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पत्रकार जमाल ख़शोगी की गुमशुदगी, सउदी अरब के करीबी पश्चिमी देशों पर प्रश्नचिन्ह
जाने-माने पत्रकार जमाल ख़शोगी की गुमशुदगी का राज़ गहरा होता जा रहा है. वे बीते दो अक्टूबर को तुर्की के इस्तांबुल में स्थित सऊदी वाणिज्य दूतावास में तलाक़ के दस्तावेज़ लेने गए थे. उसके बाद से उनका पता नहीं है. सऊदी अरब का कहना है कि वे दूतावास आए थे, किंतु जल्दी ही लौट गए थे. उसे उनके बारे में कोई जानकारी नहीं है.
सीसीटीवी वीडियो में ख़शोगी को दूतावास के भीतर जाते हुए देखा जा सकता है, लेकिन उनके बाहर आने का कोई सबूत नहीं है. इस मसले की जांच में शामिल तुर्की सूत्रों ने मीडिया को दी जानकारी में अंदेशा जताया है कि इस जाने-माने सऊदी पत्रकार का दूतावास के भीतर क़त्ल कर दिया गया है और उनके शरीर को टुकड़े कर ठिकाने लगा दिया गया है.
मदीना में पैदा हुए 60 साल के ख़शोगी शाही सउदी शासन के बढ़ते दबाव के कारण पिछले साल सउदी अरब से भाग निकले थे. देश और बाहर की मीडिया में उन्होंने बादशाह सलमान और उनके बेटे शहज़ादा मोहम्मद की कई नीतियों की लगातार आलोचना की थी. वे इज़रायल और अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प के ख़िलाफ़ भी बोलते-लिखते रहे हैं. ऐसे शख़्स का ग़ायब होना, या कथित तौर पर मारा जाना अरब के लिए तो बड़ी ख़बर है ही, सऊदी अरब के क़रीबी पश्चिमी देशों के लिए भी बड़ा झटका है. अरब ने एक मज़बूत लोकतांत्रिक आवाज़ खो दिया है और पश्चिम को अब यह साबित करना है कि वह सऊदी शासन की ऐसी हरकतों को लेकर गम्भीर है.
महत्वपूर्ण यूरोपीय देशों ने पूरे मामले की जांच की मांग की है. कुछ देशों और बड़े कारोबारियों ने सऊदी अरब में होनेवाले आयोजनों का बहिष्कार भी किया है. कुछ दिन पहले राष्ट्रपति ट्रम्प ने सऊदी शासन को चेतावनी भी दी थी. इसका जवाब भी सऊदी अरब ने उसी तेवर से दिया था. जानकारों का मानना है कि सऊदी अरब वैश्विक अर्थव्यवस्था में ख़ास जगह रखने वाले तेल को भी बतौर हथियार इस्तेमाल कर सकता है. इशारों में रियाद की ओर से यह जता भी दिया गया है. सोमवार को कच्चे तेल की क़ीमतों को आए उछाल को सिर्फ़ आर्थिक या वित्तीय नज़रिए से देखना ठीक नहीं होगा.
सोमवार से हालात बदले हुए नज़र आने लगे हैं. राष्ट्रपति ट्रम्प ने बादशाह सलमान से हुई बातचीत का हवाला देते हुए शंका जतायी है कि हो सकता है कि ‘बदमाश तत्वों ने ख़शोगी की हत्या की हो.’ उन्होंने यह भी बताया कि सऊदी शाह ने आंतरिक जांच के आदेश दिए हैं. इस बयान से उनकी नरमी का पता चलता है. एक तो सऊदी अरब उस इलाक़े में अमेरिका का सबसे क़रीबी है और दूसरे यह कि शहज़ादा मोहम्मद बिन सलमान और ट्रम्प के दामाद जारेड कुशनर में ख़ूब छनती है. पिता के बाद बादशाहत मोहम्मद को ही मिलनी है.
ब्रिटेन और फ्रांस फिलहाल बयान तक ही सीमित हैं और आगे भी रहेंगे क्योंकि सऊदी शाही परिवार से उनके सियासी और कारोबारी रिश्ते भी अमेरिका की तरह गहरे हैं. ब्रिटिश इतिहासकार मार्क कर्टिस ने अपनी किताब ‘सेक्रेट अफ़ेयर्स: ब्रिटेंस कोलूज़न विद रैडिकल इस्लाम’ में विस्तार से सऊदी-ब्रिटिश रिश्तों के बारे में बताया है और यह भी शिकायत की है कि ब्रिटिश मीडिया ने लोगों को इस बारे में ठीक से जानकारी देने की अपनी ज़िम्मेदारी को नहीं निभाया है.
शहज़ादे ने देश में अपनी पकड़ मज़बूत करने में कोई कसर नहीं उठा रखी है. महिलाओं को कार चलाने की अनुमति देने, सिनेमाघर खोलने तथा वहाबी मौलानाओं और मज़हबी पुलिस पर नियंत्रण करने जैसे उपायों से वे नयी पीढ़ी को लुभा रहे हैं, यमन, सीरिया और ईरान को लेकर कड़े रूख तथा मिस्र और इज़रायल से रिश्ते बेहतर कर वे इलाक़े की सियासत में दख़ल दे रहे हैं. शाही अल-सऊद ख़ानदान के शहज़ादों पर नकेल कसकर अपनी चुनौतियों का समाधान भी वे कर रहे हैं. वे किसी भी असंतोष को बर्दाश्त ना करने की नीति पर अमल कर रहे हैं.
