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2019 की देहरी पर खड़े देश में मायावती इतनी चर्चा में क्यों हैं?
बीते दिनों भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता संबित पात्रा ने एक दस सेकंड का वीडियो ट्वीट किया. इस वीडियो में बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्षा मायावती ये कहते हुए, बल्कि पढ़ते हुए दिख रही हैं कि-वर्तमान हालात में अपने देश में मज़बूत नहीं बल्कि एक मजबूर सरकार की ज़रुरत है. पात्रा ने लिखा कि निजी हित को देशहित से ऊपर रखा जा रहा हैं.
ये बात उसी दिन की हैं जब मायावती ने लखनऊ में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की और भाजपा को देश में हो रही मॉब लिंचिंग के लिए आड़े हाथों लिया, जम कर भाजपा पर बरसी. गोरक्षा के नाम पर घेरकर मार देने की घटनाओं पर, भाजपा के मंत्री द्वारा मॉब लिंचिंग के अभियुक्तों को माला पहनाने पर निशाना साधा.
मायावती ने उस दिन बसपा के संस्थापक कांशीराम को याद किया. उसी दौरान उन्होंने कहा कि वर्तमान हालात में देश को मज़बूत नहीं बल्कि मजबूर सरकार की ज़रुरत हैं जो कि कांशीराम का जुमला था. वैसे कांशीराम और भी कई बात कहते थे मसलन देश में जल्दी-जल्दी चुनाव होने चाहिए, उत्तर प्रदेश हमारे लिए पोलिटिकल लेबोरेटरी की तरह हैं आदि.
बसपा अपने गठन के बाद से ही लगातार प्रासंगिक होती चली गयी. अब जबकि बसपा के लोकसभा में एक भी सांसद नहीं हैं, मायावती खुद राज्यसभा से इस्तीफ़ा दे चुकी हैं, उत्तर प्रदेश में भी ये तीसरे नंबर की पार्टी हैं और 2017 के विधानसभा चुनाव में उनको करारी हार मिली है. फिर भी बसपा और मायावती की पूछ एकदम से बढ़ गयी है. वो भी तब जब कोई एक पार्टी अकेले देश भर में भाजपा का मुकाबला नहीं कर सकती. केंद्र से लेकर ज़्यादातर राज्यों में इसकी सरकार है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के रूप में भाजपा के पास एक मज़बूत नेता है.
मायावती सबकी निगाह में हैं- सत्ताधारी दल उनके ऊपर किसी तरह के सीधे हमले से बच रहा है और विपक्ष उनको आगे-आगे कर रहा है. ये सब जानते हैं कि मायावती कब अपना निर्णय बदल दें, किसी को नहीं मालूम. आज भी वो वैसी ही हैं. अपने बंगले के अंदर अगर कहीं एक भी धब्बा दिख गया तो पूरे स्टाफ को डांट पड़नी तय है. मायावती व्यवस्थित तरीके से रहने की इतनी आदी हैं कि कमरे के भीतर अगर टीवी और एसी के रिमोट भी यथास्थान करीने से नहीं रखा है तो जिम्मेदार लोगों को डांट पड़ती है. एक हारी हुई, संख्या बल के लिहाज से शून्य हो चुकी लीडर की इतनी अहमियत, आखिर क्यों?
क्यों मायावती की ज़रुरत हैं
इस समय देश की राजनीति भाजपा या यूं कहिये नरेन्द्र मोदी बनाम सारा विपक्ष हो चुका है. विपक्षी दल कांग्रेस को भी ये बात समझ आ चुकी है कि भाजपा का दोबारा जीतना उसके लिए बहुत नुकसानदेह सिद्ध होगा. कुल मिलाकर सबका एक लक्ष्य है- भाजपा और मोदी को दोबारा सत्ता पाने से रोकना. और इस मिशन के लिए मायावती सबसे मुफीद हैं.
पहली बात, मायावती दलित हैं और महिला भी हैं. आज तक कोई दलित प्रधानमंत्री नहीं बना है. इस कुर्सी के सबसे करीब अब तक बाबू जगजीवन राम ही एक बार पहुंचे थे पर चूक गए. एक बार 2009 में बसपा अपने तरीके से मायावती को पीएम के लिए प्रोजेक्ट कर चुकी है. दिल्ली में चुनाव से पहले उन्होंने बहुत भागदौड़ की थी, तब मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री भी थी, लेकिन सारी कवायद बेकार गयी क्योंकि उन्होंने जैसा सोचा था कि त्रिशंकु लोकसभा आएगी और सब मायावती को पीएम बना देंगे, ऐसा कुछ नहीं हुआ.
