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कैलाश विजयवर्गीय साहब, और भी मुद्दे हैं जहान में!

बेमतलब मुद्दों पर बहस और चर्चा करना अनेक भारतीय नेताओं और मीडिया का शगल बन गया है. भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता कैलाश विजयवर्गीय के साथ भी ऐसा ही है. वे मध्यप्रदेश से आते हैं और पश्चिम बंगाल में अपनी पार्टी के प्रभारी हैं. पर, शायद ही इन्हें कभी किसी ने इन राज्यों या किसी अहम राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मसले पर कोई गंभीर बात कहते देखा-सुना होगा.

सुर्खियों में बने रहने के लिए उन्होंने एक नया शिगूफा छोड़ा है- ‘हिंदी फिल्म इंडस्ट्री’ को ‘बॉलीवुड’ न कहा जाये. बकौल विजयवर्गीय, उन्हें फिल्मकार सुभाष घई ने बताया कि ‘बॉलीवुड’ की संज्ञा बीबीसी ने इस इंडस्ट्री पर तंज कसते हुए दिया था कि यहां हॉलीवुड की नकल होती है.

विजयवर्गीय पहले व्यक्ति नहीं हैं, जिन्होंने इस शब्द पर एतराज जताया है. इंडस्ट्री के भीतर यह मुद्दा अक्सर उठता रहता है. मजे की बात यह है कि यह कोई आधिकारिक संज्ञा नहीं है, पर सामान्य बोलचाल, मीडिया और कुछ एकेडेमिक अध्ययनों में इसका इस्तेमाल खूब होता है. फिल्मकार राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने 2006 में एक बयान दिया था कि ‘बॉलीवुड’ हमारे सिनेमा के ‘राष्ट्रीय चरित्र’ को इंगित नहीं करता है और यह एक अपमानजनक संबोधन है.

इससे पहले अभिनेता अजय देवगन भी इस शब्द पर आपत्ति जता चुके थे. वर्ष 2007 में लंदन के एक आयोजन में प्रख्यात अभिनेताओं- ओम पुरी और नसीरुद्दीन शाह- ने ‘बॉलीवुड’ को पश्चिमी मीडिया का दिया नाम बताते हुए कहा था कि यह बेहद अपमानजनक है क्योंकि इसका मतलब उनकी नजर में ‘नाच-गानेवाली फिल्में’ होता है.

शाह ने भारतीय मीडिया द्वारा इस नाम से परहेज करने की हिदायत देते हुए कहा था कि अब मुंबई फिल्म इंडस्ट्री भी खुद को इसी नाम से पुकारती है. उनकी नजर में यह कुछ ऐसा ही है कि जीवनभर आपको बेवकूफ कहा जाये और फिर आप स्वयं उसे अपनी पहचान बना लें.

साल 2013 में अभिनेता इरफान खान ने ‘द गार्डियन’ को दिये एक इंटरव्यू में कहा था कि उन्हें ‘बॉलीवुड’ शब्द पर हमेशा आपत्ति रही है और यह नाम ठीक नहीं है क्योंकि हमारी इंडस्ट्री की अपनी तकनीक है, अपना तरीका है- यह सब हॉलीवुड की नकल नहीं है, इसकी शुरुआत पारसी थियेटर से होती है. सिनेमा इंडस्ट्री के भीतर और बाहर ‘बॉलीवुड’ संज्ञा को नापसंद करनेवाले कई लोग हैं, पर यह शब्द धीरे-धीरे आम प्रयोग में आता गया.

इस संदर्भ में आगे बात करने से पहले यह भी स्पष्ट कर दिया जाना चाहिए कि ‘बंबई फिल्म इंडस्ट्री’ (जो अब मुंबई फिल्म इंडस्ट्री भी कही जाती है) को ‘हिंदी फिल्म इंडस्ट्री’ कहना एक तरह से ज्यादती है. इसे शहर के साथ जोड़ कर देखा जाना चाहिए, जहां (कोल्हापुर और पूना के साथ) अलग-अलग भाषाओं के लोगों ने पहले मूक और फिर बोलती फिल्मों का सिलसिला शुरू किया. बोलती फिल्मों ने जिस भाषा को अपनाया, वह हिंदुस्तानी थी यानी कि उसमें कई भाषाओं का मेल था. बहरहाल, इस बिंदु को यहीं छोड़ ‘बॉलीवुड’ शब्द के आने और इस्तेमाल होने पर चर्चा करते हैं. चूंकि कैलाश विजयवर्गीय ने सुभाष घई के हवाले से कहा है कि यह शब्द बीबीसी ने पहले इस्तेमाल किया था, तो यह समझना भी जरूरी है कि आखिर यह मामला शुरू कहां से होता है.

सिनेमा विद्वान माधव प्रसाद ने ‘सेमीनार’ के एक लेख में बताया है कि 1932 में ‘अमेरिकन सिनेमैटोग्राफर’ के मार्च अंक में अमेरिकन इंजीनियर विल्फोर्ड इ डेमिंग ने ‘टॉलीवुड शब्द का इस्तेमाल किया था और उसका संदर्भ कलकत्ता का टोलीगंज इलाका था, जहां फिल्म निर्माण होता था. डेमिंग ने लिखा है कि यह संज्ञा हॉलीवुड की तर्ज पर गढ़ी गयी है. इस इंजीनियर का यह भी दावा था कि उसकी निगरानी में भारत की पहली बोलती फिल्म बनी थी.

