Newslaundry Hindi
पार्ट-1: ऐतिहासिक मूक फिल्मों का इतिहास
हाल-फिलहाल में अनेक ऐतिहासिक फिल्मों की घोषणा हुई है. इन फिल्मों के निर्माण की प्रक्रिया विभिन्न चरणों में है. संभवत: सबसे पहले कंगना रनोट की ‘मणिकर्णिका’ आ जाएगी. इस फिल्म के निर्देशक दक्षिण के कृष हैं. फिल्म के लेखक विजयेंद्र प्रसाद हैं. विजयेंद्र प्रसाद ने ‘बाहुबली 1-2′ की कहानी लिखी थी. ‘बाहुबली’ की जबरदस्त सफलता ने ही हिंदी के फिल्मकारों को ऐतिहासिक फिल्मों के निर्माण के प्रति जागरूक और प्रेरित किया है. बाज़ार भी सपोर्ट में खड़ा है. करण जौहर की ‘तख़्त’ की घोषणा ने ऐतिहासिक फिल्मों के प्रति जारी रुझान को पुख्ता कर दिया है. दर्शक इंतजार में हैं.
निर्माणाधीन घोषित ऐतिहासिक फिल्मों की सूची बनाएं तो उनमें ‘मणिकर्णिका’ और ‘तख़्त’ के साथ धर्मा प्रोडक्शन की ‘कलंक’, यशराज फिल्म्स की ‘शमशेरा’, यशराज की ही ‘पृथ्वीराज’, अजय देवगन की ‘तानाजी’, आशुतोष गोवारिकर की ‘पानीपत’, अक्षय कुमार की ‘केसरी’, नीरज पांडे की ‘चाणक्य’ शामिल होंगी. इनमें ‘कलंक’ और ‘शमशेरा’ का इतिहास से सीधा संबंध नहीं है. लेकिन ये दोनों भी पीरियड फिल्में हैं. इन फिल्मों के विस्तार में जाने से पहले हिंदी फिल्मों के इतिहास के पन्ने पलट लेना रोचक होगा.
हिंदी फिल्मों के विधात्मक वर्गीकरण में मिथकीय, पौराणिक, ऐतिहासिक, कॉस्ट्यूम और पीरियड फिल्मों को लेकर स्पष्ट विभाजन नहीं है. मोटे तौर पर लिखित इतिहास के पहले की कहानियों को हम मिथकीय और पौराणिक श्रेणी में डाल देते हैं. लिखित इतिहास के किरदारों और घटनाओं को लेकर बनी फिल्मों को ऐतिहासिक कहना उचित होगा. पीरियड फिल्मों का आशय काल विशेष की फिल्मों से होता है. व्यापक अर्थ में सभी फिल्में किसी न किसी काल में स्थित होती हैं. इस लिहाज से सारी फिल्में पीरियड कही जा सकती हैं. कॉस्ट्यूम का सीधा संबंध वेशभूषा, वस्त्र परिधान और जेवर से होता है. जिन फिल्मों में इनका उपयोग होता है उन्हें हम कॉस्ट्यूम ड्रामा कह सकते हैं. आम दर्शक इस वर्गीकरण में ज्यादा नहीं उलझते.
हिंदी फिल्मों में ऐतिहासिक फिल्मों की परंपरा पर सरसरी निगाह डालें तो हम पाते हैं कि फिल्मकारों ने शुरू से ही इस तरफ ध्यान दिया है. पिछली सदी के सातवें, आठवें, नौवें और अंतिम दशक में कम ऐतिहासिक फ़िल्में बनी, लेकिन उसके पहले और बाद में उल्लेखनीय फिल्में बनी है. आज के रुझान को उसी के विस्तार के रूप में देखा जाना चाहिए.
