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दो तुनकमिजाज राष्ट्राध्यक्षों का मिलन
सिंगापुर में उत्तर कोरिया के चेयरमैन किम जोंग उन के साथ ऐतिहासिक बैठक और समझौते के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा है कि कोरियाई इलाके को परमाणु हथियार से मुक्त कराने की कोशिशें आगे बढ़ी हैं. ट्रंप ने उत्तर कोरिया को सुरक्षा की पूरी गारंटी देने की प्रतिबद्धता जतायी है, तो किम ने अपने परमाणु कार्यक्रम को रोकने के फैसले पर डटे रहने की बात कही है. हालांकि अभी लिखित समझौतों और बातचीत का पूरा विवरण उपलब्ध नहीं है. राष्ट्रपति ट्रंप के संवाददाता सम्मेलन से भी ज्यादा कुछ पता नहीं चल सका है, लेकिन दोनों नेताओं की गर्मजोशी और ट्रंप के उत्साह से उम्मीदें जरूर बढ़ी हैं कि उत्तर कोरिया और अमेरिका के आपसी संबंध एक सकारात्मक दौर में पहुंचे हैं.
हालांकि ट्रंप ने फिलहाल अमेरिकी प्रतिबंधों को हटाने से इनकार कर दिया है, पर उन्होंने यह भी कहा है कि उत्तर कोरिया को जापान और दक्षिण कोरिया से समुचित सहायता मिलेगी. उन्होंने बैठक के आयोजन और इसकी सफलता में दक्षिण कोरिया, चीन और जापान के सहयोग की भी बड़ी प्रशंसा की है.
आलोचनाएं और शंकाएं
सम्मेलन से पहले और बाद में इसके अच्छे परिणामों को लेकर संदेह व्यक्त किया जा रहा है. बीच में तो यह मुलाकात दोनों नेताओं की तल्ख बयानबाजी के कारण एक दफा टल भी गयी थी. सात दशकों की तनातनी, परमाणु युद्ध के खतरे, वाणिज्य-व्यापार और साउथ चाइना सी के सैन्यीकरण को लेकर अमेरिका एवं चीन के बीच टकराव आदि के मद्देनजर ऐसी शंकाएं स्वाभाविक ही थीं.
लंदन से प्रकाशित अखबार ‘द गार्डियन’ में सोमवार को छपे संपादकीय में इन शंकाओं का सार भी है और इसके आधार भी गिनाए गए हैं. अखबार ने लिखा है कि सिंगापुर की बैठक को समझौते की बातचीत मानना ठीक नहीं है. यह दोनों नेताओं का एक साझा प्रदर्शन है, जिनके लिए इस बातचीत के बिल्कुल भिन्न उद्देश्य हैं.
अखबार की नजर में ट्रंप के लिए यह मुलाकात उनके अहं की तुष्टि का जरिया है और इससे कुछ खास दूरगामी नतीजे नहीं निकलेंगे. बरसों से इस दिन का इंतजार कर रहे उत्तर कोरिया की चाहत है कि दुनिया उसे एक ताकत के रूप में स्वीकार करे और उसके साथ आदर से पेश आये. यह कहते हुए कि उत्तर कोरिया अपनी पहचान को लेकर संवेदनशील है और वह मानता है कि उसके बचे रहने का आधार उसकी परमाणु क्षमता ही है, ‘द गार्डियन’ का मानना है कि इसमें बदलाव होने की कोई संभावना नहीं है.
‘फॉरेन पॉलिसी’ में काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस के फेलो वान जैक्सन ने इसे एक ‘प्रहसन’ की संज्ञा दी है और कहा है कि इसका आयोजन मीडिया, नेताओं और नीति विश्लेषकों के लिए किया गया है.
बातचीत के अलावा कोई विकल्प नहीं
ये बातें अपनी जगह सही हो सकती हैं. यह भी माना जा सकता है कि ट्रंप ने अपने सहयोगियों के साथ इस बैठक के लिए जरूरी तैयारी नहीं की है. पर, यह भी सोचा जाना चाहिए कि आखिर बरसों से चले आ रहे विवादों को सुलझाने के लिए ऐसे सम्मेलनों के अलावा विकल्प क्या है. इस बैठक की तैयारी के क्रम में महीनों से उत्तर कोरिया, दक्षिण कोरिया और अमेरिका के अधिकारियों का संपर्क चलता रहा है.
चेयरमैन किम हाल ही में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से दो बार और दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति मून से एक बार मिल चुके हैं. वे रूसी राष्ट्रपति से भी जल्दी मिलने वाले हैं. क्या इन सभी सिलसिलों में मुद्दों और आगे की कार्यवाहियों पर चर्चा नहीं हुई होगी? क्या दोनों नेताओं ने अपने सलाहकारों से चर्चा किये बगैर समझौते का ब्यौरा तैयार कर लिया होगा?
