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बेमौके रेडकार्पेट पर इठलाती अभिनेत्रियां मौके पर गैरहाज़िर
इस महीने की 8 मई से आरम्भ कान फिल्म फेस्टिवल शनिवार को समाप्त हो गया. दुनिया भर से एकत्रित हुए फिल्मकर्मी, फिल्म व्यवसाय से जुड़े लोग और फिल्म पत्रकार अपने देशों को लौट गए होंगे. जल्दी ही इस फेस्टिवल में दिखाई गयी फ़िल्में भारत समेत दुनिया भर के फिल्मप्रेमी देशों के विभिन्न शहरों के फेस्टिवल के माध्यम से दर्शकों के बीच पहुंचेंगी. कान फिल्म फेस्टिवल दुनिया का सर्वाधिक प्रतिष्ठित फिल्म फेस्टिवल है, जहां पूरे विश्व के फ़िल्मकार अपनी फिल्मों के साथ पहुंचना चाहते हैं.
इस साल भारत से नंदिता दास की फिल्म ‘मंटो’, ‘अन सर्टेन रिगार्ड’ में चुनी गयी थी. इसके अलावा कुछ और फिल्में विभिन्न श्रेणियों में वहां पहुंची थीं. इस फेस्टिवल का भारत में भी महत्व बढ़ गया है. फ़िल्मकार अपनी फिल्मों के फर्स्ट लुक जारी करने के लिए वहां पहुंचने लगे हैं.
कान फिल्म फेस्टिवल का भारत में बहुत ही घालमेल कवरेज होता है. अगर फेस्टिवल की नब्ज पर हाथ न हो तो कवरेज से पता ही नहीं चलता कि कौन सी फिल्में आधिकारिक तौर पर चुनी गयी थीं और कौन सी फिल्में सिर्फ तमाशेबाजी के लिए पहुंची थीं? मीडिया कवरेज पर गौर करें तो फिल्मों से इतर गतिविधियां ही सुर्खियों में ज्यादा रहती हैं. हर दिन अख़बार और टीवी पर रेड कार्पेट पर इठलाती अभिनेत्रियों की तस्वीरें छपती हैं. यूं लगता है कि इंटरनेशनल मीडिया भारतीय अभिनेत्रियों की तस्वीरों के लिए बेताब रहता है.
इस साल कंगना रनोत पहली बार कान के रेड कार्पेट पर चलीं. उनकी सोशल मीडिया टीम ने सारे प्लेटफॉर्म को तस्वीरों से पाट रखा था. ऐश्वर्या राय बच्चन सालों से जा रही हैं. इस बार वह अपनी बेटी आराध्या के साथ दिखीं. इस पर बहस हो सकती है कि छोटी, नासमझ बच्ची को ऐसे इवेंट में ले जाना कितना उचित कदम है? दीपिका पादुकोण कभी अपनी बालकनी तो कभी रेड कार्पेट पर दिखती रहीं. हुमा कुरैशी और सोनम कपूर भी रेड कार्पेट पर दिखीं.
बता दें कि ये सभी अभिनेत्रियां किसी न किसी इंटरनेशनल ब्रांड के प्रतिनिधि के तौर पर वहां थीं और वहां उनका काम अपने ब्रांड को एंडोर्स करना था, किसी सिनेमा को प्रोत्साहित करना नहीं. और हमारा मीडिया यहां लहालोट हो रहा था कि भारतीय अभिनेत्रियां जलवे बिखेर रही हैं. ख़बरों में सिर्फ उनके परिधान और लुक की चर्चा हो रही थी. उनकी फिल्मों का कोई उल्लेख नहीं था. यों कहें कि इस प्रवास में फिल्मों और फिल्म सम्बन्धी बातों से उनका कोई लेना-देना ही नहीं था.
कान फिल्म फेस्टिवल में 14 मई को ऐतिहासिक घटना घटी. कान फिल्म फेस्टिवल की जूरी की चेयरपर्सन केट ब्लैंचेट के नेतृत्व में 82 महिला फिल्मकर्मियों ने रेड कारपेट की सीढ़ियों पर मार्च किया. उन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज की और एलान किया कि उन्हें जल्दी से जल्दी बराबरी का प्रतिनिधित्व मिले.
