Newslaundry Hindi
प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में “अदृश्य पुलिस चौकी”
प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में एक परंपरा रही है कि वहां समाज में चल रहे तमाम तरह के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विचारों से संवाद किया जाता है. मीडिया को अभिव्यक्ति की आजादी के संगठित मंच के रुप में जाना जाता है. लेकिन जिस तरह से सुनने और बोलने की आजादी पर पाबंदी का प्रतिशत बढ़ता जा रहा है उससे प्रेस क्लब ऑफ इंडिया भी अछूता नहीं बचा हैं. क्लब के सदस्यों से क्लब में किसी स्थान की बुकिंग कराने के लिए आधार कार्ड या पहचान पत्र मांगा जाने लगा है.
क्लब के एक वरिष्ठ सदस्य प्रशांत टंडन ने बताया कि उन्होंने जब मॉब लिंचिग की एक घटना पर आधारित जांच दल की रिपोर्ट जारी करने के लिए क्लब में जगह की बुकिंग कराने का आवेदन दिया तो उनसे कहा गया कि कार्यक्रम के आयोजक संस्था की ओर से आधार कार्ड देना अनिवार्य है. एक सदस्य ने अपने नाम की चर्चा के बगैर यह सूचना दी कि उनसे भी आधार कार्ड की मांग की गई थी.
सदस्य जब क्लब में किसी कार्यक्रम के लिए अनुशंसा करते हैं तो उसकी सूचना पुलिस को देना अनिवार्य कर दिया गया है. उस सूचना के आधार पर पुलिस ये तय करती है कि वह किस कार्यक्रम के लिए अनुशंसा करने वाले क्लब के सदस्य को फोन करें और उनपर उन कार्यक्रमों को नहीं कराने के लिए दबाव बनाए जिन्हें वह राजनीतिक कारणों से अपना विरोधी मानती हैं. कई सदस्यों ने बताया कि क्लब में जगह की बुकिंग की अनुशंसा के बाद उनसे पुलिस ने पूछताछ की. वरिष्ठ सदस्य सुरेश नौटियाल ने बताया कि उन्होने अपने एक कार्यक्रम के लिए जगह बुक करायी तो कार्यक्रम से पहले क्लब प्रबंधन ने फोन कर उन्हें अध्यक्ष को कार्यक्रम रुपरेखा के बारे में स्पष्टीकरण देने के लिए कहा गया.
किसी भी संस्था के सदस्य व्यक्ति रुप में संस्था ही होते हैं और सदस्यों के समूह को ही संस्था माना जाता है. प्रेस क्लब ऑफ इंडिया रायसीना रोड की एक कोठी का ही नाम नहीं है बल्कि वह पत्रकारिता जगत का एक मंच हैं. इस मंच पर सदस्यों को यह अधिकार हासिल हैं कि वह तमाम तरह के विचारों और संस्कृति की अभिव्यक्ति के माध्य़म बनने वाले लोगों और संस्थाओं को सुनने और उनसे संवाद के लिए अपनी अनुशंसा दे सकते हैं.
संस्था के रुप में क्लब अपने सदस्यों के लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी के संवैधानिक अधिकारों के प्रति भरोसे को ताकत देता हैं. क्लब में धार्मिक संतों के कार्यक्रम से लेकर साम्प्रदायिक विचारों के पक्षधरों और नाच गाने वाले कार्यक्रम भी होते हैं. प्रेस क्लब की भौतिक जरुरतें पूरी करने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों से लेकर रक्षा मंत्रालय के बजट का सहयोग भी लिया जाता है. एक तरह से पूरे देश में चल रहे तमाम विचारों और अभिव्यक्तियों की यह खुली जगह मानी जाती रही है और किसी की पैठ नहीं हो इसके प्रति भी सतर्कता बरती जाती है. इसमें कार्यक्रमों के चरित्र और प्रवृति को लेकर उनमें छंटनी करने की कोई गुंजाइश नहीं रखी गई हैं.
प्रेस क्लब जैसी संस्थाएं इसीलिए देश की तमाम संस्थाओं से अलग विशेषता रखती है. और इसके मूल में सभी तरह के विचारों को सुनने और संवाद की स्थिति बनाए रखने के लिए आम सदस्यों को उसका माध्यम बने रहने का अधिकार हैं.
राजनीतिक स्थितियां हर स्तर पर लोकतंत्र के अधिकारों में कटौती की पक्षघर हैं. मीडिया पर तरह-तरह के हमलों के संदर्भ में भी इस खतरे को रेखांकित किया जाता हैं. उस खतरे का विस्तार ही प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के आम सदस्यों के अधिकारों में कटौती करने के लिए सरकारी स्तर पर दबाव बनाना है.
