Newslaundry Hindi

हंसल मेहता पार्ट-2: ‘भारत अकेला देश है, जहां लोकतंत्र रोजाना ख़तरे में है, फिर भी लोकतंत्र कायम है’

मनोज बाजपेयी के साथ दो और राजकुमार राव के साथ तीन फिल्में आपने कर ली हैं. मैं ‘अलीगढ़’ में राज को काउंट नहीं कर रहा हूं.

ऐसा ना करें. ‘अलीगढ़’ में सिरस पर लोगों का ध्यान इसलिए गया कि उसमें राजकुमार राव था. ‘अलीगढ़’ में मेरा और राजकुमार का रिश्ता मजबूत हुआ. ‘अलीगढ़’ की स्क्रिप्ट देते हुए मैंने राज से कहा था कि तुम अगर नहीं करोगे तो मुझे बुरा नहीं लगेगा. मैं दूसरी कास्टिंग देखने लगा था. ‘शाहिद’ और ‘सिटीलाइट्स’ के बाद मैं उस रोल में राज को देख नहीं पा रहा था. राज उस समय न्यूयॉर्क जा रहा था. बाद में मैंने उससे पूछा कि क्या मैं किसी और को ले लूं? राज का सीधा सा जवाब आया कि अगर कोई दूसरा यह रोल करेगा तो मुझे बुरा लगेगा कि मैं आपकी ऐसी फिल्म का हिस्सा नहीं हूं. उसने तो मुझसे ‘सिमरन’ में भी रोल मांगा था. कहा था कोई छोटा-मोटा कैरेक्टर दे दो. एक सीन तो कर लूं.

‘अलीगढ़’ में राज ने कभी नहीं सोचा कि यह मनोज की फिल्म है. उसने मनोज का पूरा साथ दिया. उसकी बातें ध्यान से सुनीं. उसके किरदार को निखरने दिया. वह केवल सुन रहा है. राज की यह खूबी है. बहुत कम एक्टर सुनते हैं. सभी एक्टर बोलना चाहते हैं. हमारे देश में ज्यादातर एक्टर अभी दूसरे एक्टर की आखिरी पंक्ति की ध्वनि सुनते हैं और फिर अपनी लाइन कह देते हैं. वे सामने के एक्टर के संवादों पर ध्यान नहीं देते हैं. मैंने बड़े से बड़े एक्टरों में यह कमी देखी है. आप फिल्मों को इस नजरिए से देखें तो सारी चीजें जाहिर हो जाएंगीं. मेरा मानना है कि जो एक्टर सुनते हैं, उनके मैजिक अलग हो जाते हैं.

मनोज के साथ आपकी दोस्ती पहले से थी. राजकुमार राव आपसे फिल्मों में काम के दौरान टकराए हैं. क्या वह क्षण, दृश्य या घटना याद कर सकेंगे, जब आप दोनों के बीच भरोसे का भाव पैदा हुआ.?

राज ग्यारह महीने ‘शाहिद’ के कैरेक्टर में रहा. उसने कोई नई फिल्म नहीं साइन की. उसे फिल्में मिल रही थीं. ‘शाहिद’ एक तरह से हम दोनों के लिए नई शुरुआत थी. उसने कुछ फिल्में कर ली थीं और मैं दूसरी पारी की शुरुआत कर रहा था. वह शाहिद को जी रहा था. उसी में रहना चाहता था. मुझे पहले-दूसरे दिन ही लग गया था कि अगर राजकुमार नहीं होता तो यह फिल्म नहीं बन पाती.

पहले दिन हमने दंगे का सीन शूट किया था. वह घर से निकलता है. उसके सामने एक जलती हुई औरत भाग रही है. राज उसे देखकर छुप जाता है. उसे देख कर लगा कि कोई साधारण एक्टर होता तो इसमें एक्टिंग का दिखावा करने लगता. वह सिर्फ छुप गया था. उसका छुप जाना ही असरदार था. एक्टर को जब हम छुपने का निर्देश देते हैं तो वे सिर्फ छुपने की एक्टिंग करते हैं. साधारण एक्टर रोने की, हंसने की, गुस्सा करने की… सभी भावों की एक्टिंग करते हैं. वह उनके चेहरे पर नहीं दिखता है.

इन दिनों तो डायरेक्टर भी डायरेक्टर की एक्टिंग करने लगे हैं. एक्टर को देखकर डायरेक्टर भी बदल रहे हैं. वे भी एक्टरों की तरह सहायकों की फौज लेकर चलने लगे हैं. उनका भी बॉडीगार्ड होता है.

