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जादुई सिलिंडर: आवाज़ रिकॉर्डिंग की शुरुआती दुनिया

आज हर हाथ में स्मार्टफ़ोन के साथ रिकॉर्डिंग की सुविधा मिली हुई है. कभी सोचा आपने कि किसी का तो यह फितूर रहा होगा. किसी ने सबसे पहले सोचा होगा कि जो सुनने में अच्छा लग रहा है, उसे बाद में सुनने के लिए बचा कर रखा जा सके. जी, इसी सोच के तहत थॉमस एडिसन ने तमाम आविष्कारों के साथ ‘बोलती मशीन’ की खोज की. फिर तो ध्वनि के संरक्षण में क्रांति आ गयी.

भारत में भी कमोबेश उसी समय इसकी शुरूआत हो गयी थी, लेकिन हमने उन्हें बचा कर नहीं रखा. समय के साथ घरों से निकल कर सिलिंडर और रिकॉर्ड कबाड़ियों के यहां पहुंच गए. कुछ बचे पर ज़्यादातर नष्ट हो गए. पहले की छोड़ें आज भी कोशिश नहीं की जा रही है कि इस थाती को मूल रूप में संग्रहित कर लिया जाय.
इन दिनों अतीत पर इतना ज़ोर दिया जा रहा कि सौ-सवा सौ साल पहले की घटनाओं की याद बचकानी बात लगेगी. हम अतीत के राग में इतने तल्लीन हैं कि वर्तमान व्यतीत हुआ जा रहा है. निकट अतीत पर भी हमारा ध्यान नहीं है.

भारत में संरक्षण और रखरखाव की संस्कृति यूं भी खराब है. श्रुति परंपरा के वाहक होने के नाते हमें यह भ्रम रहता है कि सब कुछ याद रहेगा, लेकिन होता यह है कि कुछ सालों और दशकों के बाद पहले यह व्यक्ति के स्मृतिलोप और फिर समाज की सामूहिक विस्मृति के कारण हम अपनी उपलब्धियों को गंवाते रहते हैं. देश में विकास के नाम पर करोड़ों खर्च होता रहता है, लेकिन संरक्षण के नाम पर ढेला निकलना भी व्यर्थ लगता है. सरकार और सरकारी संस्थाओं की उदासीनता निराश करती है.

नेहरू युग में आधुनिक भारत के लिए जिन परम्पराओं, उपलब्धियों और प्रयोगों के लिए संस्थाएं स्थापित की गयीं, उन्हें भी नेहरू विरोध के आवेश में नष्ट और भ्रष्ट किया जा रहा है.  पता करें कि पिछले चार सालों में शोध, लाइब्रेरी, संग्रहालय और आर्काइव के नियमित खर्च में कितनी कटौती की गयी है. सक्रिय संस्थाओं में शिथिलता आ गयी है.

इस पृष्ठभूमि में जब किसी व्यक्ति के निजी प्रयास के रूप में ‘द वंडर दैट वाज द सिलिंडर’ जैसी एक पुस्तक आती है तो यह विश्वास पक्का होता है कि दुनिया को ‘जितनी बची है, उतनी बचा लेने’ के प्रयास में कुछ लोग लगे हुए हैं.

एएन शर्मा और अनुकृति ए शर्मा ने गहन संरक्षण और शोध से यह पुस्तक लिखी है. इस पुस्तक में शर्मा पिता-पुत्री ने भारत में सिलिंडर और फोनोग्राफ के इतिहास की विस्तृत जानकारी दी है. साथ ही अपने निजी संग्रह के कुछ सिलिंडर का ज़िक्र करते हुए वे देश के महान कलाकारों, गायकों और हस्तियों के बारे में भी बताते हैं. उनकी पृष्ठभूमि और तत्कालीन परिस्थिति के बारे में बताते हैं. साथ ही उनकी गायकी और विशेषताओं का समुचित उल्लेख कर उनके योगदान को भी रेखांकित करते हैं.

एएन शर्मा

एएन शर्मा केंद्रीय उत्पाद शुल्क और सेवा शुल्क विभाग में अधिकारी रहे. अपने कार्यकाल में ही उन्हें पुराने रिकॉर्ड और फिल्म सम्बंधित सामग्रियों के संग्रह का शौक चढ़ा. पिछले तीन दशकों में उन्होंने अनेक संगीत संबंधित रिकॉर्ड और सामग्रियां एकत्रित कीं. एक बार ऐसी ही एक खोज में उनकी पत्नी आभा की नज़र एक कबाड़ी के यहां कुछ अलग किस्म के सिलिंडर पर पड़ी. कबाड़ वाले को भी नहीं मालूम था कि वह असल में है क्या?

