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कास्टिंग: कॉन्टैक्ट, कंटेस्ट, काउच और कम्प्रोमाइज़

प्रसंग एक: 2015 में 20वीं सदी के मशहूर डायरेक्टर एआर कारदार के दफ्तर की कुछ पुरानी तस्वीरें अचानक से वायरल हुई थीं. सभी ने खूब चटखारे लेकर उसे ‘कास्टिंग काउच’ से जोड़ा था. सच्चाई यह थी कि कारदार 1951 में अपनी नयी फिल्म ‘दिल-ए-नादां’ के लिए दो लड़कियों का चुनाव कर रहे थे. इस फिल्म के लिए आखिरकार पीस कंवल और चांद उस्मानी को चुना गया था. लाइफ मैगज़ीन के फोटोग्राफर ने ये तस्वीरें कारदार साहेब के दफ्तर में उतारी थीं. मुमकिन है, उन दिनों किरदारों के मुआफिक कलाकारों के चुनाव के लिए ऑडिशन का यही तरीका अपनाया जाता हो. एआर कारदार लाहौर के एक्टर और फिल्मकार थे. जो निजी कारणों से विभाजन के पहले ही लाहौर से कोलकाता और फिर मुंबई आ गए थे.

प्रसंग दो: मधुर भंडारकर की फिल्म ‘पेज 3’ में महानगरों के पेज 3 कल्चर को एक्सपोज करने के लिए फिल्म और फैशन इंडस्ट्री के कुछ अंदरूनी सच्चाइयों वाले सीन रखे गए थे. एक खास सीन में अंग्रेजी की फिल्म जर्नलिस्ट माधवी (कोंकणा सेन) फिल्म स्टार रोहित (विक्रम सलूजा) से स्ट्रगलिंग एक्टर गायत्री (तारा शर्मा) को मिलवाती है और फिल्म में काम दिलवाने की सिफारिश करती है. रोहित उन्हें निर्देशक चारू मोहंथी के पास भेजता है. चारू जब गायत्री से मिलते हैं तो वे उसके शरीर को जहां-तहां छूते हैं. यह स्थापित किया गया है कि वे काम देने के एवज में शारीरिक सम्बन्ध बनाने की कोशिश करते हैं. इसे ही ‘कास्टिंग काउच’ कहा जाता है.

प्रसंग तीन: अंधेरी पश्चिम में स्थित रामगोपाल वर्मा का दफ्तर ‘फैक्ट्री’, ‘सत्या’ और ‘शूल’ की कामयाबी के बाद फिल्मों में एक मौके की तलाश में भटकते कलाकारों के लिए बड़ी उम्मीद बन गयी थी. यहां वर्मा के दफ्तर आने के समय कलाकारों की भीड़ और कतार लग जाती थी. सबकी आस रहती थी कि उनकी एक नज़र पड़ जाये. और कुछ नहीं तो तस्वीरें जमा करने का सिलसिला थमता ही नहीं था. कुछ कलाकारों पर उनकी नज़रें पड़ीं और कुछ उन तस्वीरों से चुने गए. कुछ सालों पहले तक महेश भट्ट नए कलाकारों का बड़ा आसरा थे. इन दिनों ऐसा कोई प्रोलिफिक डायरेक्टर नहीं है, जो हर फिल्म में नए चेहरे को मौका दे रहा हो.

प्रसंग चार, पांच… आये दिन नामालूम कलाकारों के हवाले से ख़बर आती रहती है कि कास्टिंग के बहाने उनसे छेड़छाड़ हुई. सभी मानते हैं कि दबे-ढके तौर पर ‘कास्टिंग काउच’ का सिलसिला दशकों स चला आ रहा है. केवल तरीके बदलते रहते हैं. पहले इसकी भनक तक नहीं लगती थी. अब तो चर्चित और स्थापित अभिनेत्रियां और अभिनेता हैशटैग ‘मीटू’ के प्रभाव में अपने बुरे अनुभव शेयर करने लगे हैं. फिल्मलॉन्ड्री के ही एक इंटरव्यू में रिचा चड्ढा ने बताया ही था कि कैसे एक कास्टिंग डायरेक्टर ने उन्हें सलाह दी थी कि जरा खुलो और घूमने-फिरने जाया करो.