पिछले दिनों पत्रकार विश्व दीपक की खोज में प्रेस क्लब ऑफ इंडिया परिसर में महाराष्ट्र पुलिस के आने और पुलिस को बिना किसी रोकटोक के एक कार्यक्रम के लिए विश्व दीपक द्वारा की गई अनुशंसा संबंधी जानकारी क्लब के प्रबंधन द्वारा करा दी गई. प्रबंधन आम सदस्यों के अधिकारों से जुड़े किसी पहलू पर सदस्यों से संबंधित सूचनाएं कैसे तत्काल पुलिस को मुहैया कराने का अधिकार रखता है? और क्लब का प्रबंधन सदस्य को अलग थलग कर देने की “रणनीति” बना सकता है?
पिछले तीन चार वर्षों में प्रेस क्लब के भीतर पुलिस किसी न किसी बहाने अपनी घुसपैठ बनाने में लगी रही हैं और हालात यह बन चुके हैं कि क्लब के प्रबंधन ने सदस्यों के मौलिक अधिकारों के संदर्भ में कोई आम बैठक भी बुलाने की जरुरत महसूस नहीं की है. इसका अर्थ यह निकाला जा सकता है कि सदस्यों को प्रबंधन ने अपने मातहत मान लिया है और सदस्यों के बारे में यह भ्रम हो गया है कि उन्हें भी अपने बुनियादी अधिकारों के बारे में कोई चिंता नहीं रह गई हैं. लेकिन यह स्थिति केवल विभिन्न तरह के राजनीतिक-सामाजिक विचारों वाले कार्यक्रमों पर बंदिशें लगाने तक ही सीमित नहीं रह सकती है. इसका विस्तार इस रुप में भी हो सकता है कि क्लब में कब क्या खाया या पिया जा सकता है और क्या नहीं किया जा सकता है.
प्रेस क्लब के वरिष्ठ सदस्य अली जावेद ने भी एक कार्यक्रम के लिए क्लब की जगह तयशुदा फीस के आधार पर मुहैया कराने की अनुशंसा की थी लेकिन उनके खिलाफ अफवाहों को आरोप में पुलिस तो तब्दील नहीं कर सकी लेकिन प्रेस क्लब के प्रबंधन ने अति सक्रियता दिखाते हुए उनकी सदस्यता तत्काल प्रभाव से रद्द कर दी थी. प्रेस क्लब में जिन विचारों से जुड़े कार्यक्रमों को लेकर बंदिश के हालात बन रहे हैं उन विचारों को मानने वालों पर बाहर भी हमले हो रहे हैं. यह संयोग नहीं है कि अल्पसंख्यकों और दलितो से जुड़े कार्यक्रमों के लिए अनुशंसा करने वाले सदस्यों से जुड़ी सूचनाएं पुलिस को मुहैया कराई गई. इस तरह अंदर और बाहर का भेद खत्म होता दिखाई दे रहा है. प्रेस क्लब में जिस तरह की प्रवृतियों का विस्तार हो रहा है उसका अंदाजा लगाने के लिए इसे एक उदाहरण के रुप में लिया जा सकता है. क्लब की कार्यकारिणी के एक सदस्य ने यह प्रस्ताव रखने की कोशिश की कि क्लब के भीतर बाउंसर बहाल किए जा सकते हैं. दूसरा उदाहरण कार्यकारिणी की 4 जुलाई की बैठक का है जिसमें उन सदस्यों के ही खिलाफ कार्रवाई करने की जरुरत पर जोर दिया गया जो कि पत्रकार विश्व दीपक के बहाने क्लब के आम सदस्यों के अधिकारों पर होने वाले हमलों के खिलाफ क्लब के मौजूदा प्रबंधन से अपना रुख स्पष्ट करने की आपस में चर्चा की.
प्रेस क्लब तभी स्वतंत्र है जब वह वास्तव में अपनी लोकतांत्रिक परंपराओं को सुरक्षित रखने को लेकर तमाम तरह के विचारों के साथ संवाद करने की स्थिति बनाए रखने के प्रति संवेदनशील हो और हमले के इस दौर में आम सदस्यों को भी अपने अधिकारों के प्रति संवेदनशील दिखना होगा. एक संस्था के रुप में प्रेस क्लब ऑफ इंडिया यदि विविधताओं और भिन्नताओं से जुड़ी अभिव्यक्ति का मंच बने रहने की जिम्मेदारी से पीछे हटता है तो लोकतंत्र के भविष्य की कल्पना की जा सकती है.
Also Read
-
‘They find our faces disturbing’: Acid attack survivor’s 16-year quest for justice and a home
-
From J&K statehood to BHU polls: 699 Parliamentary assurances the government never delivered
-
Let Me Explain: How the Sangh mobilised Thiruparankundram unrest
-
TV Newsance 325 | Indigo delays, primetime 'dissent' and Vande Mataram marathon
-
The 2019 rule change that accelerated Indian aviation’s growth journey, helped fuel IndiGo’s supremacy