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जितना विवादित आजादी की तारीख का फ़ैसला है उतना ही विवादित अंग्रेजों का जल्द भारत से जाना भी है

इतिहास में ऐसे विरोधाभास कम हुए हैं जब किसी मुल्क ने जीत के बाद अपनी सीमाओं को समेटा हो. और जब कोई देश विश्वयुद्ध जीतने के बाद ऐसा करे, तो हैरानी होती है. इस बात को भारत की आज़ादी के परिप्रेक्ष्य में देखिये तो कुछ और ही नज़र आता है. आख़िर दूसरे विश्वयुद्ध में ब्रिटेन जीता था, युद्ध की वजह से हुए आर्थिक नुकसान की भरपाई करने के लिए उसे भारत सरीखे मुल्क की सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी. वहीं, भारत में राजनैतिक आंदोलनों का दौर लगभग ख़त्म हो चुका था. मानिए न मानिए, गांधी कांग्रेस में ही अपनी धार खो बैठे थे. कांग्रेस की फर्स्ट लाइन ऑफ़ लीडरशिप उम्रदराज़ हो चुकी थी.

आरसी मजुमदार की, ‘हिस्ट्री ऑफ़ द फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिया’ में ज़िक्र है कि विभाजन की बात पर नेहरू ने क़बूल किया था कि उनकी पीढ़ी के नेता बूढ़े हो गए थे और जेल जा-जाकर थक गए थे. ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन के बाद कोई भी बड़ा आंदोलन कांग्रेस ने खड़ा नहीं किया था. उधर, जिन्ना की ख्वाहिश थी कि अंग्रेज़ कुछ साल और भारत में टिके रहें. दूसरी तरफ़ हिन्दू-मुस्लिम दंगे देश को अस्थिर बनाये हुए थे. बावजूद इसके, अंग्रेज़ भारत छोड़ गए.

फ़ौरी तौर पर देखा जाये तो इंग्लैंड के लिए इससे बेहतर वक़्त नहीं था. पर इंडियन नेशनल कांग्रेस, अन्य पार्टियों और क्रांतिकारियों ने राष्ट्रीयता की जो अलख जगाई थी वो अंग्रेजों को झुलसा रही थी. फिर जंग के बाद अमेरिका और सोवियत रूस के उभार से इंग्लैंड की वैश्विक कद में आए बदलाव, भारत में सेनाओं के बीच बढ़ती हुई बैचनी, भारतीय मूल के आईसीएस अधिकारियों की खुल्लम-खुल्ला नाफ़रमानी, अंग्रेज़ अधिकारियों की घर वापसी की चाह और इंग्लैंड में समाजवादी विचारधारा की लेबर पार्टी की सरकार बनने के साथ ही भारत की आज़ादी लगभग सुनिश्चित हो गई. बस जो बात रह गयी थी वो था दिन, महीना और साल तय करने का. इस बात के पीछे भी बड़ा दिलचस्प इतिहास है. आइये, इस पर नज़र डालते हैं.

क़िताब ‘माउंटबेटन एंड पार्टीशन ऑफ़ इंडिया’ में लैरी कॉलिंस और डोमनिक लैपिएर को दिए इंटरव्यू में माउंटबेटन ने कहा था कि जब क्लेमेंट एटली ने उनसे हिंदुस्तान का आख़िरी गवर्नर जनरल बनने की पेशकश की तो उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि एटली तारीख निश्चित करें कि कब तक उन्हें वहां रहना होगा. एटली ने उन्हें 1948 की गर्मियों तक रहने की बात कही. माउंटबेटन कहते हैं कि उन्होंने कहा कि ये काफ़ी नहीं है. दिन और महीना भी तय होने के बाद ही वो हिन्दुस्तान जायेंगे.

24 मार्च, 1947 को कुछ ताकीदें, हिदायतें और शर्तों के साथ लार्ड माउंटबेटन एक तारीख भी लाये थे, जिस दिन इस मुल्क को आज़ाद होना था. ‘इंडियास स्ट्रगल फ़ॉर इंडिपेंडेंस’ में बिपिन चन्द्रा लिखते हैं कि भारत में जो अंतरिम सरकार उस वक़्त काम कर रही थी उसमें कांग्रेस और मुस्लिम लीग के सदस्यों के टकराव ने संवैधानिक संकट खड़ा कर दिया था. एटली ने सोचा कि तारीख की घोषणा होते ही दोनों पार्टियों के सदस्य मतभेद भुलाकर इस संकट को टालने में सहायक बनेंगे.

लैरी कॉलिंस और डोमनिक लैपिएर ने अगली क़िताब, ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ में माउंटबेटन के दावे पर सवाल खड़े किये हैं. इनके मुताबिक़ आज़ादी की तारीख निश्चित करने का फ़ैसला लार्ड वावेल का था. उन्होंने 31 मार्च, 1948 का दिन सुझाया था. एटली 1948 के मध्य में भारत छोड़ना चाह रहे थे, पर माउंटबेटन ने 30 जून, 1948 को पॉवर ट्रांसफर की बात सुझाई थी. इसे लेबर गवर्मेंट ने अंततः मान लिया. पर 3 जून, 1947 को जब माउंटबेटन ने योजना पेश किया था, जिसे ‘माउंटबेटन प्लान’ भी कहते हैं, तो कुछ अप्रत्याशित कर दिया. उन्होंने 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजों द्वारा देश छोड़ने की बात कह कर सबको हैरत में डाल दिया था.