केट ब्लैंचेट ने पैले थिएटर की सीढ़ियों से दुनिया को सम्बोधित किया. उन्होंने स्पष्ट शब्दों में अपने सम्बोधन में कहा, “आज इन सीढ़ियों पर खड़ी 82 महिलाएं उन महिला फिल्मकारों का प्रतिनिधत्व कर रही हैं, जो 1946 में आरम्भ हुए कान फिल्म फेस्टिवल के पहले साल से अभी तक इन सीढ़ियों पर चढ़ सकीं, जबकि इसी अवधि में 1688 पुरुष फ़िल्मकार इन्हीं सीढ़ियों पर चढ़े.”
उन्होंने अपने सम्बोधन में आगे बताया, “पिछले 71 सालों में केवल 12 बार कोई महिला जूरी की चेयरपर्सन चुनी गयी. अभी तक 71 पुरुषों और केवल दो महिला निर्देशकों को श्रेष्ठ निर्देशक का अवार्ड मिला है. ये तथ्य स्पष्ट और अमिट हैं… महिलाएं दुनिया में अल्पसंख्यक नहीं हैं, लेकिन इंडस्ट्री की वर्तमान स्थिति कुछ और बयान करती है. महिला के तौर पर हम सभी की विशेष चुनौतियां हैं, लेकिन आज इन सीढ़ियों पर हम प्रगति की दृढ़ता और प्रतिबद्धता के प्रतीक के रूप में एक साथ खड़ी हैं. हम लेखक, निर्माता, निर्देशक, अभिनेत्री, सिनेमेटोग्राफर, टैलेंट एजेंट, डिस्ट्रीब्यूटर, सेल्स एजेंट सबकुछ हैं और हम सभी सिनेमाई कला से सम्बद्ध हैं. हम सभी उद्योगों में कार्यरत महिलाओं के साथ हैं.”
उन्होंने आगे कहा, “हमारी इंडस्ट्री की सीढ़ियां सभी के लिए खुली हों. आओ चढ़ें.’ केट ब्लैंचेट के इस ऐतिहासिक उद्घोष के समय रेड कार्पेट के जरिए भारतीय मीडिया में महफिल लूटने वाली ज्यादातर अभिनेत्रियां नदारद थीं. किसी तरह नंदिता दास और रसिका दुग्गल ने भारतीय सिनेमा की लाज रख ली.
केट ब्लैंचेट ने यह सम्बोधन और मार्च का नेतृत्व 5050×2020 मुहिम के तहत किया था. फ़िलहाल यह मुहिम अनेक देशों में चल रही है. मांग की जा रही कि सभी इंडस्ट्री में 2020 तक महिला और पुरुष की भागीदारी बराबर होकर 50-50 प्रतिशत हो जाये. इसकी शुरुआत अमेरिका के केविन मज्जाकोमो ने की.
2013 में अपनी कंपनी स्पेरी वैन नेस इंटरनेशनल कारपोरेशन की एक्सक्यूटिव कमेटी की मीटिंग में उन्हें अहसास हुआ कि योगदान के अनुपात में यहां महिलाओं का उचित प्रतिनिधित्व नहीं हो रहा है. उन्होंने अपनी कंपनी में लैंगिक संतुलन की बात की और उस पर अमल किया. इस सोच के बारे में उन्होंने बातें कीं और टेड टॉक के जरिये उसे ठोस रूप में दुनिया के सामने रखा.
उनकी सोच से अनेक देशों में महिला और पुरुष सहमत भी हुए. सभी क्षेत्रों और उद्योगों में 5050×2020 की मांग की जा रही है. उन सभी के प्रयास से यह सपना ‘फर्स्ट वर्ल्ड’ में संभव होता दिख रहा है. भारत जैसे विकासशील ‘थर्ड वर्ल्ड’ में अभी यह दूर की कौड़ी लगती है, लेकिन उम्मीद है कि जल्दी ही परिवर्तन और बराबरी के हिमायती एक्टिविस्ट इसे समझेंगे और भारतीय सिनेमा इंडस्ट्री में इसे लागू करने का अभियान छेड़ेंगे.