इन किस्सों की वजह से यह धारणा बनती है कि फिल्म इंडस्ट्री में कास्टिंग के पीछे एक रहस्य है. इस रहस्य का एक सिरा लड़कियों के जिस्म से गुजरता है. लम्बे समय तक फिल्म इंडस्ट्री के पति और पिता अपनी बीवियों को और बेटियों को फिल्मों से दूर रखते थे. कपूर खानदान की तीसरी पीढ़ी की करिश्मा कपूर को मां बबिता का समर्थन मिला, लेकिन परिवार के पुरुष सदस्यों का विरोध झेलना पड़ा. संजय दत्त नहीं चाहते की उनकी बेटी त्रिशला फिल्मों में काम करे. वे अपने पुराने इंटरव्यू में बार-बार इस पर जोर देते रहे हैं. अब अगर उनके जीवन पर आधारित फिल्म ‘संजू’ में 350 लड़कियों के साथ सोने के उनके आत्मस्वीकार के दृश्य को याद करें तो बेशक उन 350 में कुछ अभिनेत्रियां भी रही होंगी.

अभी अमिताभ बच्चन और श्वेता बच्चन के एक विज्ञापन में साथ आने पर पर बिग बी के भावुक होने की खबरें छप रही हैं. क्या अभिनय करने की श्वेता की ख्वाहिश का जवानी में दम घोंटा गया था या अचानक उन्हें अभिनय का वायरस काट गया? जद्दन बाई, शोभना समर्थ और बबिता जैसी अभिनेत्रियों ने अपने परिवार और समाज से बगावत कर बेटियों को फिल्मों में आने के लिए प्रेरित किया. उन्हें सहयोग दिया. स्थितियां और धारणाएं बदली हैं. फिल्म इंडस्ट्री के भीतर और बाहर की सोच में बदलाव आया है. अब फिल्म बिरादरी से लेकर सामान्य परिवारों तक की बेटियां फिल्मों को करियर के तौर पर चुन रही हैं. फिल्मों में लड़कियों के लिए अभिनय के साथ दूसरे फील्ड भी खुल गए हैं.

हिंदी फिल्मों में कास्टिंग का तौर-तरीका बिलकुल बदल चुका है. अभी निर्माता-निर्देशक मुख्य कलाकारों के चुनाव में भी कास्टिंग डायरेक्टर की मदद ले रहे हैं. इन दिनों लोकप्रिय बड़े सितारों से ही कोई फिल्म प्रोजेक्ट आरम्भ होता है. उनके नामों का फैसला हो जाने के बाद बाकी जिम्मेदारी कास्टिंग डायरेक्टर को सौंप दी जाती है. पिछले 10 सालों में कास्टिंग डायरेक्टर का महत्व बढ़ा है. फिल्म इंडस्ट्री में एक सिस्टम विकसित हो चुका है. अब स्ट्रगलर की भीड़ निर्माता-निर्देशक के बजाय कास्टिंग डायरेक्टर के दफ्तर में लगने लगी है. ज्यादा कलाकारों को काम मिल रहा है. उन्हें पहले की तरह दर-दर की ठोकरें नहीं खानी पड़तीं. निराशा आज भी है, लेकिन उसकी मात्रा और शक्ल में फर्क आ गया है.

बीते दशकों में कास्टिंग

कॉन्टैक्ट– दादा साहेब फाल्के के ज़माने में फिल्मों के लिए कलाकार जुटा पाना मुश्किल काम था. उन्होंने कुछ के परिजनों को राजी किया और महिला किरदारों के लिए कुछ पुरुष साथियों को भी मनाया. उन दिनों ज्यादातर कलाकारों का चुनाव ‘कॉन्टैक्ट’ से ही होता था. दायरा छोटा था और फिल्मों में अभिनय करने के लिए उत्सुक कलाकारों की कमी थी. शक्ल-ओ-सूरत और कद-काठी के आधार पर ही उन्हें भूमिकाएं सौंपी जाती थीं. महिला कलाकारों का घोर अभाव था. कथित सभ्य परिवार की लड़कियां फिल्मों में नहीं जाती थीं.