माधव प्रसाद ने यह भी बताया है कि सैटेलाइट टेलीविजन और एमटीवी जैसे चैनलों के आने से बहुत पहले ‘स्टेट्समैन’ समूह का एक प्रकाशन ‘जूनियर स्टेट्समैन’ धड़ल्ले से ‘टॉलीवुड’ शब्द का प्रयोग करता था. मुंबई फिल्म इंडस्ट्री के लिए ‘बॉलीवुड’ और लाहौर फिल्म इंडस्ट्री के लिए ‘लॉलीवुड’ शब्दों की प्रेरणा ‘टॉलीवुड’ को माना जा सकता है. देश-विदेश में इसकी स्वीकारोक्ति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2002 में कनाडा में बसी भारतीय मूल की प्रख्यात फिल्मकार दीपा मेहता ने ‘बॉलीवुड/हॉलीवुड’ नाम से फिल्म ही बना दी.

अप्रैल, 2005 में सिफी पर छपी एक समाचार रिपोर्ट में पत्रकार सुभाष के झा ने लिखा था कि फिल्मकार अमित खन्ना ने ‘बॉलीवुड’ नाम दिया है. खन्ना बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं और फिल्म एवं टीवी गिल्ड के प्रमुख भी रह चुके हैं. उस रिपोर्ट में उन्होंने इस शब्द के पक्ष में बहुत दिलचस्प तर्क दिया है. खन्ना का कहना है कि इस शब्द से जुड़े नकारात्मक मायने बदल चुके हैं और हमें अपनी इंडस्ट्री को एक ब्रांड के तौर पर देखना चाहिए.

उनकी राय में यह मानना कि ‘बॉलीवुड’ अपमानजनक है, कोक या मैक्डोनाल्ड्स जैसे ब्रांड नाम पर सवाल उठाना है. नवंबर, 2002 में मिड-डे में नंदिता पुरी की एक रिपोर्ट में अमित खन्ना के हवाले से लिखा गया है कि 1970 के दशक में उन्होंने अपने कॉलम में इस संज्ञा का इस्तेमाल पॉपुलर फिल्मों को इंगित करने के लिए किया था क्योंकि मुंबई में मुख्यधारा के साथ समांतर फिल्में भी बनती थीं.

इस नाम को लाने का दावा करनेवाली एक पत्रकार बेविंडा कोलासो भी हैं. मार्च, 2004 में स्तंभकार आनंद ने ‘द हिंदू’ के अपने एक कॉलम में कोलासो का एक इमेल उल्लिखित किया है. उसमें कोलासो ने लिखा है कि 1970 के दशक के आखिरी तीन सालों में ‘सिने ब्लिट्ज’ में कॉलम लिखने के दौरान उन्होंने ‘बॉलीवुड’ नाम गढ़ा था. कोलासो के कॉलम का नाम था- ‘ऑन द बॉलीवुड बीट’.

खैर, ‘बॉलीवुड’ जैसे भी बना हो, आज यह बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता है. यदि इस पर किसी को आपत्ति होनी चाहिए, तो पहले फिल्म इंडस्ट्री के लोगों को होनी चाहिए और वे खुद इसका इस्तेमाल करना बंद कर सकते हैं. वे मीडिया और अकादमिया से भी इसका प्रयोग न करने का निवेदन कर सकते हैं. पर, कैलाश विजयवर्गीय जैसे नेताओं के हाथ में ऐसे मुद्दे देना किसी के हित और हक में नहीं है.

यदि कैलाश विजयवर्गीय को सचमुच फिल्म इंडस्ट्री की चिंता है, तो वे थियेटर में टिकट पर लगनेवाले भारी-भरकम जीएसटी में कटौती करने के लिए आवाज उठा सकते हैं. मुंबई के बाहर विभिन्न हिंदीभाषी प्रदेशों और उन प्रदेशों की अन्य भाषाओं में फिल्म निर्माण और प्रशिक्षण के लिए संसाधन उपलब्ध कराने की कोशिश कर सकते हैं. वे फिल्म के प्रदर्शन के लिए सर्टिफिकेट देनेवाली संस्था (आम तौर पर जिसे सेंसर बोर्ड कहा जाता है. यह संज्ञा भी दुरुस्त नहीं है.) में सुधार के लिए प्रयास कर सकते हैं.

भारतीय सिनेमा से जुड़ी चीजों और दस्तावेजों के संरक्षण पर भी सरकार को बहुत ध्यान देने की जरूरत है. सिनेमा इंडस्ट्री में कार्यरत मजदूरों/जूनियर आर्टिस्टों के शोषण का मुद्दा भी बेहद अहम है. इन सब पर बात न कर, सुभाष घई के अधूरे ज्ञान के आधार पर एक गैर-आधिकारिक संज्ञा के खिलाफ ट्विटरबाजी और बयानबाजी करने का एक मतलब यह भी है कि भाजपा के नेताओं के पास टाइम-पास के लिए फुरसत और मुद्दे खूब हैं. देखिये, संबित पात्रा उधर न्यूज़ एंकर बने बैठे हैं!