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अनिश्चित भविष्य की ओर पाकिस्तान

खूनी हमलों और खौफनाक साजिशों के साये में पाकिस्तान की राष्ट्रीय और प्रांतीय एसेंबलियों के चुनाव हो रहे हैं. पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और उनकी बेटी मरियम की गिरफ्तारी तथा बलूचिस्तान और खैबर-पख्तूनख्वा में आतंकी हमलों के दौर ने उन आशंकाओं को बहुत बढ़ा दिया है जिनका मानना है कि पाकिस्तानी राज्य-व्यवस्था के कुछ ताकतवर हिस्से चुनावी नतीजों को अपने हिसाब से प्रभावित करने पर आमादा हैं.

जब छह जुलाई को नेशनल एकाउंटिबिलिटी ब्यूरो ने नवाज शरीफ, उनकी बेटी और दामाद को सजा सुनायी थी, तो मरियम ने बयान दिया था कि ‘अनदेखी ताकतों के सामने मजबूती से खड़े होने की यह छोटी सजा है.’ मरियम की बात को नाराजगी में दिया गया बयान कह कर खारिज नहीं किया जा सकता है. पिछले साल नवाज शरीफ को देश की सबसे बड़ी अदालत ने पद से हटाया और अब इस फैसले ने उनकी उत्तराधिकारी माने जानेवाली बेटी के सियासी करियर का दरवाजा बंद कर दिया है. ब्यूरो के फैसले में कहा गया है कि सजा पूरी होने के दस साल बाद तक ये लोग न तो चुनाव लड़ सकेंगे और न ही कोई पद ले सकेंगे. नवाज शरीफ के भाई और पाकिस्तान के सबसे बड़े सूबे के तीन बार मुख्यमंत्री रह चुके शहबाज शरीफ पर भी ऐसे प्रतिबंध लगाये गये हैं. नवाज शरीफ के प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद उनकी पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री बने शाहिद खाकान अब्बासी को भी रावलपिंडी की एक ट्रिब्यूनल ने चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य करार दिया था और नेशनल एसेंबली के लिए उनके नामांकन को रद्द कर दिया था. लेकिन उन्हें फिलहाल लाहौर उच्च न्यायालय से राहत मिल गयी है. इन मामलों के अलावा विभिन्न पार्टियों के कुछ और उम्मीदवारों को रोका गया गया है. नवाज शरीफ की पार्टी के सैकड़ों कार्यकर्ता जेलों में हैं और पार्टी के प्रचार को भी सीमित करने की कवायदें हो रही हैं.

इतना ही नहीं, कुछ दूसरी पार्टियों के उम्मीदवारों और कार्यकर्ताओं की हत्या और उन पर हमलों ने भी इन आशंकाओं को बल दिया है कि चुनाव को प्रभावित करने की कोशिश की जा रही है. शनिवार को पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेता बिलावल भुट्टो को पेशावर में सुरक्षा के बहाने रैली करने से रोका गया है.

अब सवाल यह उठता है कि क्या ये आशंकाएं सही हैं? और सही हैं, तो वे कौन-सी ताकतें हैं जो चुनाव में सरकारी और अदालती जरियों से तथा आतंकी गिरोहों के इस्तेमाल से दखल दे रही हैं. इस संदर्भ में दो तथ्य काबिले-गौर हैं. पाकिस्तान के इतिहास में कोई भी प्रधानमंत्री पांच साल का अपना पूरा कार्यकाल पूरा नहीं कर सका है और अब तक सिर्फ दो बार हुआ है, जब सत्तारूढ़ पार्टी ने अपना कार्यकाल पूरा किया है. पाकिस्तानी पीपुल्स पार्टी के बाद पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज को जब चुनाव के बाद सत्ता का शांतिपूर्ण हस्तांतरण हुआ था, तो यह उम्मीद जगी थी कि अस्थिर राजनीतिक इतिहास से पाकिस्तान को छुटकारा मिल सकता है.

यह जगजाहिर तथ्य है कि पाकिस्तान पर सेना और नौकरशाही का राज हमेशा से रहा है जिनमें जमींदार और उद्योगपति सहायक भूमिकाओं में होते हैं. इस गठजोड़ ने लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता में आयीं सरकारों को हमेशा दबाने की कोशिश की है. इस कोशिश का एक नतीजा यह है कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और कश्मीर भयानक हिंसा के शिकार हैं. दूसरा नतीजा यह हुआ कि राजनीतिक पार्टियां भी अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए सेना और कट्टरपंथी गिरोहों के हाथों इस्तेमाल होते रही हैं. इस सिलसिले में जुल्फिकार अली भुट्टो से लेकर नवाज शरीफ, बेनजीर भुट्टो, आसिफ अली जरदारी और इमरान खान का नाम भी है. यह विडंबना ही है कि इमरान खान को छोड़कर ये नेता खुद उन ताकतों का शिकार भी बनते रहे हैं. इमरान ने अभी शुरूआत की है, तो शायद उनकी बारी भी देर से आयेगी. पाकिस्तान की अंदुरूनी राजनीति और उसकी विदेश नीति का एक मजबूत तार अमेरिका और सऊदी अरब से भी जुड़ता है. जब भी देश में कोई संकट आता है, तो इन दो देशों का नाम जरूर आता है.