यह तर्क दिया जा सकता है कि ट्रंप और किम अपने व्यक्तित्व और व्यवहार में अस्थिर हैं, पर इस बात को कैसे खारिज किया जा सकता है कि सात दशकों के मतभेद को सुलझाने की प्रक्रिया कहीं से तो शुरू होनी है. पूर्वाग्रह से ग्रस्त निराशावादियों और नकारात्मक सोच रखनेवालों को बौद्धिक लेखक नॉर्मन कजिंस की यह बात जरूर याद रखनी चाहिए कि उम्मीद तर्क के हिसाब-किताब से मुक्त चीज होती है.
ट्रंप-किम शिखर सम्मेलन पर कोई टिप्पणी करने से पहले हमें कुछ समय इंतजार कर लेना चाहिए कि बात किस दिशा में और कहां तक पहुंचती है. खुद ट्रंप ने कहा है कि हो सकता है कि छह माह बाद उन्हें कहना पड़े कि वे गलत सबित हुए.
हाल की खास घटनाएं
तो क्या सचमुच ऐसा है कि बस ट्रंप ने चाहा और बैठक हो गयी? नहीं. मौजूदा शिखर बैठक लंबे सिलसिले का नतीजा है. कुछ खास हालिया घटनाओं पर नजर डालते हैं. अपने पिता की मौत के कुछ दिन बाद किम जोंग उन ने 29 दिसंबर, 2011 को उत्तर कोरिया की कमान संभाली थी. दो महीने बाद ही 23 फरवरी को चीन में अमेरिकी प्रतिनिधि ग्लिन डेविस और उत्तर कोरिया के प्रथम उप विदेश मंत्री किम क्ये ग्वान की मुलाकात हुई थी. उत्तर कोरिया ने उसी महीने की 29 तारीख को अपने परमाणु कार्यक्रम को रोकने की घोषणा की थी और इसके बदले में अमेरिका ने खाद्य सहायता भेजने की बात कही थी.
लेकिन दो माह बाद ही सैटेलाइट तस्वीरों के आधार पर अमेरिका ने कोरिया पर आरोप लगाया कि वह अपना कार्यक्रम जारी रखे हुए है. इसके बाद लंबी दूरी के मिसाइलों के परीक्षण के कारण उत्तर कोरिया और अमेरिका में तनातनी और बढ़ गयी. चेयरमैन किम ने 28 फरवरी, 2013 को अमेरिका के नामी बास्केटबॉल खिलाड़ी डेनिस रोडमैन और एक डॉक्यूमेंट्री टीम से मुलाकात कर सबको अचरज में डाल दिया.
इसके एक हफ्ते बाद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने तीसरा परमाणु परीक्षण करने के कारण कोरिया के खिलाफ नये आर्थिक प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित कर दिया. इसके जवाब में किम ने 1953 के कोरियाई युद्धविराम समझौते को तोड़ दिया. यह समझौता दोनों कोरिया के बीच युद्ध के खात्मे का औपचारिक समझौता था. इसी के साथ उत्तर कोरिया ने दक्षिण कोरिया से आखिरी मिलिट्री हॉटलाइन को भी खत्म कर दिया है. उसी दौरान उसने दो परमाणु रियेक्टरों को फिर से चालू करने की धमकी भी दी. इस तनातनी के माहौल में दोनों कोरियाई देशों के बीच संपर्क बंद हो गया. साल 2013 से 2015 के बीच का समय बेहद तनावपूर्ण रहा था और उत्तर कोरिया ने इस दौरान अनेक सैन्य परीक्षण किये.
परंतु, 25 अगस्त, 2015 को दोनों कोरियाई देश तनाव खत्म करने पर सहमत हो गये. डोनाल्ड ट्रंप ने राष्ट्रपति पद के अपने चुनावी अभियान में किम की प्रशंसा भी करते रहे और उन्हें गायब कर देने की धमकी भी देते रहे. फिर उन्होंने किम से मुलाकात की इच्छा भी जतायी. लेकिन इधर किम ने नौ सितंबर को अपना सबसे बड़ा परमाणु परीक्षण कर डाला. ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के दो हफ्ते के भीतर ही कोरिया ने फिर एक मिसाइल परीक्षण को अंजाम दिया.
साल 2017 के मार्च में दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति पार्क को भ्रष्टाचार के आरोपों में पद से हटा दिया गया और इसके बाद हुए चुनाव में मून राष्ट्रपति निर्वाचित हुए. मार्च, 2017 में तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री रेक्स टिलरसन ने कहा कि उत्तर कोरिया के साथ सभी विकल्प खुले हैं. दो माह बाद ट्रंप ने बयान दिया कि किम से उनकी मुलाकात सम्मान की बात होगी.