फिल्म इंडस्ट्री में हो रहे बदलाव को कैसे देख पा रहे हैं? यह बेहतर हुआ है कि बदतर हुआ है?

बेहतर ही हुआ है. हम फिल्में बना पा रहे हैं. कभी कोई निराशा होती है तो मुझे दोस्तों में ही रोल मॉडल मिल जाते हैं. मेरी फिल्म ‘ओमेर्टा’ को लोगों ने ठीक से समझा नहीं. मैंने देखा कि ज्यादातर समीक्षकों ने बाहर का रिव्यू पढ़कर उसका अनुवाद कर दिया. किसी ने खुद की राय नहीं बनाई. उस समय मुझे निराशा हुई थी.

मुझे याद है उसी दौरान मैं अनुराग कश्यप के साथ कनाडा की यात्रा पर था. उसके साथ से मुझे नई ऊर्जा मिली. अनुराग मेरी जिंदगी में बार-बार आता रहा है. उसकी आग और एनर्जी प्रभावित करती है. वह इतना सारा काम कर रहा है और कभी थकता नहीं है. उसने एक साल में ‘मुक्काबाज’, ’मनमर्जियां’ और ‘सेक्रेड गेम्स’ जैसी फिल्में और वेब सीरीज की. इसके साथ ही वह घूम भी रहा था. फेस्टिवल में जा रहा था. वह अपने मन का काम कर पा रहा है.

अनुराग की नई फिल्म का टाइटल ही उसका स्वभाव है ‘मनमर्ज़िया’. मैं खुश हूं कि मैं ऐसे वक्त में फिल्म बना रहा हूं, जब अनुराग जैसा डायरेक्टर भी फिल्म बना रहा है. वह दोस्त है. जब मैं अनुराग से बात करता हूं, कुछ पूछता हूं, बहस करता हूं, झगड़े करता हूं तो कोई ईगो नहीं होता है. अनुराग के अलावा और भी डायरेक्टर हैं. सुपर्ण वर्मा भी ऐसा ही एक दोस्त है. विशाल को ही लें. विशाल का पैशन मुझे प्रभावित करता है. विशाल तो मनोज से पहले का दोस्त है. कह सकता हूं कि फिल्म इंडस्ट्री का सबसे पहला दोस्त.

मैं इस दौर को एक नया सुनहरा दौर कहता हूं. आप देखें कि पिछले 20 सालों में इतनी प्रतिभाएं विविधता के साथ आई हैं और उन्होंने हिंदी फिल्मों का गुणात्मक विस्तार किया है. ऐसा सिर्फ आजादी के बाद के दो दशकों में हुआ था. 21वीं सदी के यह दो दशक हिंदी सिनेमा का नया सुनहरा दौर है. अभी ज्यादातर एक्टिव डायरेक्टर आउटसाइडर हैं. उन्होंने अपनी फिल्मों से इनसाइडर को भी प्रभावित किया है.

सिर्फ प्रभावित नहीं किया है. अब तो दोनों मिलकर काम कर रहे हैं. न सिर्फ डायरेक्टर बल्कि एक्टर भी बाहर से आ रहे हैं. रणबीर कपूर और आलिया भट्ट के अलावा बाकी एक्टरों पर भी नजर डाल लें. अभी विकी कौशल और शाहिद कपूर भी स्टार सन नहीं हैं. जान्हवी आई है तो परिणीति भी आई है.

पिछले दो दशक के बदलाव की शुरुआत मैं रामगोपाल वर्मा से देखता हूं. आप क्या सोचते हैं?

मैं थोड़ा और पीछे जाऊंगा. अमित खन्ना फिल्म इंडस्ट्री में एक बड़ा बदलाव ले कर आए थे. उन्होंने सबसे पहले फिल्मों में कॉरपोरेट कल्चर लाने की कोशिश की थी. वह उतने सफल नहीं रहे. उनके प्लस चैनल की बड़ी भूमिका है. सुधीर मिश्रा की ‘इस रात की सुबह नहीं’ एक महत्वपूर्ण फिल्म है. इस फिल्म से सौरभ शुक्ला सामने आए. इसने अनुराग कश्यप की राइटिंग को प्रभावित किया. इस फिल्म से अनेक प्रतिभाएं जुड़ीं, जिन्होंने आगे चलकर खुद की राह बनाई.