इस बार सबसे बड़ी बात ये हुई है कि कांग्रेस कम से कम हिंदी पट्टी में मृतप्राय हो चुकी है. जीतना तो दूर उसके पास अब सारी लोकसभा सीटों पर लड़ने के लिए ढंग के उम्मीदवार भी नहीं हैं. क्षेत्रीय दल अब चढ़ कर बात कर रहे हैं.
भाजपा शासन में ये हुआ है कि पूरे देश में दलित कम से कम इकठ्ठा होने लगे है. जिग्नेश मेवानी का गुजरात में विधायक बनना, सहारनपुर में रावण की भीम आर्मी का उदय, कर्नाटक में बसपा का पहली बार मंत्री बनना, उत्तर प्रदेश में तीन उपचुनावों में बसपा के समर्थन से सपा और रालोद का जीतना- ये सब राजनितिक उदहारण हैं.
दूसरी तरफ तमाम सामाजिक उदाहरण भी सामने आ रहे हैं. जैसे हाथरस के संजय का जिद करके अपनी बारात में घोड़ी पर चढ़कर जाना. दलित युवाओं द्वारा सोशल मीडिया पर दलित अस्मिता पर जोर देना, मूंछों पर ताव देते हुए फोटो डालना, द ग्रेट चमार के बोर्ड लगाना, अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के पक्ष में पूरे दश में आन्दोलन करना शामिल हैं. वरिष्ठ लेखक अनिल यादव के अनुसार ये समय कमंडल के आगे मंडल के अड़ने का है.
इस समय दलितों के बदलते स्वरुप के सामने मायावती ही अकेली ऐसी राजनेता हैं जिसको देश में दलितों का समर्थन प्राप्त है. दलितों की आबादी भी कमोबेश पूरे देश में 20 फ़ीसदी से ज्यादा ही हैं. ऐसे में दलित कार्ड के रूप में मायावती सबसे फिट हैं. मायावती कोई राहुल गांधी नहीं हैं कि उनका मजाक बनाया जा सके. इस बार दलित पीएम का भी नारा चल जाय तो आश्चर्य नहीं. उन पर कोई डायरेक्ट हमला करना मतलब दलित विरोधी खांचे में आ जाना होगा. इसके अलावा मायावती महिला हैं तो महिला विरोधी होने का अपयश भी लगेगा.
एक ज़रूरी बात ये भी हैं कि मायावती उत्तर प्रदेश से आती हैं जहां पर सबसे ज्यादा लोकसभा की 80 सीटें हैं. ऐसे में उनके ज्यादा सीटें जीतने की संभावनाएं भी बढ़ जाती हैं. उत्तर प्रदेश के बाहर, हरियाणा में उनका गठबंधन इंडियन नेशनल लोकदल से हो चुका है, कर्नाटक में वो सरकार की भागीदार हैं, मध्यप्रदेश, राजस्थान में उन्होंने गठबंधन के विकल्प खुले रखे हैं. मतलब कोई और क्षेत्रीय दल इतने ज्यादा राज्यों में गठबंधन करने की सोच भी नहीं सकता. जो क्षेत्रीय दल कांग्रेस को नहीं पसंद करते हैं उनके लिए मायावती के झंडे तले आना आसान है.
हर क्षेत्रीय दल के पीछे उसके राज्य में ही दूसरे क्षेत्रीय नेता लगे रहते हैं. लेकिन मायावती के आगे उत्तर प्रदेश में इस समय सारे नेता नतमस्तक हैं. सबसे धुरंधर विरोधी समाजवादी पार्टी उनकी सहयोगी बन गयी है. नतीजा तीन उपचुनाव में भाजपा की हार के रूप में सामने आया है. एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी के अनुसार उत्तर प्रदेश में सपा जैसी पार्टी होनी चाहिए और बसपा जैसी नेता. हालात वैसे ही बन गए हैं-‘बुआ का देश, भतीजे का प्रदेश’. ये नारा चल रहा है. मायावती अब अपनी बात मनवाने की स्थिति में हैं. अखिलेश यादव भी मान चुके हैं कि वो उनसे सीखने को तैयार हैं. पहली बार सपा प्रमुख के रूप में अखिलेश, मायावती के घर भी पहुंचे थे.
सबसे महत्वपूर्ण बात ये हैं कि मायावती अपनी पार्टी में निर्विरोध, निर्विवाद नेता हैं. हर फैसला उनको करना है. उनके फैसले को कोई चुनौती नहीं. वहीं अखिलेश के हर फैसले पहले परिवार की कसौटी पर ही कसे जाते हैं. मायावती जिसे चाहे रखे, जिसे चाहे निकल दें, कोई सवाल नहीं, कोई सुनवाई नहीं. इतनी फ्रीडम और अख्तियार तो राहुल को भी शायद न हो अपनी पार्टी में.