रिकॉर्ड के मुताबिक भारत में बनी चौथी फिल्म ऐतिहासिक थी. इसका निर्देशन एस एन पाटणकर ने किया था. उनकी ‘डेथ ऑफ नारायणराव पेशवा’ पहली ऐतिहासिक फिल्म है. इस फिल्म के निर्माण के अगले छह-सात सालों में किसी दूसरी ऐतिहासिक फिल्म का उल्लेख नहीं मिलता. सीधे 1923 में दादा साहब फाल्के बुद्ध के जीवन पर फिल्म ले कर आते हैं. इसी साल मदान थिएटर की ‘नूरजहां’ भी आई थी. ‘नूरजहां’ में शीर्षक भूमिका पेशेंस कपूर ने निभाई थी. 1923 में ही बाबूराव पेंटर ने महाराष्ट्र फिल्म कंपनी के लिए ‘सिंहगढ़’ का निर्देशन किया. शिवाजी के सेनापति तानाजी ने शौर्य और कौशल से सिंहगढ़ के किले को विदेशियों से मुक्त करवाया था. ‘सिंहगढ़’ में शांताराम ने शेलारमामा की भूमिका निभाई थी.
इन दिनों अजय देवगन की टीम मराठा इतिहास के इसी वीर की कहानी रचने में लगी है. 1924 में रजिया सुल्तान की जिंदगी पर मैजेस्टिक फिल्म कंपनी की ‘रजिया बेग़म’ नाम की फिल्म बनी थी. 1925 में राजस्थान के बहादुर राजा ‘अमर सिंह डग्गर’ के जीवन पर बनी एक फिल्म का उल्लेख मिलता है. 1927 में वी शांताराम ने निर्देशन में कदम रखा. उनकी पहली फिल्म ऐतिहासिक थी. प्रभात फिल्म कंपनी के लिए उन्होंने ‘नेताजी पालकर’ का निर्देशन किया. महाराष्ट्र फिल्म कंपनी ने उन्हीं दिनों बाबूराव पेंटर के निर्देशन में ‘बाजी प्रभु देशपांडे’ का निर्माण किया.
अफसोस है कि ये फिल्में अब उपलब्ध नहीं है. भारत में फिल्मों के रखरखाव और संरक्षण पर ध्यान नहीं दिया गया. नतीजतन पुरानी फिल्मों की ज्यादातर जानकारी कागजों में उपलब्ध है. जर्मनी के सहयोग से 1926 में बनी हिमांशु राय की ‘द लाइट ऑफ एशिया’ देखी जा सकती है. फ्रान्ज़ ऑस्टिन निर्देशित फिल्म की कहानी निरंजन सरकार ने लिखी थी. तकनीक और अभिनय के लिहाज से यह अपने समय की बेहतरीन फिल्म थी. इस फिल्म ने विदेशों में धूम मचा दी थी. इस फिल्म का साफ-सुथरा प्रिंट आज भी उपलब्ध है.
इसी के आसपास मुमताज महल के जीवन पर एक फिल्म बनी थी. मुमताज शाहजहां की बेगम थीं. उन्हीं की याद में शाहजहां ने ताजमहल का निर्माण करवाया था. इस दौर में दूसरे मराठा नायकों पर भी फिल्में बनीं. मूक फिल्मों के इस जमाने में राजस्थान के वीर राजाओं हमीर प्रताप और पृथ्वीराज के जीवन को पर्दे पर उतारा गया. इन दिनों डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी पृथ्वीराज के शौर्य और प्रेम को निर्देशित करने की तैयारी में जुटे हैं.
1928 में पहली बार सलीम और अनारकली के प्रेम पर दो फिल्में बनीं. ‘द लव्स ऑफ़ अ मुग़ल प्रिंस’ इम्तियाज अली ताज के लिखे 1922 के नाटक पर आधारित था. इसमें अनारकली की भूमिका सीता ने निभाई थी. दूसरी फिल्म का शीर्षक ‘अनारकली’ ही था. उसमें सुलोचना शीर्षक भूमिका में थीं. हिमांशु राय की ‘शिराज’ भी उल्लेखनीय है. यह फिल्म ताजमहल के शिल्पकार के जीवन को उकेरती है. 1930 में आई वी शांताराम की ‘उदयकाल’ उल्लेखनीय फिल्म है. ‘स्वराज्य तोरण’ नाम से बनी इस फिल्म का टाइटल अंग्रेजों के दवाब और आदेश से बदलना पड़ा था.