रामगोपाल वर्मा के आने के पहले यह शुरुआत हो चुकी थी. समाज और फिल्मों में यह प्रभाव दिखाई पड़ने में सालों लग जाते हैं. सात साल पहले मैंने ‘शाहिद’ बनाई थी तो आज अनुभव सिन्हा ने ‘मुल्क’ बनाई. कहीं ना कहीं वह ‘शाहिद’ से इंस्पायर है. ‘लंच बॉक्स’ ने इरफान के लिए रास्ते चौड़े किये.

पिछले 25 सालों के बदलाव को आप कैसे रेखांकित करेंगे?

मेरे लिए 3-4 पॉइंट हैं. एक तो अमित खन्ना. उसके बाद रामगोपाल वर्मा. आज अमित खन्ना को कोई पहचानता नहीं है. उन्होंने अनेक प्रतिभाओं को मौका दिया. ‘रंगीला’ आने पर लग कि रामू के साथ कोई नई आवाज़ आ रही है. उसके बाद ‘सत्या’ आई. ‘सत्या’ ने बदलाव के ठोस संकेत दे दिए. फिर सारी चीजें धीमी गति से चलती रहीं.

रामू के बाद एक बड़ा चेंज ‘खोसला का घोसला’ है. मैं दिवाकर बनर्जी को श्रेय देना चाहूंगा. वह अपनी फिल्मों के साथ नई भाषा लेकर आया. नई हिम्मत दिखी. ‘ओए लकी लकी ओए’ में उसने इसे मजबूत किया. अनुराग कश्यप को ‘देव डी’ और ‘गुलाल’ से पुनर्जीवन मिला.

अभी जो दौर चल रहा है उसकी शुरूआत दिवाकर और अनुराग से होती है. उसके बाद हम लोग आते हैं. 2012-13 हिंदी फिल्मों के लिए महत्वपूर्ण है. उसी साल ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’, ‘लंच बॉक्स’, ‘शाहिद’ और ‘शिप ऑफ थीसियस’ आई. आगे-पीछे आई इन फिल्मों ने आकर धमाल कर दिया.

तिग्मांशु धूलिया की ‘पान सिंह तोमर’ भी एक खास फिल्म है, जिसने बायोपिक की शुरुआत कर दी .यहां रोनी स्क्रूवाला और सिद्धार्थ रॉय कपूर का नाम लेना चाहिए. इस दौर के सारे कैरेक्टर्स मिट्टी से जुड़े हुए हैं. घोर कमर्शियल फिल्मों के भी किरदार वहीं से लिए जा रहे है. पिछले सुनहरे दौर की फिल्मों के किरदारों से दर्शकों का कनेक्शन बनता था. ऐसा लगता था कि वे हमारे बीच के किरदार हैं. फिल्मी किरदारों को उन्होंने हम जैसा ही बना दिया था.

फिर एक दौर आया जब ये किरदार लार्जर दैन लाइफ हो गए. चीजें एक लकीर पर चलने लगीं. विगत 5-10 सालों में डिजिटल तकनीक आने से चीजें थोड़ी आसान हुई हैं. अगर डिजिटल नहीं आया होता तो मैं ‘शाहिद’ नहीं बना पाता. वह फिल्म बनती ही नहीं. डिजिटल की वजह से मुझे विश्वास हुआ कि कैनन 5 डी से भी मेरी फिल्म बन जाएगी. ‘शाहिद’ आधी से ज्यादा डिजिटल से ही बनी है. डिजिटल में हमें शक्ति और सामर्थ्य दिया.

इसी साल एक फिल्म आई थी ‘तू ही मेरा संडे.’ बेहद खूबसूरत फिल्म थी. इस दौर का एक बड़ा फिल्म मेकर विशाल भारद्वाज है. जिस तरह से वह दुनिया रचता है, वह गजब है. वह साहित्य की मदद लेकर फिल्में बनाता है. उसकी ताजा फिल्म ‘पटाखा’ भी साहित्य पर आधारित है.

आपका ध्यान कभी साहित्य पर नहीं गया?

फिल्म और लिटरेचर फेस्टिवल से एक फायदा हुआ है. उनके जरिए बहुत सारी जानकारियां मिल रही हैं. साहित्य और सिनेमा करीब भी आ रहा है. अभी मैं भोपाल एक फेस्टिवल में गया था. वहां मेरी मुलाकात गौरव सोलंकी से हुई. उससे बात कर ऐसा लगा कि साहित्य में नई सोच के लोग आ रहे हैं. और भी कुछ युवा लेखकों से मेरी बातें हुई हैं. उनकी साहित्यिक चेतना है और उनकी हिंदी अच्छी है. मुझे लगता है ऐसे लोग सिनेमा में एक्टिव हों तो बहुत कुछ नया सामने आएगा.