बहरहाल, आते हैं मौजूदा चुनाव के हिसाब-किताब पर. नकारात्मक चुनावी हलचलों के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार पाकिस्तानी सेना को बताया जा रहा है. यह आरोप निराधार नहीं है. जब 1988 में जियाउल हक ने मार्शल लॉ हटाकर चुनाव कराने की घोषणा की थी, तब उनकी पूरी कोशिश थी कि बेनजीर भुट्टो को सत्ता न मिल सके. पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की संभावित जीत को टालने के लिए उन्होंने यह कानून भी बना दिया कि चुनाव दलगत आधार पर नहीं होंगे. पर चुनाव से पहले ही एक हवाई दुर्घटना में सैनिक तानाशाह की मौत हो गयी. पर अपने आका के इरादे को पूरा करने के लिए सेना की कुख्यात खुफिया एजेंसी आईएसआई ने एक पार्टी खड़ी कर दी थी और वह दूसरे स्थान पर रही थी.

जब मुशर्रफ ने सत्ता हथियाई थी, तो बेनजीर भुट्टो और नवाज शरीफ को देश के बाहर रहना पड़ा था. इस बार जेनरल मुशर्रफ को भी चुनाव से बाहर रखा गया है. परदे के पीछे के तत्व ऐसे खिलाड़ी पर दांव लगा रहे हैं, जो लोकतांत्रिक भी लगे, कट्टर भी हो और सेना की कठपुतली भी बना रहे. ऐसे में इमरान खान से अच्छी बाजी क्या हो सकती है!

नवाज शरीफ की गिरफ्तारी के बाद इमरान खान का बयान मानीखेज है. उन्होंने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से नवाज शरीफ की दोस्ती का हवाला देते हुए कहा है कि ये दोनों नेता पाकिस्तान में अशांति और सीमा पर तनाव का माहौल बनाकर अपना राजनीतिक स्वार्थ साधना चाहते हैं. खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीके-इंसाफ के कार्यकर्ता नवाज शरीफ को निशाना बनाकर एक नारा अक्सर लगाते हैं- “जो मोदी का यार है, गद्दार है, गद्दार है.”

एक दिलचस्प ताजी घटना यह भी है कि नेशनल एकाउंटिबिलिटी ब्यूरो की खैबर-पख्तूनख्वा इकाई ने इमरान खान को बीते चार साल में 39 दफे सरकारी हेलीकॉप्टर इस्तेमाल करने के आरोप में सफाई मांगी है. उस प्रांत में इमरान खान की पार्टी गठबंधन के साथ सरकार में है. इस प्रकरण को कई पर्यवेक्षक जनता की नजरों में ब्यूरो की छवि संतुलित बताने की कोशिश मान रहे हैं.

इमरान खान की तरह आईएसआई और अनेक कट्टरपंथी जमातें भी नवाज शरीफ को भारत के प्रति नरम मानती हैं. ऐसे आरोपों से नवाज शरीफ की पार्टी से वोट झटकने में मदद मिल सकती है. खान का प्रभाव खैबर-पख्तूनख्वा के अलावा पंजाब के कुछ हिस्सों में है. पंजाब नवाज शरीफ का गढ़ है और यहां नेशनल एसेंबली की सबसे ज्यादा सीटें भी हैं. सिंध में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी का वर्चस्व है और बाकी क्षेत्रों में वह कमजोर दिख रही है. ऐसे में मुकाबला तहरीके-इंसाफ और मुस्लिम लीग में है. बलूचिस्तान समेत हर प्रांत में इस्लामी और चरमपंथी पार्टियां भी मैदान में हैं जिनकी वजह से चुनावी समीकरण पर असर पड़ सकता है. इमरान खान इन पार्टियों को अपना संभावित सहयोगी मानते हैं. बलूचिस्तान की स्थापित पार्टियां चूंकि इमरान के एजेंडे से सहमत नहीं हो सकती हैं, इस कारण यह माना जा सकता है कि उन पर हो रहे आतंकी हमले सेना और इमरान को ही फायदा पहुंचायेंगे. इसी बीच असरदार इस्लामी मौलाना कादरी ने भी नवाज के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है.

बीते दिनों की गतिविधियां इंगित कर रही हैं कि अगले बारह दिन बहुत अशांत हो सकते हैं, लेकिन चुनाव के बाद चाहे जिसकी सरकार बने, पाकिस्तान के लिए संकट गहरे ही होंगे और इस स्थिति का बुरा असर भारत और अफगानिस्तान पर भी पड़ेगा. इस संदर्भ में पाकिस्तान के दो वरिष्ठ बौद्धिकों की राय बहुत अहम है. वैज्ञानिक और टिप्पणीकार परवेज हूडभॉय कहते हैं कि चुनाव आमतौर पर लोकतंत्र को मजबूत करते हैं, कमजोर नहीं, पर 25 जुलाई के बाद ऐसा ही होने जा रहा है, जब अपशकुनी अनिश्चितताएं बढ़ेंगी. वरिष्ठ पत्रकार इरफान हुसैन ने लिखा है- ऐसे हालात में कोई प्रधानमंत्री क्यों बनना चाहेगा!