कबाड़ी ने औने-पौने दाम में 200 सिलिंडर शर्मा परिवार को दे दिए. घर आने पर साफ़-सफाई और निरीक्षण के बाद उन्हें अहसास हुआ कि उनके हाथ अनमोल खज़ाना लगा है. 200 में से 40 सिलिंडर काम कर रहे थे. उनमें 19 वीं सदी के आरम्भ में रिकॉर्ड की गयी आवाज़ें थीं. एएन शर्मा ने उन्हें ‘आभा सिलिंडर्स’ का नाम दिया. यहां से शर्मा ने साउंड रिकॉर्डिंग के सिलिंडर्स की खोज और उनके शोध का काम शुरू किया. उन्हें कुछ दुर्लभ सिलिंडर्स मिले.

पश्चिमी शोधकर्ताओं और जानकारों ने मान लिया था कि भारत में उस दौर की कोई भी रिकॉर्डिंग सिलिंडर में उपलब्ध नहीं है. एएन शर्मा के ख़जाने में कई दुर्लभ सिलिंडर हैं, जिनमें गौहर खान, बालगंधर्व, भाऊराव कोल्हटकर, अल्लाह बंदी, अल्लादिया खान और दादा साहेब फाल्के जैसी हस्तियों की गायकी और आवाज़ें हैं. इस पुस्तक में शर्मा ने उनके बारे में सन्दर्भ और विस्तार के साथ लिखा है.

मानव सभ्यता के विकास के साथ मनुष्य की यह जिज्ञासा रही कि कैसे आवाज़ों को बचा कर रखा जा सके.  इस दिशा में थॉमस एडिसन को पहली कामयाबी मिली. उन्होंने 1877 में फोनोग्राफ का आविष्कार किया. इसे पेटेंट करने के बाद उन्हें रिकॉर्डिंग के लिए मोम के सिलिंडर बनाने में 10 साल लग गए. 1887 में वे अपना फोनोग्राफ सिलिंडर लेकर बाजार में आये. उसी साल दूसरे वैज्ञानिक ग्राहम बेल का ग्रामोफोन भी बाजार में आया.

आवाज़ को रिकॉर्ड करने और उन्हें फिर से सुन लेने की यह मशीन जल्दी ही भारत में आ गयी, लेकिन हमेशा की तरह शुरू में यह विदेशियों और देश के अमीरों के बीच रही. बंगाल से प्रकाशित ‘समाचार चन्द्रिका’ में एडिसन की बोलती मशीन का पहला हवाला मिलता है. जनवरी 1878 के अंक में छपा, “मशीन की मदद से शब्द एक बोतल में बंद किये जा सकते हैं और जब भी कोई चाहे ढक्कन खोल कर उन्हें सुन सकता है.”

उन दिनों मेलों में इस मशीन का प्रदर्शन किया जाता था. एक साथ 5-6 लोगों के कानों में स्टेथोस्कोप की तरह के तार लगा दिए जाते थे. लोग विस्मय से उन्हें सुनते थे. ऐसे ही एक प्रदर्शन के बारे में मार्च 1917 की ‘सरस्वती’ पत्रिका में जगन्नाथ खन्ना ने लिखा था- “फोनोग्राफ के आरंभिक दिनों में एक दुकानदार इसे बजा रहा था. जिज्ञासावश वहां भीड़ लग गयी और सभी फोनोग्राफ से आ रही बाईजी की आवाज़ सुनने लगे. गाना ख़त्म होने पर मैंने एक मंत्रमुग्ध श्रोता से उसके अनुभव के बारे में पूछा तो उसने कहा- हे भगवान, बाई जी बक्से में से गा रही हैं और अपना चेहरा नहीं  दिखा रही हैं.”

इस पुस्तक में शर्मा ने बताया है कि तब दिल्ली, बंबई, मद्रास, कलकत्ता और लाहौर में बोलती मशीन की दुकानें खुली थीं. भारतीय कारोबारियों ने इनकी एजेंसी ले ली और खूब पैसे कमाए.

उसी दौरान कुछ विदेशी विशेषज्ञ भी भारत आये और उन्होंने स्थानीय व्यक्तियों की मदद से संगीतज्ञों और इसमें रूचि रखने वाले अन्य व्यक्तियों की आवाज़ें रिकॉर्ड कीं. विदेशी विशेषज्ञों और विदेशी सिलिंडर के इस दौर में कलकत्ता के उद्योगपति हेमेंद्र मोहन बोस ने ‘एच बोस रिकॉर्ड’ के नाम से अपने सिलिंडर निकाले. उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर और द्विजेन्द्रनाथ राय की आवाज़ें रिकॉर्ड कीं. उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर की आवाज़ में ‘वन्दे मातरम’ भी रिकॉर्ड किया था,जिस पर बंगाल विभाजन के दिनों में ब्रिटिश सरकार ने पाबन्दी लगा दी थी.

