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आपातकाल विरोधी गुट का विरोधाभास

अरुण जेटली और रविशंकर प्रसाद जैसे मोदी सरकार के केन्द्रीय मंत्रियों का दावा है कि उन्होंने 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के खिलाफ संघर्ष किया है. रविशंकर प्रसाद ने यहां तक कहा है कि जब तक भारतीय जनता पार्टी सत्ता में है, प्रेस की स्वतंत्रता पर किसी तरह के हमले नहीं हो सकते.

यहां एक हानिरहित सवाल पूछा जाना चाहिए- क्या मोदी सरकार मीडिया के प्रति सहिष्णु है या वह मीडिया का सम्मान करती है? प्रधानमंत्री मोदी ने भारतीय मीडिया के प्रति अपनी घृणा को शायद ही छिपाया है. न्यूज़ ट्रेडर्स उन्हीं की ईजाद की हुई शब्दावली है. जो कुछ साक्षात्कार उन्होंने दिए हैं, वह भी सभी ऐसे अखबारों और टीवी चैनलों को जिनके मोदी से दोस्ताना रिश्ते जग-जाहिर हैं. मोदी ने अबतक किसी भी ऐसे अखबार, पत्रिका या न्यूज़ चैनल से बात नहीं की है जो उनकी सरकार और नीतियों का आलोचक रहा है. बीते चार साल के अपने कार्यकाल में मोदी ने भारतीय मीडिया का एक बार भी सामना नहीं किया है क्योंकि शायद उन्हें लगता होगा कि वह गंभीर सवालों को सहजता से नहीं ले सकेंगे.

मोदी के कैबिनेट मंत्री भी मोदी का ही अनुसरण करते दिखते हैं. वे आलोचक मीडिया से बात नहीं करते. इस रोचक तथ्य को दरकिनार नहीं किया जा सकता, खासकर जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने न्यूयॉर्क टाइम्स के संपादकीय विभाग को दो साक्षात्कार दिए हैं. एक चुनाव नतीज़ों के तुरंत बाद और दूसरा उसके कुछ दिनों बाद. ट्रंप उदारवादी (लिबरल) मीडिया के खिलाफ जंग छेड़े हुए हैं और उनपर फ़ेक न्यूज़ प्रसार करने का आरोप मढ़ते रहे हैं.

मोदी और उनके सहयोगी मीडिया से आमना-सामना करने से बचते हैं. हालांकि उन्हें उदारवादी मीडिया पसंद नहीं है. वे उदारवादी मीडिया के लिए लुटियन्स मीडिया शब्द का उपयोग करते हैं. उनके अनुसार, लुटियन मीडिया वह मीडिया है जो पश्चिम से पढ़ा और नई दिल्ली और बाकी मेट्रो शहरों जैसे अपर मिडिल क्लास से संबद्ध है.

भाजपा, मोदी और उनके सहयोगियों की कोई गलती है कि वे आलोचक मीडिया को नापसंद करते हैं. इंदिरा गांधी का भी यही रवैया था. पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु, तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री एमजी रामचंद्रन और जयललिता और पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव का भी मीडिया के प्रति इसी तरह का रवैया था. राजनेता, खासकर जो सत्ता में रहते हैं, उन्हें वह मीडिया पसंद नहीं आता जो उनकी कथनी और करनी का हिसाब रखता है.

यह हालत सिर्फ भारत में नहीं है, यह दुनियाभर के नेताओं का आम लक्षण है. लेकिन ज्यादातर इस बात का डंका नहीं बजाएंगे कि वे मीडिया की स्वतंत्रता को लेकर प्रतिबद्ध हैं. इंदिरा गांधी से तुलना करते हुए यह सिर्फ मोदी गुट के नेता ही करते हैं. अपने विचारों को यथार्थ में उतारने के लिए उन्हें मीडिया द्वारा की गई आलोचना को स्वीकार करना सीखना चाहिए.

टीम मोदी के लोग यह दावा कर सकते हैं कि वे मीडिया के कठिन प्रश्नों का उत्तर देने को तैयार हैं, लेकिन मीडिया में एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो उनसे निष्पक्षता से सवाल पूछे. दुर्भाग्य और विरोधाभास दोनों कि वाकई यह समस्या है. बहुत सारे अखबार और न्यूज़ चैनल खुलकर सरकार का समर्थन करते हैं. अगर वे संयोग से सरकार के आलोचनात्मक पहलू को उजागर कर भी दें तो वह सिर्फ सरकार को चेताना चाहते हैं, वह अपने कुनबे को संभाले. मीडिया सरकार के साथ सहयोगात्मक भूमिका निभा रही है जिसे बड़े उत्साह से “निर्माणकारी आलोचना (कंस्ट्रक्टिव क्रिटिसिज्म)” कहा जाता है.

