.” उनकी बात में सच्चाई तो दिखती है लेकिन पुलिस की अब तक की थ्योरी इससे इनकार करती है. यहीं सारा पेंच है.
चंद्रशेखर की रिहाई क्यों ज़रूरी है
पुलिस ने चंद्रशेखर और विनय रतन की पेरोल की अर्जी खारिज कर दी. इन्हें सचिन के तीजे में आने की मंजूरी नहीं दी. कमल ने तीजे में ज़ोरदार भाषण दिया और आंदोलन का आह्वान किया. पुलिस ने सारे भाषणों की वीडियोग्राफी करवायी. मौलाना मदनी से लेकर इमरान मसूद तक कमल से मिलने पहुंचे. इस दुख की घड़ी में उनके पास कौन नहीं पहुंचा? जिग्नेश मेवाणी कर्नाटक से लौटे बेशक, लेकिन सीधे अलवर चले गए न कि सहारनपुर. उन्होंने ट्वीट में 9 मई को सचिन की “नृशंस हत्या” की निंदा करते हुए कर्नाटक के दलितों से आह्वान किया था कि वे इसका “जमकर जवाब दें”. “हत्या” का जवाब “चुनाव” से!
कमल बताते हैं कि अकेले सपा और भाजपा से कोई नहीं आया वरना कांग्रेस और बसपा के कुछ नेता उनके यहां आए थे. बसपा सुप्रीमो मायावती से लेकर अरविंद केजरीवाल तक की ज़ुबान इस घटना पर नहीं खुली है. पूरी भीम आर्मी को पुलिस-प्रशासन और प्रच्छन्न हितों वाले कुछ चुनावी शिकारियों के हाथों छोड़ दिया गया है. बहुत संभव है कि कल को यूपी पुलिस जांच का नतीजा देकर बताए कि यह मौत वास्तव में “दुर्घटना” थी और सचिन की फाइल बंद कर दे. इस तरह वे दरअसल एक प्रतिक्रिया की ज़मीन तैयार करेगी जिसकी झलक हमें 13 मई को हुई गिरफ्तारियों में मिल चुकी है. यह प्रतिक्रिया ज़ाहिर तौर पर हिंसक होगी. हिंसक प्रतिक्रिया पुलिस को भाती है. उससे चंद्रशेखर पर रासुका लगाए रखने की दलील पुष्ट होती है. अगर प्रतिक्रिया नहीं हुई, तो कमल वालिया के नेता होने पर काडरों के मन में सवाल खड़ा हो जाएगा. इसकी संभावना कम है.
इस तरह हम पाते हैं कि कैसे एक “दुर्घटना” ने भीम आर्मी को आपद्धर्म में फंसा दिया है. यह आपद्धर्म अपने वजूद को बचाए रखने का है. विडंबना यह है कि वजूद को बचाने की हर कार्रवाई इसके वजूद को धीरे-धीरे खत्म ही करेगी. इस आपद्धर्म से बचने का एक ही रास्ता है एकल नेतृत्व और विचारधारात्मक संघर्ष. यह चंद्रशेखर “रावण” की मौजूदगी के बगैर मुमकिन नहीं. वह बाहर कब और कैसे आएगा? यह सोचना उन तमाम लोगों का काम है जिन्होंने साल भर पहले भीम आर्मी को हो-हो कर के झाड़ पर चढ़ाया था और जो आज भी अपने हित में उसका चुनावी इस्तेमाल करने की फि़राक में हैं. क्या इनसे कुछ उम्मीद बनती है?
साभार: मीडियाविजिल
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