19वीं सदी के आरम्भ में अधिक रिकॉर्डिंग नहीं होने की तीन प्रमुख वजहें थीं. एक तो गायकों को लगता थी कि दो-तीन मिनट की रिकॉर्डिंग में उनकी गायकी के साथ न्याय नहीं हो पायेगा. दूसरा कारण था कि ज़्यादातर गायक दरबारी थे और उन्हें अपने राजाओं से अनुमति नहीं मिल पाती थी. तीसरा कारण था कि कुछ रिकॉर्ड कंपनियों तक पहुंच ही नहीं पाते थे.

इस सन्दर्भ में विष्णु नारायण भातखण्डे के प्रयासों से कुछ बेहतरीन परिणाम निकले. उन्होंने रामपुर के राजा को उनके दरबार में लगे तानसेन के वंशज मोहम्मद खान को रिकॉर्डिंग के लिए राजी किया. उन्होंने भावी पीढ़ियों के लिए गायकी के नोटेशन तैयार किये.

उन दिनों उस्ताद मानते थे कि गायकी नोटेशन से नहीं सीखी जा सकती. उसके लिए ज़रूरी है कि उस्तादों को गाते हुए सुना जाये. भारतीय संगीत गुरु-शिष्य परंपरा से ही आगे जाती है. इस पृष्ठभूमि में सिलिंडर रिकॉर्ड और तवा रिकॉर्ड ने बड़ी भूमिका निभाई और उस्तादों की सोच बदली.

एएन शर्मा ने इस पुस्तक के 12 अध्यायों में सिलिंडर के अविष्कार, भारत में उसके आगमन और फिर उसके स्वीकार और चलन के बारे में बताया है. उन्होंने आठ गायकों और उस्तादों के रिकॉर्ड, गायकी और माहौल का उल्लेख किया है.

इस पुस्तक से उस काल के संगीत के प्रसार और परिवेश की अच्छी जानकारी मिलती है. हालांकि कुछ अध्यायों में दोहराव है और कहीं-कहीं कसावट की कमी है, लेकिन इस तरह की पहली पुस्तक होने के कारण इसे नज़रअंदाज किया जा सकता है.

महत्वपूर्ण यह है कि शर्मा ने भुला दिए गए दौर के संगीत और सिलिंडर रिकॉर्ड को संरक्षित करने के साथ उनमें से कुछ के बारे में लिखा है. इस पुस्तक के साथ एक डीवीडी भी है, जिसमें पुस्तक में सम्मिलित गायकों और उस्तादों की आवाज़ के नमूने भी हैं. ध्वनि, संगीत और संगीत की भारतीय परंपरा के सबूत सुनने और समझने में इस पुस्तक से मदद मिलेगी.

एएन शर्मा चाहते हैं कि सोसाइटी में दबे-छिपे सिलिंडर और रिकॉर्ड को खोजने और संग्रहित करने का सार्थक प्रयास होना चाहिए. ठीक है बहुत कुछ रिकॉर्ड नहीं हो सका, लेकिन जो हो चुका है उन्हें तो हम नहीं गंवाएं.

पुनःश्च –
जयपुर-अतरौली घराने के उस्ताद अल्लादिया खान ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- “…जोधपुर में रात के खाने के बाद एक कमरे में रियाज कर रहा था. रियाज में इस कदर डूबा था कि पता ही नहीं चला कि कब कमरे की रौशनी बुझ गयी. मैं अंधेरे में रियाज करता रहा. अचानक देखता क्या हूं कि कमरा रोशन हो गया है. मैंने इधर-उधर देखा तो कोई नज़र नहीं आया. आंखों को सिकोड़ कर रोशनी पर गौर किया तो एक आकृति उभरी. एक औरत दिखाई दी. ऊपर से नीचे तक गहनों से लदी एक सुन्दर औरत. मैंने सोचा हो ना हो देवी सरस्वती आयी हैं. थोड़ी देर में रौशनी और आकृति गायब हो गयी, लेकिन मेरी आवाज़ में बला की ताकत और मिठास आ गयी. और वह बनी रही. गनीमत है कि आज का वक़्त नहीं था, वरना तो एक तरफ मौलवी फतवा देते और दूसरी तरफ पंडित पिल पड़ते. अल्लादिया खान की एक बंदिश है-

मोरी आली कुंजन में दधि बेचन गई
किनो मे सो छल-बल कुंवर कन्हाई
कान्हा डग में ठारे बीच पनघटवा
का री करूं मैं ऐ री सखी करके विनती हारी
सजनी ‘अहमद पिया’ की लाखन बार दुहाई

द वंडर, दैट वाज़ सिलिंडर: अर्ली एंड रेयर सिलिंड्रिकल रिकॉर्ड्स
लेखक: एएन शर्मा, अनुकृति शर्मा
कीमत: रु. 6000/-
स्पेंटा मल्टीमीडिया