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इमरान ख़ान की जीत में भारत के संदेश

पाकिस्तान में ऐसे वक़्त में चुनाव हुए हैं, जब देश के भीतर हालात और पड़ोसी देशों के साथ उसके रिश्ते बेहद ख़राब हैं. जैसा कि कई जानकारों ने आशंका जतायी थी कि चुनावी नतीज़े वहां बेहतरी के नहीं, बल्कि और अधिक गड़बड़ी के ही सबब बनेंगे. अफ़सोस है कि ऐसा ही होता दिख रहा है.

एक तरफ़ आगामी प्रधानमंत्री बनने वाले इमरान ख़ान और उनकी पार्टी पाकिस्तान तहरीके-इंसाफ़ का दावा है कि ये चुनाव पाकिस्तान की तारीख़ के सबसे साफ़-सुथरे चुनाव हैं, तो पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज़) और बिलावल भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी समेत कुछ अन्य सियासी जमातों ने बड़े पैमाने पर धांधली और धोखाधड़ी का इल्ज़ाम लगाया है.

चुनाव आयोग ने पहले दावा किया था कि वोटिंग ख़त्म होने के आठ घंटों के भीतर नतीजे ज़ाहिर कर दिये जायेंगे, लेकिन नतीजे आने में 48 घंटे लग गए. इसके पहले ही कल इमरान ख़ान ने अपनी जीत और प्रधानमंत्री बनने के बाद के एजेंडे का ऐलान कर दिया है.

रिपोर्टों की मानें, तो 2013 के चुनाव में 35 सीटें जीतने वाले इमरान ख़ान को इस बार 119 सीटें मिलती दिख रही हैं और कुछ छोटी पार्टियों के साथ उन्हें 137 की ज़रूरी तादाद तक पहुंचने में कतई मुश्किल नहीं होगी. अब यह शायद ही कभी साफ़ हो सकेगा कि इस जीत में सेना, न्यायिक तंत्र और नौकरशाही की कितनी भूमिका रही है या फिर चुनाव में हेर-फ़ेर किस हद तक हुई है, या फिर ये सब सिर्फ़ इमरान के मुख़ालिफ़ों का सियासी इल्ज़ाम भर है, ऐसे में कुछ अन्य बिंदुओं को टटोलना ठीक रहेगा जिनकी वज़ह से इमरान ख़ान को यह जीत नसीब हुई है.

धांधली के इतर जीत के अन्य फैक्टर

अभी पाकिस्तान न सिर्फ़ आतंक और फ़िरकापरस्ती से दो-चार है, बल्कि सामाजिक और आर्थिक मामले में भी वह संकट में है. चुनाव बाद अपने भाषण में इमरान ख़ान ने भी उन गंभीर मसायल के बारे में बात की है. बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, सरकारों की विफलता आदि जैसे मुद्दों ने लगातार ख़ान के अभियान को दम दिया है. इन मुद्दों पर वे बड़े आंदोलन भी कर चुके हैं.

पनामा पेपर्स में नवाज़ शरीफ़ और उनके परिवार के लोगों का नाम आने तथा सज़ा होने के बाद पाकिस्तान तहरीके-इंसाफ़ की राह में रोड़े बहुत कम हो गये थे. उधर भुट्टो की पीपुल्स पार्टी का पूरा ज़ोर सिंध प्रांत में अपनी सरकार बचाने पर था और वह नेशनल असेंबली की दौड़ में नहीं थी.

इस्लामी पार्टियों के एक समूह और चरमपंथी जमातों के एक समूह ने अपने अभियान से नवाज़ शरीफ़ और भुट्टो को ही कमज़ोर किया. यहां यह कहना ज़रूरी है कि भारत में जो लोग इस्लामी और चरमपंथी गुटों की हार से संतोष जता रहे हैं, उन्हें जान लेना चाहिए कि ऐसे तत्व वहां की राजनीति में हमेशा से किनारे ही रहे हैं और इस बार कुछ नया नहीं हुआ है. उन जमातों का काम पाकिस्तान की ‘डीप स्टेट’ यानी सेना, ज़मींदारों और मौलानाओं को आड़े-सीधे मदद करने का रहा है. उनका इरादा सत्ता हथियाना नहीं है.