योजना पेश करने के 71 दिनों के बाद विश्व के नक़्शे पर दुनिया की आबादी के पांचवें हिस्से के दो टुकड़े होने जा रहे थे, दो मुल्क बनने जा रहे थे, टाइपराइटर से लेकर टैंक तक का बंटवारा होना था, भौगौलिक सीमाओं का निर्धारण होना था. इतना सब होना बाक़ी था. आख़िर माउंटबेटन ने इतनी नज़दीक की तारीख क्यूं चुनी? इसके पीछे कुछ संभावित कारण थे.

ख़ून-ख़राबा और दंगों का भय

माउंटबेटन के जीवनीकार फ़िलिप ज़िगलर लिखते हैं, ‘बंटवारे के प्लान की मंज़ूरी के साथ तय हो गया था कि सांप्रदायिक आग भड़केगी. प्लान लागू करने में देरी करने से नुकसान ही बढ़ेगा. आज पंजाब में समस्या है. यह कल हैदराबाद और बंगाल में भी हो सकती है, या उन जगहों पर जहां हिंदू और मुसलमान साथ रह रहे हैं. इन दंगों की वजह से मरने वालों की संख्या दो लाख से भी ज़्यादा हो सकती है- शायद बीस लाख या फिर, दो करोड़.’ ब्रिटिश हुकूमत इसके लिए ज़िम्मेदार न ठहराई जाये इसलिए माउंटबेटन जल्द से जल्द हिंदुस्तान छोड़ना चाहते थे.

अंग्रेजों की सुरक्षा और ऑपरेशन मैडहाउस

‘ऑपरेशन मैडहाउस’ के तहत माउंटबेटन पर अंग्रेजों (महिलाएं, बच्चे, अफ़सर और अन्य) को सुरक्षित घर भेजने की ज़िम्मेदारी भी थी. 1947 तक आते-आते हिंदुस्तान में महज़ 12 हज़ार अंग्रेज़ अफसर और सैनिक थे. फ़रवरी 1946 में रॉयल नेवी ने विद्रोह कर दिया था. सरकार ने विद्रोह को दबा तो लिया गया था पर उसके ख़िलाफ़ असंतोष जारी था. सरकार अगले विद्रोह से निपटने की हालत में नहीं थी.

रामचंद्र गुहा अपनी क़िताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में एक अंग्रेज़ अफसर के 1946 में लिखे पत्र का हवाला देते हैं. इसका मज़मून था कि हिंदुओं और मुसलमानों के कौमी दंगों की वजह से पूरा देश अंग्रेज़ हुक्मरानों और सैनिकों के ख़िलाफ़ हो जाएगा. इन हालात में अब अंग्रेजों की सुरक्षा भी एक बड़ा मुद्दा बन गयी थी. बंगाल के गवर्नर ने आदेश दिया था कि दंगे भड़कने की सूरत में सेना की प्राथमिकता होगी कि बंगाल में बिखरे हुए अंग्रेजों को एक जगह इकट्ठा करके उन्हें सुरक्षा दी जाए.

एडविना माउंटबेटन की भारत से बेरुख़ी

24 अगस्त, 1947 को लार्ड माउंटबेटन की पत्नी एडविना माउंटबेटन ने ब्रिटिश सरकार को एक रिपोर्ट पेश किया थी जिसमें उन्होंने क़ुबूल किया था कि इतनी जल्दी हुए घटनाक्रम में कहीं न कहीं उनका एक ज़िद्दी पत्नी होना भी ज़िम्मेदार था. चर्चित लेखिका जेनेट मोर्गन की एडविना माउंटबेटन पर लिखी क़िताब ‘लाइफ ऑफ़ हर ओन’ की मानें तो एडविना ने डिक्की से कहा था कि उन्हें अगर यह रिश्ता बचाना है तो हिंदुस्तान से जल्द से जल्द इंग्लैंड वापस चलना होगा.

अततः

ब्रिटिश राज की मुहर लगते ही 18 जुलाई, 1947 को ‘माउंटबेटन प्लान’ मंज़ूर हो गया था. कहा जाता है कि सीरिल रेडक्लिफ ने वे सारे दस्तावेज़ जला दिए थे जिनके आधार पर उन्होंने सरहद बनाई थी. एक अनुमान के हिसाब से विभाजन में कोई 20 लाख लोग मारे गए थे. ब्रिटिश इतिहासकार और पत्रकार एंड्रयू रॉबर्ट्स ने ‘माउंटबेटन और एड्रेनैलिन के ख़तरे’ नामक शीर्षक वाले लेख में लिखा है कि माउंटबेटन के हिंदुस्तान से जल्दी जाने के निर्णय की वजह से इंसानी जान-माल का नुकसान ज़्यादा ही हुआ न कि कम.

किसी ने व्यंग्य के तौर पर कहा है, ‘अंग्रेज़‘ ईमानदारी’ के लिए जाने जाते रहे हैं. यह इस बात से भी साबित होता है कि उन्होंने हिंदुस्तान को उसी हाल में छोड़ा था जैसा वह उनके कब्ज़ा करने के वक़्त था.’