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शुजात बुखारी: कश्मीर का अजातशत्रु पत्रकार
कश्मीर अनिश्चितताओं की ज़मीन है. दुनिया के सर्वाधिक मिलिट्राइज़, सर्वाधिक हथियारों और सर्वाधिक खून-खराबे वाली जगहों में से एक, जहां लोगों की जान जाना आमफ़हम ख़बर है. लेकिन एक पत्रकार की हत्या असल में पूरे समाज की आवाज़ की हत्या है, उस धरती के मुद्दों की, उसे समझने वाली समझदार आवाज़ की.
मौजूदा दौर में कश्मीर को देखने का रवैया बहुत ब्लैक एंड व्हाइट है. ऐसे में उन लोगों की अहमियत अपने आप बढ़ जाती है जो इसके बीच ग्रे एरिया को तलाशते हैं, समझते हैं, उसे समने लाते हैं. टकराव के दरम्यान बीच की ज़मीन खोजने का जरिया बनते हैं. राइज़िंग कश्मीर के संपादक शुजात बुखारी वही आवाज़ थे.
एक पत्रकार से हमेशा अपेक्षा रहती है कि वह उनकी आवाज़ बनेगा जिनकी कोई आवाज़ नहीं होती, जो हाशिए पर हैं, निर्बल हैं, जिनका शोषण आसान है. शुजात बुखारी कश्मीर के मीडिया परिदृश्य में ऐसी ही आवाज़ थे. मुखर किंतु सौम्य. अपनी बात कहने की ताकत रखने के बावजूद वे कभी हिंसक या आक्रामक नहीं होते थे. पिछले साल न्यूज़लॉन्ड्री के कार्यक्रम मीडिया रम्बल में उनसे छोटी सी मुलाकात से ऐसी ही कुछ तस्वीर बनी थी उनके लिए.
कश्मीर घाटी में द हिंदू अखबार के ब्यूरो प्रमुख के तौर पर लंबे समय तक काम करने के बाद शुजात ने अपना खुद का डेली अखबार राइज़िंग कश्मीर शुरू किया. गुरुवार को आखिरी रोज़े की इफ्तार से ठीक पहले श्रीनगर के प्रेस इन्क्लेव में उनकी और उनके दो अंगरक्षकों की नृशंस हत्या कर दी गई. अभी तक हत्यारों के बारे में कोई सुराग नहीं मिल सका है, किसी आतंकी समूह ने भी उनकी हत्या की जिम्मेदारी नहीं ली है. शुजात इससे पहले भी आतंकियों के निशाने पर आ चुके थे, लेकिन तब किस्मत उनके साथ थी. इस बार वे उतने भाग्यशाली सिद्ध नहीं हुए.
शुजात ने अपने अख़बार के जरिए आतंकियों को भी हथियारबंद हिंसा के लिए लताड़ा और सुरक्षाबलों की जोर-जबरदस्ती के खिलाफ भी आवाज़ उठायी. सरकार का रवैया लंबे समय से कश्मीर की समस्या को कानून व्यवस्था की समस्या बताने का रहा है. लेकिन शुजात इसके विपरीत राय रखते थे. उनका साफ मत था कि कश्मीर की समस्या राजनीतिक है और इसका हल भी राजनीतिक ही हो सकता है. लेकिन हमारी सरकारों का रवैया इसे सेना और सुरक्षाबलों के जरिए हल करने का रहा है.
इस बात में कोई शक नहीं है कि शुजात की हत्या देश के मीडिया समुदाय के ऊपर हमला है, उसकी आज़ादी को धमकाने की कोशिश है. विशेषकर कश्मीर घाटी के पत्रकारों के लिए यह बेहद कठिन समय है. उनके एक तरफ ड्यूटी है, दूसरी तरफ शुजात जैसा हश्र होने की आशंका. भय, आशंका, संदेह के इस वातावरण में घाटी के पत्रकारों को अपना रास्ता चुनना है. सबके मन में यह संशय है, शुजात जैसा हश्र उनमें से किसी का भी हो सकता है.
इस समय मीडिया समुदाय को जो सवाल सिरे से मथ रहा है वह है, एक पत्रकार के ऊपर इस तरह का कायरतापूर्ण हमला क्यों, पत्रकार तो किसी आतंकी समूह या फिर सरकार के पाले में खड़ा नहीं है. शुजात लगातार अपने लेखों और रिपोर्टों के जरिए अपने विचारों को सामने रखते रहते थे. उन्होंने कभी भी अपने विचारों को छुपाने या उसे किसी तरह का चोला पहनाने की कोशिश नहीं की. वे इस बात को समझते थे और मानते थे कि जीवन के ज्यादातर हिस्सों में एक किस्म का दिखावा यानी कथनी-करनी का अंतर व्यावहारिकता की आड़ में चलता रहता है लेकिन पत्रकारिता में इस तरह का दोहरापन या पाखंड नहीं चलता.
लगभग हर मंच से उन्होंने अपने चरित्र के इस पहलू को सामने रखा. गलत को गलत, सही को सही कहने का साहस उन्होंने अपने अखबार के जरिए, हर सभा-सेमिनार में दिखाया. उनकी कलम से भी यह बात स्थापित हुई.
लेकिन उनकी असमय, भयावह मौत के बाद उनके इन मूल्यों पर पत्रकारों का कितना भरोसा बना रहेगा, यह बड़ा सवाल है. हर पेशे के कुछ स्थायी मूल्य होते हैं, पत्रकारिता के भी हैं. ये मूल्य ही हैं जो स्थायी बने रहते हैं, लिहाजा लोगों के चले जाने के बाद भी वो चीजें कायम रहती हैं. घाटी में पत्रकारिता कर रहे लोगों के लिए शुजात का जाना असहनीय झटके की तरह है लेकिन पत्रकारिता अपनी पूरी ताकत से इस झटके का न सिर्फ मुकाबला करेगी बल्कि अंत में यह सिद्ध होगा कि पत्रकारिता सही थी, हत्यारे गलत थे.
शुजात की विरासत में और भी कई चीजें बची रहेंगी. लोग उन्हें घाटी में ऐसे पत्रकार के रूप में याद रखेंगे जिसने उस अख़बार की नींव डाली जिसका दर्शन शांति का था, भाईचारे का था, सामुदायिक भावना का था. शुजात हमेशा लोगों से संवाद, आदान-प्रदान में यकीन रखते थे. अपने असहमतों से भी बातचीत का रास्ता खुला रखते थे, चाहे किसी विषय पर उनके आपस में कितने ही गहरे मतभेद रहे हों. शुजात कश्मीर और देश की पत्रकारिता में एक अध्याय के बतौर दर्ज रहेंगे, पत्रकार उन्हें उसी रूप में याद रखेंगे.
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