इनके कंसर्न आज के दौर के हैं. मैं बच्चों की किताबें देखता हूं. वहां अभी भी मुंशी प्रेमचंद हैं. मुंशी प्रेमचंद का होना बुरी बात नहीं है, लेकिन उसके बाद के लेखक कहां गए? मैंने भी एक किताब के अधिकार लिए हैं. शशि देशपांडे के एक उपन्यास पर फिल्म बनाने की सोच रहा हूं. देखता हूं कि कब तक काम कर पाता हूं? मेरी किसी फिल्म में कभी बहुत ज्यादा पैसे कमा लिए तो मैं खुद ही उस पर फ़िल्म बना लूंगा.

फिल्म बनाने के अलावा और किन चीजों में मन लगता है. आपको गुस्सा भी बहुत आता है. मैंने आपके ब्लॉग पर बहुत सारे विचार पढ़े हैं, जो नाराजगी से भरे हैं. और क्या-क्या शौक हैं आपके?

आप जिसे नाराजगी कह रहे हैं, वह वास्तव में मुंबई की भाषा में मेरी कुछ बातें हैं. मैंने जस के तस लिख दिया है. मैंने उसमें व्याकरण का बिल्कुल ख्याल नहीं रखा है. उसमें कहीं भी पूर्ण विराम लगा दिया है. कुछ लेख फिल्मों के बारे में हैं. मैं खुद का ही मुआयना करता रहता हूं और उसे लोगों से शेयर करता हूं.

अपनी गलतियों को स्वीकार करने से ही हम सुधर सकते हैं. मैं अपने लेखों में ऑब्जेक्टिव रहने की कोशिश करता हूं जो कि बहुत ही मुश्किल काम है. 90 साल की उम्र तक मुझे फिल्म बनानी है. उसके लिए जरूरी है कि मैं अपने काम को उनसे अलग होकर देख सकूं. मैंने अपनी फिल्मों को कभी डिफेंड करने की कोशिश नहीं की. मैं आस-पास में देख रहा हूं, बचाव की मुद्रा में आए फिल्ममेकर चूकते जा रहे हैं. वे खुद की पुरानी गरिमा में ही खो गए हैं. गलतफहमी में ज्यादा घुटन है. खुद के बारे में गलतफहमी हो तो वह आत्महत्या के समान है.

ऑब्जेक्टिव होने में एक आजादी हैं. ‘सिमरन’ मैंने दो बार देखी. अपनी बीवी के साथ देखते हुए मैंने उसे बताया कि देखो मैंने कहां-कहां गलती की, जिसे मैं होशियारी समझ रहा था. हर फिल्म के बाद मुझे नए सिरे से शुरुआत करनी पड़ती है. नए सिरे से शुरुआत करता हूं तो मुझे मालूम होना चाहिए कि पिछली फिल्म में क्या-क्या खामियां थीं ताकि उन से बच सकूं. नई फिल्में होंगी तो नई खामियां होंगी.

हमारी बात रह गई क्या शौक हैं और किन चीजों में मन लगता है?

मुझे खाने का शौक है. सच कहूं तो खाना पकाने का शौक है. रोज कुछ ना कुछ नया पकाने की कोशिश करता हूं. मेरी बीवी परेशान रहती है. खाने की किताबें खरीदता रहता हूं. मैंने कुछ भी बचाया नहीं है. धन तो बिल्कुल नहीं. कई लोग चाहते हैं कि मैं खाने पर कोई फिल्म बनाऊं. इस बारे में मेरा कहना है कि फिल्म और पाक कला मेरी दो प्रेमिकाएं हैं. दोनों से एक साथ नहीं निभा सकता. दोनों को एक ही घर में कैसे ले आऊंगा?

रितेश बत्रा ने ‘लंच बॉक्स’ में उसे अच्छी तरह दिखाया. उन्होंने टिंडी और परवल की बातें की. उनकी फिल्म देखने के बाद मैंने परवल की सब्जी बनाई थी. बहुत पहले मनोज के यहां दाल-चावल और परवल का भुजिया खाया करता था. खाने पर मैं बहुत लंबी बातें कर सकता हूं. इन दिनों में बिहार के व्यंजनों का अध्ययन कर रहा हूं. मुझे एक किताब हाथ लगी है नॉर्थ ईस्ट के व्यंजन की. एक्सपेरिमेंट करता रहता हूं. खाने के जरिए मैं देश और दुनिया की खोज करता हूं.