कान फिल्म फेस्टिवल में केट ब्लैंचेट के ऐतिहासिक मार्च में भारत की लोकप्रिय अभिनेत्रियों की अनुपस्थिति अफसोसनाक है. कोई जवाब देने को राजी हो तो दीपिका, कंगना, ऐश्वर्या, सोनम और हुमा से यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या उन्हें और उनके एजेंट, मैनेजर या पीआर पर्सन को इस ऐतिहासिक गतिविधि की जानकारी नहीं थी? आखिर क्यों उन लोगों ने इसमें रुचि नहीं दिखाई. इस महत्वपूर्ण मार्च में शामिल होना तो दूर उन्होंने इस सम्बन्ध में सोशल मीडिया पर भी ख़ामोशी बरती. वे और उनकी टीम अपनी सॉलिडैरिटी तो जाहिर कर ही सकती थीं. बयान जारी कर सकती थीं.
हो सकता है कि 82 की निश्चित संख्या के कारण उनकी भागीदारी मुमकिन नहीं हो सकी हो, ऐसी स्थिति में वे ट्वीट या किसी और प्लेटफॉर्म से अपनी बात रख सकती थीं. ऐसे अवसरों पर भारतीय अभिनेत्रियों का ढोंग और उनका पक्ष जाहिर हो जाता है. कंगना रनोत नारीवाद और बराबरी का मसला भारत में उठाती रही हैं. वहां तो खास मौका था. उनकी राय पर ज़्यादा गौर किया जाता.
सोनम भी अपने बराबरी के बयानों के लिए मशहूर हैं. उनकी ख़ामोशी भी हैरान करती है. दीपिका पादुकोण का दावा है कि वह समकालीन पुरुष अभिनेताओं के समकक्ष पहुंच चुकी हैं. उन्हें इस मार्च में जाना चाहिए था. ऐश्वर्या से कोई उम्मीद नहीं की जा सकती. बच्चन परिवार कभी किसी मुद्दे पर स्टैंड नहीं लेता. वह इसी परिवार की बहु हैं. चुप रह कर उन्होंने बच्चन परिवार की उसी मर्यादा का पालन किया. हुमा अपेक्षाकृत नयी हैं. अभी तो वह कान के रेड कार्पेट पर अपनी उपस्थिति से ही विस्मित और मुग्ध होंगी.
गौर करें तो यह बाजार और विचार के प्रति अपना रवैया बताने का मौका था. ब्रांड एंडोर्समेंट बाजार से संचालित प्रक्रिया है. इसमें कोई बुराई नहीं है. भारतीय अभिनेत्रियां इंटरनेशनल ब्रांड के लिए चुनी जा रही हैं. इंटरनेशनल ब्रांड उनके जरिए भारत में अपना बाजार मजबूत कर रहे हैं. 5050×2020 का अभियान विचार से जुड़ा है. वह बराबरी की मांग के साथ पचास प्रतिशत हिस्सेदारी चाह रहा है.
हमारी अभिनेत्रियों ने विचार के साथ जाना मुनासिब नहीं समझा. उनका झुकाव बाजार की तरफ रहा. जानकार बता सकते हैं कि क्या ब्रांड की तरफ से उनकी गतिविधियां और भागीदारी सुनिश्चित कर दी गई थीं?
भारतीय और खास कर हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की स्थिति महिला-पुरुष की भागीदारी, मौके और मेहनताने के मामले में चिंताजनक है. भारतीय समाज की तरह फिल्म इंडस्ट्री में भी महिलाओं को दोयम दर्जे का समझा जाता है. 21वीं सदी में स्थितियां थोड़ी सी बदली हैं. अब फिल्मों के सेट और बोर्ड मीटिंग में महिलाएं दिखने लगी हैं, लेकिन अभी भी उनका प्रतिशत 50 नहीं हुआ है. सेट पर भी महिलाओं की भूमिका मुख्य तौर पर सहायक की रहती है. उन्हें स्वतंत्र ज़िम्मेदारी नहीं सौंपी जाती. किसी विभाग की ज़िम्मेदारी मिली भी तो पुरुष सहायक नाहक तंग करते हैं. उनके निर्देशों की उपेक्षा और अवमानना करते हैं.