इमरान ख़ान को अन्य पार्टियों के ज़रिये सियासत में जमे बड़े रसूख़दार नेताओं का साथ भी मिला, जो पिछले कुछ समय से धीरे-धीरे ख़ान की जमात में शामिल हो रहे थे. इनमें से अनेक बेनज़ीर भुट्टो, यूसुफ़ रज़ा गिलानी और नवाज़ शरीफ़ की सरकारों में बड़े मंत्री रह चुके हैं.

अमेरिका और अमेरिकी सेना के ड्रोन हमलों का जमकर विरोध के साथ इमरान ख़ान की पार्टी ने अहमदिया जैसे अल्पसंख्यक इस्लामी तबकों के ख़िलाफ़ कट्टरपंथियों के हमलावर होने को भी शह दिया. इसका सबसे अधिक फ़ायदा उन्हें ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा में मिला.

पंजाब में इमरान ख़ान को नवाज़ शरीफ़ के बराबर सीटें मिलती दिख रही हैं. इसका मतलब है कि मुस्लिम लीग विरोधी पूरा वोट एकमुश्त तहरीके-इंसाफ़ को मिला है क्योंकि बाक़ी जमातें वहां सिफ़र हो गयी हैं.

कराची से चुनाव जीतने के बाद भी सिंध में पीपुल्स पार्टी जीती है और यह इस बात का सबूत है कि इमरान ख़ान या उनके एजेंडे के लिए कोई लहर नहीं थी. हां, बड़े पैमाने पर युवाओं का मत उन्हें हर जगह मिला है क्योंकि पाकिस्तान की बुरी दशा का यह सबसे बड़ा भुक्तभोगी भी है और उत्पात मचाना इसी तबके का काम है.

यदि मान भी लिया जाय कि इमरान ख़ान अपने एजेंडे को लेकर गंभीर हैं और उन्हें जनादेश भी इसी आधार पर मिला है, तो फिर इस तथ्य को कैसे समझा जाये कि उनकी सरकार के अहम ओहदे वे ही लोग संभालेंगे, जो बरसों से पाकिस्तान की सियासत में जमे हुए हैं. हो सकता है कि इनमें से सभी या बहुतों पर भ्रष्टाचार के बड़े आरोप नहीं हैं, तो भी क्या पाकिस्तान की राज्य व्यवस्था के असरदार हिस्से- सेना, ज़मींदार, कबायली और फ़िरकों के नेता आदि- इमरान ख़ान और उनकी टीम को सत्ता की पिच पर अपने हिसाब से खेलने देंगे?

सबसे बड़ी चुनौती तो यह है कि विरोधी दलों के चुनाव पर सवाल उठाने और आंदोलन करने पर सरकार का रवैया क्या होगा. पाकिस्तानी समाज बिखरा हुआ है और इन नतीज़ों से यह बिखराव बढ़ेगा ही.

अपने संबोधन में पड़ोसी मुल्कों और अमेरिका आदि से रिश्तों पर भी इमरान ने कई बातें कही हैं, लेकिन उनमें कोई भी बात ऐसी नहीं है, जो उनके पहले के नेताओं ने नहीं कही है. लेकिन इस हिस्से को रेखांकित करना ज़रूरी है. उन्होंने अपने प्रचार के दौरान और इस भाषण में अफ़ग़ानिस्तान में अमन-चैन की बात लगातार कही है. इसके साथ चीन के साथ गाढ़ी दोस्ती करने और अमेरिका के साथ संतुलित संबंध पर ज़ोर दिया है.

अफ़ग़ानिस्तान में अभी दो बातें ख़ास हो रही हैं. रूस और चीन के साथ भारत के हितों का दायरा बढ़ रहा है तथा तालिबान के जल्दी ही गठबंधन सरकार में शामिल होने की संभावना बढ़ रही है. अमेरिका वहां पाकिस्तान और भारत के साथ ही अपना दख़ल बनाये रखने की कोशिश में है, पर चीन के साथ भारत और पाकिस्तान के गहराते रिश्ते उसका समीकरण प्रभावित कर रहे हैं.

भारतीय प्रधानमंत्री और चीनी राष्ट्रपति बीते चार महीनों में तीन बार मिल चुके हैं. अमेरिका को निश्चित ही इससे दिक्कत है, तो उसने डोकलम का क़िस्सा छेड़ दिया है. ऐसे में अफ़ग़ानिस्तान में भारत और पाकिस्तान के सहयोग के मौक़े ज़रूर हैं तथा भारत को इस पर गंभीरता से सोचना चाहिए.