1975 के आपातकाल के दिनों से आज तक मीडिया की भूमिका काफी बदल गई है. कई अखबार जो इंदिरा गांधी की सरकार को लेकर आलोचनात्मक थे, वे आज वैसी ही भूमिका नहीं निभा रहे हैं. उसका एक कारण है. मीडिया जिसका संचालन बड़े निजी घरानों से होता है, वह इंदिरा गांधी के समाजवादी जुनून से सहज नहीं था.

लेकिन 1991 के बाद की आर्थिक नीतियों से मीडिया हर सरकार के बाजारोन्मुखी नीतियों की पक्षधर हो गई. कई स्तरों पर, प्राइवेट मीडिया और सरकार एक ही पक्ष लेते दिखते हैं- भारतीय मीडिया का बड़ा हिस्सा उदारवादी नहीं था, वह दक्षिणपंथी था.

इंदिरा गांधी के पतन के जो भी कारण रहे हों, वह भारतीय मीडिया के दक्षिणपंथी मिजाज को भाप चुकीं थीं. दूसरी ओर विचारधारा के स्तर पर भी भारतीय मीडिया से उनका संघर्ष था. बड़े “ज्यूट प्रेस” के बरक्स इंदिरा ने छोटे और मंझोले अखबारों के जरिये जनसमर्थन जुटाने का प्रयास किया.

भाजपा आज अपने आलोचक मीडिया को अभिजात्य और वामपंथी करार देती है. उन्हें लगता है कि वे भाजपा के खिलाफ विचारधारात्मक लड़ाई लड़ रहे हैं. मीडिया के प्रति व्यवहार और उनके प्रति सम्मान का आभाव, मोदी और उनके सहयोगियों को इंदिरा गांधी की राह पर ले आया है.

इंदिरा गांधी का मीडिया के साथ एक और बात पर टकराव था. जिस मीडिया का इंदिरा विरोध करती थी, उस मीडिया में इंदिरा के प्रति नफरत बसी थी. मीडिया का यही रवैया गांधी के बाद के कांग्रेसी नेताओं के प्रति भी रहा. इसमें राजीव गांधी, पीवी नरसिम्हा राव, सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह शामिल रहे. निष्पक्षता के सिद्धांत किनारे लगा दिए गए. हर छोटे-बड़े मुद्दों का निशाना उन्हें बनाया जाता रहा.

यह कहा जा सकता है कि किनारे लगा दिया गया उदारवादी मीडिया आज ऐसा ही व्यवहार कर रहा है. उनके भीतर मोदी, अमित शाह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और दक्षिण पंथ से जुड़े हर चीज़ के प्रति नफरत है. इससे मोदी और उनके सहयोगियों को यह मौका मिल जाता है कि वे यह कह सकें, हमें बेवजह निशाना बनाया जा रहा है.

मीडिया के स्वतंत्रता का सिद्धांत, पक्षधरता और तथ्यात्मकता की कमी को फ्री स्पीच पर हमले का कारण नहीं बनाया जा सकता. अगर आलोचनात्मक मीडिया के पास तथ्य नहीं है और वह सरकार के खिलाफ शोर मचा रहा है, ऐसे मीडिया घराने पाठकों व दर्शकों के बीच अपनी विश्वसनीयता खो देंगे.

हालांकि, मीडिया के संचालन के बारे में सरकार यह खुद से तय नहीं कर सकती- न प्रत्यक्ष, न अप्रत्यक्ष रूप से कि क्या सही है और क्या गलत है.

आपातकाल के पहले, दौरान और बाद में, दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो की भूमिका विवाद की बड़ी वजह बना है. सरकार इनका प्रयोग अपने पक्ष में प्रौपगैंडा के प्रसार के लिए कर रही है.

मजेदार है कि आज भी डीडी और एआईआर का उपयोग सरकारी प्रौपगैंडा के प्रसार के लिए ही हो रहा है. इसका उपयोग वे लोग कर रहे हैं जिन्होंने आपातकाल का विरोध किया था. जेटली और रविशंकर प्रसाद प्रसार भारती के बेजा इस्तेमाल से शर्मिंदा होंगे.

प्रसार भारती के चेयरमैन सूर्य प्रकाश आपातकाल और इंदिरा गांधी के तानाशाही रवैये के घोर आलोचक रहे हैं. उन्होंने इस बात के लिए वाह-वाही बटोरी है कि वे सिद्धांतों के संघर्ष में बैरिकेड की दूसरी तरफ थे. लेकिन आज, वह यह दावा नहीं कर सकते कि प्रसार भारती सरकार के हस्तक्षेप से आज़ाद है. वह ये दावा नहीं कर सकते कि डीडी और एआईआर की प्रतिबद्धता सरकार के प्रति न होकर जनता के प्रति है.

भाजपा नेता और प्रसाद जैसे आपातकाल का पुरजोर विरोध करने वाले नेताओं की यह जिम्मेदारी है कि वे साबित करें कि वे इंदिरा गांधी के रास्ते का अनुसरण नहीं कर रहे हैं. भाजपा नेता साबित करें कि वे इंदिरा की तरह मीडिया को लेकर असहिष्णु नहीं है. अबतक तो वे इस परीक्षा में फिसड्डी रहे हैं.