मई, 2017 में नवनिर्वाचित दक्षिण कोरियाई नेता मून ने उत्तर कोरिया से बातचीत का आह्वान दिया. साथ में परीक्षणों और प्रतिबंधों का सिलसिला भी जारी रहा. अमेरिका और उत्तर कोरिया ने एक-दूसरे को तबाह करने की धमकियां भी दीं. सितंबर, 2017 के अपने पहले संयुक्त राष्ट्र संबोधन में ट्रंप ने उत्तर कोरिया को पूरी तरह से खत्म करने की चेतावनी दी. पर, उसी महीने टिलरसन ने कहा कि वे उत्तर कोरिया से संपर्क में हैं.
इसके जवाब में ट्रंप ने उन्हें समय बर्बाद न करने की नसीहत दी. नवंबर, 2017 में उन्होंने कहा कि उनका रणनीतिक धैर्य समाप्त हो गया है. यह बात उन्होंने जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे के साथ एक संबोधन में कही थी. इसके कुछ ही दिन बाद 600 मील दूर जापानी समुद्र में उत्तर कोरिया ने मिसाइल परीक्षण किया. एक बार फिर संयुक्त राष्ट्र ने नये प्रतिबंधों की घोषणा कर दी.
नये साल के संबोधन में किम ने दक्षिण कोरिया से संपर्क बढ़ाने की बात कह कर सबको चौंका दिया. साल 2018 के पहले हफ्ते में एक बार फिर से ट्रंप और किम के बीच कहासुनी हुई. उसी हफ्ते दोनों कोरियाई देशों की बातचीत का रास्ता साफ हुआ. इस पर ट्रंप ने भी सकारात्मक टिप्पणी की. जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, ट्रंप के पास किम से बातचीत का प्रस्ताव दक्षिण कोरिया के जरिये ही भेजा गया था.
फरवरी में एक और अजीब चीज हुई. दक्षिण कोरिया में आयोजित शीत ओलंपिक खेलों में दोनों कोरियाई देश एक ही झंडे के तले उद्घाटन समारोह में शामिल हुए. उस अवसर पर अमेरिका के उपराष्ट्रपति पेंस भी मौजूद थे. उसी महीने अमेरिका ने प्रतिबंधों को और कठोर करने का फैसला लिया. बाद के महीनों में दोनों पक्षों के बीच संपर्क चलता रहा और अंततः चेयरमैन किम और राष्ट्रपति ट्रंप 12 जून को सिंगापुर में मिले.
भू-राजनीतिक कारक अहम
यह विवरण यह समझने के लिहाज से महत्वपूर्ण है कि कूटनीति कई स्तरों पर सक्रिय रहती है और किसी निर्णय या परिणाम के पीछे कई कारक गतिशील रहते हैं. जब किसी कहानी में ट्रंप और किम जैसे किरदार मुख्य भूमिकाओं में हों, और भू-राजनीतिक लिहाज से मून, जिनपिंग, आबे और पुतिन जैसे नेताओं की मौजूदगी हो, तो किसी एक पहलू से कहानी को देखना सही नहीं होगा.
व्यापार और अमन-चैन के नजरिये से देखें, तो दुनिया की मौजूदा अस्थिरता किसी भी समय अर्थव्यवस्था को पटरी से उतारकर 2008 से भी बुरे हालात पैदा कर सकती है. इसी अस्थिरता में सभी अहम देश अपने-अपने हितों (हित हमेशा बहस का मसला है) के मद्देनजर खेल में हैं.
न तो उत्तर कोरिया अपने अलगाव को हमेशा के लिए बरकरार रख सकता है, न ही अमेरिका और उसके सहयोगी देश उसे नाराज रख निश्चिंत हो सकते हैं. चीन और रूस भी उत्तर कोरिया को नरम देखना चाह रहे हैं. इस संदर्भ में यह एक दिलचस्प बात भी है कि उत्तर कोरिया न तो किसी गद्दाफी के लीबिया या किसी सद्दाम के इराक की तरह बिल्कुल अलग-थलग है, और न ही वह उनकी तरह मनमानी करने के लिए आजाद.
यूरोप के साथी देशों तथा कनाडा और मेक्सिको का साथ ही ट्रंप चीन से भी भिड़े हुए हैं, पर वे भी सारा मोर्चा एक साथ नहीं खोल सकते हैं. यही कारण है कि वे रूस को शामिल कर जी-7 को जी-8 बनाना चाहते हैं और पुतिन को व्हाइट हाउस बुलाना चाहते हैं. चाहे उनकी सोच या व्यक्तित्व जो भी हो, लेकिन वे यह तो जरूर चाहेंगे कि बतौर राष्ट्रपति कुछ ठोस विरासत छोड़ जाएं. दुनिया में अपना दबदबा बनाने को आतुर चीन और रूस को भी उत्तर कोरिया और सीरिया जैसे मसले क्योंकर न रास आयेंगे!
(साभार: मीडिया विजिल)
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