मुझे घूमने का भी शौक है. एक तरीके से खाने के लिए ही घूमता हूं. फिल्म फेस्टिवल में आधा समय फिल्मों को देता हूं और आधा समय खाने को. मैं तेरह सालों से निहारी पर काम कर रहा हूं. अलग-अलग इलाकों की शैली में निहारी पकाता हूं. मेरे पास निहारी पकाने की एक दर्जन से अधिक रेसिपी है. लाहौर की निहारी अलग होती है. कराची की अलग होती है. लखनऊ की अलग होती है और दिल्ली की अलग होती है. एक किताब लाने की भी कोशिश है लेकिन उसके लिए कम से कम डेढ़ सौ रेसिपी चाहिए. ब्लॉग पर इसलिए डालता हूं ताकि लोग मुफ्त में पढ़ सकें. इस पैशन से मुझे पैसा नहीं कमाना है.

‘खाना खजाना’ आप की जिंदगी का एक हसीन चैप्टर है. संजीव कपूर ने आपके साथ शुरुआत की थी. आपने राह क्यों बदल दी?

राह नहीं बदलता तो मैं खाना पका रहा होता. मेरे आलोचक कहते हैं कि काश मैं खाना ही पका रहा होता, फिल्में नहीं बनाता तो अच्छा होता. राह बदलने में संजीव कपूर की कोई भूमिका नहीं थी. तब ‘दिल पर मत ले यार’ बना रहा था. मैं उस कार्यक्रम पर बिल्कुल ध्यान नहीं दे पा रहा था और संजीव कपूर बहुत कुछ करना चाहता था. उसके सात साल हो गए थे. मैं कुछ कर नहीं पा रहा था. मुझ पर फिल्मों का नशा चढ़ गया था.

वेब सीरीज का कैसा भविष्य देख पा रहे हैं?

वेब सीरीज बड़ी संभावना लेकर आया है. मेरी रुचि बढ़ गई है. उसमें पूरी आजादी है. आप कोई भी क्रिएटिव उड़ान ले सकते हैं. शुक्रवार और शनिवार का दबाव नहीं है. फालतू के गणित से आप बच सकते हैं. वास्तव में दर्शकों का उससे कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन आजकल दर्शक भी यही बात करते हैं कि किस फिल्म ने कितनी कमाई की. वेब सीरीज कमाई के आंकड़ों से अलग है. फिल्म की कमाई से उसकी क्वालिटी नहीं तय कर सकते.

डिजिटल प्लेटफॉर्म पर फिल्मों के आने से उन्हें देखना आसान हो गया है. मैं अभी हर्षद मेहता पर एक वेब सीरीज कर रहा हूं. उसके अलावा अश्विन संघी की किताब ‘सियालकोट सागा’ पर भी काम चल रहा है. कई बार ऐसा लगता है कि काम इतना ज्यादा है और समय कितना कम है मेरे पास?

हाल-फिलहाल की किन खबरों ने आपको डिस्टर्ब किया?

सच कहूं तो मैं सुन्न सा हो गया हूं. 2014 में मुझे गुस्सा था. वह गुस्सा निराशा में बदल गया है. फिल्मों की असफलता के अलावा हम जिधर जा रहे हैं, पूरा समाज जिधर भाग रहा है, उससे भी निराश हूं. इतने सालों से जिन लोगों से जुड़ा हुआ था, उनके पूर्वाग्रह सामने आ रहे हैं. उनके मुखौटे उतर रहे हैं. इससे डिस्टर्ब होता हूं. उनके अंदर कितने पूर्वाग्रह छिपे हुए थे. पिछले 3-4 सालों मे वह सामने आया है.

क्या लगता है अगले 6 महीने देश के लिए कितने महत्वपूर्ण हैं?

हमारे देश का नागरिक कमाल का है, जो हिंदुस्तान में रह सकता है, वह कहीं भी रह सकता है. मतलब किसी भी सरकार और सिस्टम में वह जीता है. अपनी जिंदगी बनाता है. बाकी देशों में स्थिति अराजक हो जाती है. देश टूट जाता है. आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो जाती है. हमारा देश विरल है. हमारे नागरिक हर हाल में जीना जानते हैं. संघर्ष और सरवाइवल उसके स्वभाव में हैं. हिंदुस्तान रुकता नहीं है. वह बढ़ जाता है. चीजें बदल देता है. कभी तो आंखों पर पट्टी बांधकर काम करता रहता है और कभी सब कुछ झटक देता है. भारत अकेला लोकतांत्रिक देश है, जहां लोकतंत्र रोजाना खतरे में है. फिर भी लोकतंत्र कायम है.