उन दिनों के अखबारों और पत्रिकाओं में फिल्मी खबरों और पोस्टर में कलाकारों की पूरी शैक्षणिक डिग्री नाम के साथ छापी जाती थी. अभिनेत्रियों के बारे में बताया जाता था कि फलां अभिनेत्री पढ़े-लिखे और सुसंस्कृत परिवार की हैं. ज्यादातर अभिनेत्रियां पारसी, मुस्लिम और ईसाई परिवारों से ही आती थीं. निर्माता-निर्देशक तवायफों और स्टेज पर एक्टिव अभिनेत्रियों से संपर्क करते थे और उन्हें भाषा और अभिनय की ट्रेनिंग देकर फिल्मों के लिए तैयार करते थे.

सीमित संपर्क और कॉन्टैक्ट से ही आरंभिक हिंदी फिल्मों की कास्टिंग होती रही. हिंदी फिल्मों के पहले स्टारत्रयी दिलीप कुमार, राज कपूर और देव आनंद को फिल्मों में ऐसे ही कॉन्टैक्ट से काम मिला.

कंटेस्ट: आज़ादी के काफी समय बाद यह देखने को मिला कि शहरी नागरिकों के बीच फिल्में पहले जैसी वर्जित नहीं रह गईं. शहरी आबादी के इच्छुक युवक-युवती फिल्मों को करियर बनाने लगे. अब निर्माता-निर्देशकों के पास किसी भी फ़िल्म के लिए इतने अभ्यर्थी हो जाते थे कि उन्हें कई बार सही कलाकार के चुनाव के लिए ऑडिशन और कंटेस्ट के अवसर मिल जाते थे.

पांचवे-छठे दशक में यूनाइटेड प्रोड्यूसर्स जैसे समूह के सम्मिलित कंटेस्ट के आयोजन होते थे. पत्रिकाओं के प्लेटफार्म का भी इस्तेमाल होता था. इस प्रक्रिया से चुने गए कलाकारों को बेहतरीन बैनर मिल जाते थे. उनकी लॉन्चिंग अपेक्षाकृत बड़ी और चर्चित रहती थी. धर्मेंद्र और राजेश खन्ना जैसे दमदार कलाकार इसी प्रक्रिया से आये और फ़िल्म इंडस्ट्री में छा गए.

इस दौर में फ़िल्म इंडस्ट्री में देश के अन्य शहरों से कई कलाकर आये. कुछ बड़ी फिल्मों के मुख्य कलाकारों के चुनाव के लिए अखिल भारतीय कंटेस्ट भी रखे गए. निर्माता कॉन्टैक्ट के दायरे से निकलकर बाहरी और नई प्रतिभावों को मौके देने लगे थे. इसी के तुरंत बाद पुणे के एफटीआईआई से कलाकारों का एक जखीरा हिंदी फिल्मों में आया. थोड़े कलाकार एनएसडी से भी आये. इन संस्थानों में इनका एडमिशन कंटेस्ट और कॉम्पिटिशन के जरिये हुआ था. फिर अभिनय का विधिवत प्रशिक्षण पाकर यहां से निकले छात्र एक सधे कलाकार के रूप में फिल्मों में सफल पारी खेल सके.

काउच: ‘कास्टिंग काउच’ बहुत अधिक चर्चित शब्द युग्म है. इसका सीधा अर्थ होता है फिल्मों में काम या अवसर देने के बदले शारीरिक शोषण करना. फिल्मी और गैरफिल्मी परिवेश के लोगों के बीच आम धारणा है कि फ़िल्म इंडस्ट्री में काम पाने के लिए अधिकांश लड़कियों और अब तो लड़कों को भी ‘कास्टिंग काउच’ की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है.

पुरानी पत्रिकाओं की रिपोर्ट और एडिट आर्टिकल में भी इस बात के तमाम हवाले मिलते हैं कि निर्माता बने बाहरी पूंजीपतियों के एक ध्येय फिल्मी तारिकाओं के साथ ऐश करना होता था. किसी समय स्थिति इतनी बदतर हो गयी थी कि मुम्बई में एक अधिवेशन इसी बात पर हुआ कि क्या फिल्मों से लड़कियों को दूर नहीं रखा जा सकता? इस अतिवादी सोच पर अमल होना मुश्किल था. फिर भी ईमानदार निर्माता-निर्देशक इस मुसीबत और तोहमत से परेशान रहते हैं.