छवि के रूप में मायावती एक कुशल और सख्त प्रशासक के रूप में अपने को साबित कर चुकी हैं. तुरंत फैसले, अधिकारियों पर कार्यवाही, लखनऊ में स्मारक बनवाना यह सब अब उनके समर्थक याद कर रहे हैं. उनसे दूर हुए लोगों (जिसमें निकाले गए लोग शामिल हैं) का यही आरोप है कि वो पैसा लेती हैं, अब ज्यादा गले नहीं उतरता और घिसा-पिटा आरोप लगता है.
परिपक्व होती मायावती
पहले जहां मायावती के फैसलों में जल्दबाजी, बेसब्री दिखती थी अब वैसा नहीं है. शैली काफी हद तक पुरानी ही है लेकिन अब वो एक मंझे हुए राजनेता की तरह व्यवहार करती हैं. अभी भी बात वही है कि उनसे मिलना मुश्किल, उनके बारे में ऑनरिकॉर्ड किसी का कुछ कहना मुश्किल है. बसपा के नेता भी अगर कुछ बोलते हैं तो वो तारीफ ही होती है.
वो परिपक्व हो गयी हैं इसका सबसे बढ़िया उदहारण है अभी पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में संपन्न हुए राज्यसभा चुनाव में जिसमें मायावती का कैंडिडेट भीमराव आंबेडकर हार गया. उनके विरोधी ख़ुशी मनाने लगे कि अब सपा-बसपा गठबंधन ख़त्म लेकिन मायावती डटी रही और कोई जल्दबाजी का फैसला नहीं लिया और अखिलेश यादव ने तुरंत एलान किया कि सपा अब बसपा के उम्मीदवार को एमएलसी बनाएगी.
इधर उनके कई कदमों ने दिखाया कि मायावती अब पुरानी वाली नहीं हैं. जब पूर्व मुख्यमंत्रियों के बंगले खाली कराए जाने की कवायद शुरू हुई तो मायावती ने सबसे पहले किया और मीडिया के सामने सब कुछ दिखा दिया. उसके उलट अखिलेश यादव आज तक टोटी, बल्ब उखाड़ने का जवाब दे रहे हैं. राज्यसभा के चुनाव में मायावती का कैंडिडेट भले हार गया लेकिन उन्होंने अखिलेश को सलाह दे दी जिसकी परिणति अखिलेश ने राजा भैय्या के साथ अपने ट्वीट को डिलीट करके की.
मायावती जानती हैं और जितना खुल कर वो मुसलमानों के लिए बोल रही हैं उतना शायद मुसलमानों का हमदर्द होने का दम भरने वाली समाजवादी पार्टी भी नहीं. गोरखपुर के डॉ. कफील का मामला हो, जामिया मिल्लिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक स्वरूप और वहां दलितों के आरक्षण का मामला हो, मायावती खुल कर बोली कि इन संस्थानों को छीनना मुसलमानों को यतीम करने जैसा होगा. मॉब लिंचिंग के मामले या गोरक्षकों द्वारा हमले हो, मायावती मुखर रहीं.
मायावती अभी भी कोई फैसला लेने से डरती नहीं. 2014 के लोकसभा चुनाव में सब कुछ हारने के बाद जहां तमाम नेता अपनी राजनीतिक पारी का अंत मान लेते वहीं मायावती ने नयी शुरुआत की है. तेवर वही हैं जैसे एक झटके में उन्होंने अपने पार्टी के नेता को इसीलिए निकाल दिया क्योंकि उसने राहुल गांधी पर गैरवाजिब टिप्पणी कर दी थी. पैटर्न कुछ कांशीराम वाला अभी बाकी है जैसा वो कहते थे कि हमारा वोटर अखबार और टीवी नहीं पढ़ता, देखता हैं. मायावती ने भी साफ़ कह दिया कि बसपा का कोई ऑफिसियल फेसबुक और ट्विटर अकाउंट नहीं हैं. अब क्यों नहीं है ये कौन पूछ सकता है.
फिलहाल मायावती सबसे बड़ी दलित नेता के रूप में देश में स्थापित हैं. भाजपा और एंटी मोदी कैंप दोनों की नज़रें मायावती पर ही हैं. 2019 का चेहरा बहुत कुछ मायावती के रुख से भी तय होगा.
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