शिवाजी के जीवन पर आधारित फिल्म में शांताराम ने नायक की भूमिका भी निभाई थी. मूक फिल्मों के दौर में मौर्य और गुप्त वंश के राजाओं के जीवन पर भी फिल्में बनीं. चाणक्य के जुझारू व्यक्तित्व ने फिल्मकारों को आकर्षित किया. अभी नीरज पांडे ने अजय देवगन के साथ ‘चाणक्य’ बनाने का फैसला किया है.
साइलेंट एरा में बनी ऐतिहासिक फिल्मों के आकलन, अध्ययन और विश्लेषण से हम पाते हैं कि फिल्मों के विषय, नायक और काल तय कर लिए गए थे. फिल्मकार परतंत्र देश में आजादी और देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत नायकों का चुनाव कर रहे थे. कोशिश यह रहती थी अंग्रेजों की सेंसरशिप से बचते-बचाते हुए दर्शकों को जागृत और प्रेरित करने की फ़िल्में बनाई जाएं. उनमें राष्ट्रीय चेतना के साथ स्वतंत्रता की भावना का संचार किया जाये. उन्हें आलोड़ित किया जाये. इनके साथ ही मनोरंजक काल्पनिक कहानियां भी रची जा रही थी.
तब फिल्मों के निर्माण का बड़ा केंद्र मुंबई था. मुंबई के सक्रिय फिल्मकारों में अधिकांश महाराष्ट्र के थे. छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवन और इतिहास से परिचित मराठी फिल्मकारों ने ऐतिहासिक फिल्मों के लिए मराठा शासन के नायकों का चुनाव किया. मुक्ति और राष्ट्र की रक्षा के लिए मराठा योद्धाओं ने अनेक संघर्ष किए.
मराठा शासन के अलावा फिल्मकारों को मुगल साम्राज्य के बादशाह, रानियां और राजकुमारों के जीवन में दिलचस्प ड्रामा दिखा. मराठों और मुगलों के साथ उनकी नजर भगवान बुद्ध के जीवन और उपदेशों पर पड़ी. देश-विदेश में विख्यात भगवान बुद्ध प्रिय विषय रहे हैं. पर अभी तक उनके जीवन पर कोई संपूर्ण फिल्म नहीं आ सकी है. मौर्य और गुप्त वंश के अशोक और चंद्रगुप्त फिल्मों के मशहूर ऐतिहासिक नायक रहे हैं. इस दौर में कुछ राजस्थानी राजाओं पर भी फिल्में बनीं. निर्माणाधीन फिल्मों की सूची पर ध्यान दें तो पाएंगे कि मूक फिल्मों के दौर में तय किये विषय और दायरे से आज के फिल्मकार आगे नहीं बढ़ पाए हैं. सोच और कल्पना की चौहद्दी नहीं बढ़ी है. घूम-फिरकर फिल्मकार उन्हीं कहानी और किरदारों को दोहरा रहे हैं. आज की फिल्मों पर बातचीत करने के पहले हम बोलती फिल्मों के दौर में बनी मशहूर ऐतिहासिक फिल्मों की चर्चा अगले खंड में करेंगे. जारी…
Also Read
-
Hafta 483: Prajwal Revanna controversy, Modi’s speeches, Bihar politics
-
Can Amit Shah win with a margin of 10 lakh votes in Gandhinagar?
-
Know Your Turncoats, Part 10: Kin of MP who died by suicide, Sanskrit activist
-
In Assam, a battered road leads to border Gorkha village with little to survive on
-
Amid Lingayat ire, BJP invokes Neha murder case, ‘love jihad’ in Karnataka’s Dharwad