फिल्म इंडस्ट्री में बतौर निर्माता और निर्देशक सक्रिय महिलाओं की गिनती तो उंगलियों पर ही पूरी हो जाएंगी. फिल्म निर्माण के अन्य क्षेत्रों में महिलाओं को मौके नहीं मिलते हैं. मौके मिलें भी तो उन्हें पहचान बनाने में प्रतिभा के बावजूद अनेक बाधाओं से गुजरना पड़ता है. हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में महिलाएं अल्पसंख्यक ही हैं. यों, अल्पसंख्यक होने से उन्हें कोई विशेष सहूलियत भी नहीं हासिल है. अभिनेत्रियां समय-समय पर अपने इंटरव्यू में खुद से जुड़ी समस्याओं और भेद पर दबे स्वर में बोलती रही हैं. उन्होंने पारिश्रमिक में बराबरी का मुद्दा जोर-शोर से उठाया है.
बताते हैं कि इस मामले में थोड़ा सुधार भी हुआ है. पिछले दिनों चर्चा थी कि ‘पद्मावत’ के लिए दीपिका पादुकोण को रणवीर सिंह से अधिक पैसे मिले. इसी प्रकार अलिया भट्ट को उनके समकालीन अभिनेताओं की तुलना में प्रति फिल्म ज़्यादा पैसे मिलते हैं. चंद अभिनेत्रियों की सफलता की वजह से अपवाद स्वरुप ही ऐसे उदहारण मिल रहे हैं. बराबरी की यह लड़ाई लम्बी चलेगी और इसके लिए फिल्म इंडस्ट्री की महिलाओं को ही कमर कसना होगा.
अभी तो यह स्थिति है कि कोई भी अभिनेत्री किसी स्थापित निर्माता, निर्देशक और अभिनेता के समक्ष मुंह नहीं खोलती. अपने हक़ की मांग करने से पहले उनके लिए यह समझना भी ज़रूरी होगा कि उनके हक़ क्या-क्या हैं? पूरी दुनिया में जब ‘मी टू’ का अभियान चल रहा था तो हिंदी फिल्मों की अभिनेत्रियां चुप्पी साधे बैठी रहीं. एक-दो अभिनेत्रियों ने साहस कर जेनेरिक घटनाओं का उल्लेख किया. उन्होंने भी किसी का नाम नहीं लिया.
सच्चाई यह है कि फिल्म इंडस्ट्री में ‘कास्टिंग काउच’ जारी है. शोषित अभिनेत्रियां मशहूर हो जाएं तो ज़िक्र नहीं करतीं. जो स्ट्रगल कर रही हैं, वे मौके की उम्मीद में शोषण का शिकार होती रहती हैं.
5050×2020 के अभियान को भारत में अगर 5050×2050 की मांग के साथ चलाएं और हासिल कर लें तो बड़ी उपलब्धि होगी.
पुनःश्च:
मुंबई की हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में अभिनेत्रियों को छोटी वैनिटी वैन मिलती है. आउटडोर में होटल में उनका कमरा अभिनेता की तुलना में छोटा और कम सुविधाओं वाला होता है. अभिनेत्रियों के निजी स्टाफ को भी कम पैसे मिलते हैं. उनकी सहूलियतों पर भी कम ध्यान दिया जाता है. फिल्म की मुख्य अभिनेत्रियां अपनी सहयोगी (कम मशहूर) अभिनेत्रियों का शायद ही ख्याल रखती हैं. कहीं न कहीं परिवार और परिवेश से अभिनेत्रियों के स्वभाव में एडजस्ट करने और कुछ न मांगने की प्रवृति दिखाई पड़ती है. नियंता पुरुष परिवार, समाज और फिल्म इंडस्ट्री में इसका फायदा उठाते हैं.
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