तालिबान का सत्ता में आना समूचे दक्षिण एशिया में अमन के लिए बेहतर होगा. दोनों मुल्कों के व्यापारिक रिश्ते ठीक-ठाक हैं, पर उनमें अपार संभावनाएं हैं. अगर मोदी और ख़ान इस पहलू पर थोड़ा भी ध्यान देते हैं, तो दोनों का भला होगा.

इमरान ख़ान का आरोप रहा है कि मोदी और नवाज़ शरीफ़ अपने सियासी फ़ायदे के लिए पाकिस्तान में उथल-पुथल को बढ़ावा दे रहे हैं. भारत में भी कुछ लोगों का मानना है कि 2019 में चुनावी लाभ के लिए मोदी सरकार पाकिस्तान से रार ठान सकती है. इस संबंध में यह तो सबको पता है कि सरकारें और सेनाएं तथा ख़ुफ़िया एजेंसियां ऐसे बहुत-से क़दम उठाती हैं, जो राष्ट्रीय हित की आड़ में स्वार्थ-सिद्ध करने की क़वायद ही होती है.

सीमित झड़पें

अभी ऐसा नहीं लगता है कि दोनों देशों के बीच कोई युद्ध या करगिल जैसी बड़ी झड़प हो सकती है. हालांकि पिछले दो सालों से दोनों देशों की सीमा और नियंत्रण रेखा पर भयानक तनातनी है. दो साल से औपचारिक बातचीत बंद है. अक्सर तल्ख़ मौखिक मिसाइलें भी एक-दूसरे पर छोड़ी जाती हैं. सैनिकों और नागरिकों के हताहत होने की तादाद भी ख़ासी बड़ी है. ऐसे में और क्या तनाव हो जायेगा?

इसमें एक पहलू यह भी है कि दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के बीच में संपर्क बना हुआ है. कहा तो यह भी जाता है कि दोनों देशों की ख़ुफ़िया एजेंसियों के मुखिया भी बात करते रहते हैं. कुछ समय पहले चीन ने भी कहा था कि भारत और पाकिस्तान के साथ चीन को भी बैठना चाहिए तथा कश्मीर समेत विभिन्न मुद्दों पर बात करनी चाहिए. इस माहौल में यह अनुमान लगाया जा सकता है कि लोकसभा चुनाव से पहले दोनों देशों के नेताओं की शिखर बैठक होगी.

पाकिस्तान के सबसे नज़दीकी देश सउदी अरब में भी बदलाव की बयार है. शहज़ादा मोहम्मद बिन सलमान कतई यह नहीं चाहेंगे कि पाकिस्तान भारत के साथ युद्ध या झड़प करे. इसमें एक आयाम यह भी है कि मोदी और ख़ान नतीज़ों से ज़्यादा नज़ारा बनाना पसंद करते हैं क्योंकि ये दोनों सियासी शो-मैन हैं. शिखर बैठक इनके करियर का एक हाई प्वाइंट हो सकता है.

इस हिसाब में गड़बड़ तभी होगी, जब इमरान ख़ान और सेना पाकिस्तान की अंदुरूनी सियासत की हलचल को थामने में कामयाब नहीं हो पाते हैं. बीते दिनों में पाकिस्तान में एक नारे के साथ सेना के सीधे दखल की खुलकर चर्चा हुई- ‘ये जो दहशतगर्दी है, इसके पीछे वर्दी है’.

विरोधी दल यदि आंदोलन का रास्ता अख़्तियार करते हैं, तो इसका दबाव सेना के साथ अदालत पर भी होगा. ऐसे में सरकार और सेना समेत सभी ऊंचे इदारों का इम्तिहान भी होना है. रही बात इमरान ख़ान के बड़े-बड़े वादों की, तो क्या ऐसा ही कुछ हमने यहां भारत में 2014 में नहीं सुना था! इस माहौल में सबसे बड़ी चिंता यह है कि पाकिस्तान के सामने एक बड़ा उथल-पुथल खड़ा हो सकता है. अफ़सोस! ऐसा बहुत जल्दी होता दिख रहा है.