जब-तब कुछ किस्से और आरोप सुनाई पड़ते हैं. ऐसा भी बताया जाता है कि सीधे न सही, लेकिन अप्रत्यक्ष तरीके से लगभग सभी लड़कियों को इस लांछित प्रकिया का शिकार होना पड़ता है. फ़िल्म इंडस्ट्री के नामी और मशहूर चेहरे भी इस लांछन से बरी नहीं हैं. कई बार ऐसा हुआ है कि आरंभिक शोषण के बाद लड़कियां इतनी बड़ी और चर्चित होने के साथ लोकप्रिय हो गयी हैं कि सारे सच्चे किस्से अफवाहों की शक्ल में हवा हो गए.

फिल्मी गलियारे में ऐसे अनेक किस्से कहे और सुनाए जाते हैं. फ़िल्म पत्रिकाओं और अब तो दैनिक अखबारों के पन्नों के गॉसिप और ब्लाइंड कॉलम ऐसी सनसनी ख़बरों और कानाफूसियों से भरे होते हैं. कुछ महीनों पहले सरोज खान के विवादित जवाब में यह सच्चाई बेलाग तरीके से सामने आ गयी थी. किसी भी तरीके से इसे उचित नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन यह अनुचित सत्य दशकों से जारी है, रूप और स्वरूप बदल कर.

कम्प्रोमाईज़: यह एक अलग किस्म का कास्टिंग शोषण है. ऊपरी तौर पर यह मेल-मिलाप और सामाजिक व्यवहार के रूप में नज़र आता है. कई बार इसमें शारीरिक शोषण नहीं भी होता है, लेकिन पसंद और प्रिय बने रहने के लिए नजदीकी बनाये रखनी पड़ती है. समझौते करना पड़ता है.

दस साल पहले आज लगभग रिटायर हो चुकी दो अभिनेत्रियां जब शीर्ष पर आने के लिए संघर्ष कर रही थीं तो एक ने दूसरे के बारे में बताया था कि वह तो फलां डायरेक्टर के घर का किचन संभालती है और शॉपिंग के लिए विदेशी शहरों में साथ जाती है. कुछ अभिनेत्रियां और अभिनेता लोकप्रियता के पायदान पर चढ़ते समय मजबूरी में कम्प्रोमाइज़ करती/करते हैं.

ऐसी भी कुछ अभिनेत्रियां भी हैं, जिन्होंने मामूली कम्प्रोमाईज़ के बाद गैरमामूली कामयाबी पाई. उनके मशहूर होते ही इसे कुछ और नाम दे दिया जाता है. एक-दो बार ऐसा भी हुआ है कि कुछ ने पलट कर वार किया है. गंभीर आरोप लगाए हैं. सभी मामलों में ताकतवर की बात समझी और मानी जाती है.

इन दिनों कुछ वाचाल और समझदार अभिनेत्रियां कम्प्रोमाईज़ नहीं करने की वजह से मेनस्ट्रीम में नहीं आ पा रही हैं.

क्राउन: क्राउन कास्टिंग भी होती है. जैसे ‘धड़क’ में जान्हवी कपूर की हुई है. पहले आलिया भट्ट की हो चुकी है. इसमें लड़कियों और लड़कों को पहले से चुन लिया जाता है. सौंदर्य प्रतियोगिता या नामी परिवार की लड़कियों की क्राउन कास्टिंग होती है. स्टारसन की लॉन्चिंग भी इसी श्रेणी में आती है. इन दिनों मानुषी छिब्बर को लेकर चर्चा चल रही है. ऐसी क्राउन कास्टिंग फ़िल्म और बैनर के लिए लाभदायक होती है. लॉन्चिंग स्टार की स्वीकृति की ज़मीन पहले से तैयार रहती है.

कास्टिंग के रूप-स्वरूप में समय के साथ परिवर्तन आता रहा है, लेकिन सभी श्रेणियां किसी न किसी रूप में साथ चलती रहती हैं. अभी कास्टिंग डायरेक्टर की महत्ता बढ़ने से यह अधिक लोकतांत्रिक और पारदर्शी हुआ है. पर्दे पर दमदार कलाकारों की तादाद बढ़ी है. सहयोगी भूमिकाओं में नए कलाकारों को बेहतरीन मौके मिल रहे हैं. फिर भी केंद्रीय और लीड भूमिकाओं के कलाकारों के चुनाव में आज भी पुराने तौर-तरीके अपनाए जाते हैं. कहने के लिए तो यह भी कहा जाता है कि कास्टिंग और कामयाबी के लिए इस शोषण का हिस्सेदार बनती या बनते कलाकार स्वयं जिम्मेदार होते हैं.