इस कारण जमाल की गुमशुदगी और कथित क़त्ल का शक़ उन पर भी जाता है. यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि असंतुष्ट लोगों, जिनमें शाही परिवार के सदस्य भी शामिल हैं, को ग़ायब करने, हिरासत में रखने और उनको मार देने की परंपरा कोई नयी बात नहीं है. पर मोहम्मद बिन सलमान के हाथों में सत्ता आने के बाद ऐसी घटनाएं बहुत तेज़ हुई हैं. दो सौ से ज़्यादा शहज़ादों को गिरफ़्तार कर उनसे भारी उगाही की ख़बरें पुरानी नहीं पड़ी हैं.
पिछले साल ही दर्जनों मानवाधिकार और सामाजिक कार्यकर्ता हिरासत में लिये गए हैं जिनमें महिलाएं भी हैं. सितंबर, 2017 में बड़े पैमाने पर हुई गिरफ़्तारियों पर ब्रिटिश वकीलों- रॉडनी डिक्शों, लॉर्ड केन मैकडोनाल्ड और ऐडन एलिस- ने विस्तृत रिपोर्ट इस साल फ़रवरी में छापी है. पिछले साल सितंबर में ही जमाल ख़शोगी आख़िरी बार सऊदी अरब से बाहर निकल भागे थे.
साल 2015 में मोरक्को से शाही परिवार के एक ख़ास सदस्य शहज़ादा तुर्की बिन बंदर को अपहरण कर सऊदी अरब ले जाया गया था. क़रीब पांच साल पहले वे देश से भागकर पेरिस में रह रहे थे. कभी वे सऊदी पुलिस महकमे के बड़े अधिकारी हुआ करते थे और उनकी ज़िम्मेदारी शाही परिवार की निगरानी करना था. पारिवारिक विवाद के कारण उन्हें जेल जाना पड़ा था. जेल से छूटने के बाद वे फ़्रांस आ गए थे. पेरिस आकर उन्होंने इंटरनेट पर वीडियो डालने का सिलसिला शुरू किया. उन वीडियो में वे सऊदी अरब में सुधार की मांग करते थे.
ट्विटर पर सऊदी शासन की आलोचना करने के कारण एक अन्य शहज़ादे सऊद को भी ग़ायब किया गया है. सितंबर, 2015 में तो इस शहज़ादे ने बादशाह सलमान का तख़्तापलट करने की अपील कर दी थी. इस शहज़ादे को कारोबारी बैठक के सिलसिले में इटली के मिलान से रोम ले जाने के बहाने जहाज़ से सीधे सऊदी अरब ला दिया गया था.
एक अन्य नाराज़ शहज़ादा ख़ालिद बिन फ़रहान जर्मनी में अभी हैं और उन्हें भी अंदेशा है कि उनका अपहरण हो सकता है. शहज़ादा सुल्तान बिन तुर्की बिन अब्दुल अज़ीज़ को जेनेवा से उठाकर सऊदी अरब लाया गया था. इन अपहरणों पर बीबीसी ने पिछले साल एक डॉक्यूमेंट्री ने बनायी थी, जिसमें बताया गया है कि इन मामलों में पश्चिमी देशों का रवैया सऊदी अरब के पक्ष में रहा है.
जिनका अपहरण हुआ है या जेल में डाला गया है, उनके बारे में इत्मिनान से कहा पाना मुश्किल है कि उनका हश्र क्या हुआ या क्या हो सकता है. पिछले साल पूर्व बादशाह फ़हद के बेटे शहज़ादा अब्दुल अज़ीज़ के भी ग़ायब होने की ख़बर आयी थी, जब दो सौ से ज़्यादा शहज़ादों को हिरासत में लिया गया था. खरबपति अल-वालिद के भाई शहज़ादा ख़ालिद भी लापता हैं. शहज़ादा अल-वालिद ने कुछ समझौते कर या लेन-देन कर ख़ुद को रिहा करा लिया है. इनकी रिहाई सऊदी शासन के लिए भी इसलिए भी ज़रूरी थी कि इनकी पैठ अंतरराष्ट्रीय धनकुबेरों में है और दुनिया के बड़े ब्रांडो में उनका निवेश है.
इस पूरे प्रकरण में पश्चिमी मीडिया की कसरत पर भी नज़र रखी जानी चाहिए. जदालिया पर छपे अपने एक लेख का शीर्षक अब्दुल्लाह अल-अरियन ने यूं दिया है- ‘सऊदी शाहों को सुधारक बताते रहने का द न्यूयॉर्क टाइम्स का सत्तर साल का सिलसिला’. इसका दूसरा छोर यह है कि शहज़ादा मोहम्मद की ताक़त और कठोरता को दिखाने के लिए भी कुछ ऐसी बातें- शहज़ादे के आदेश पर ख़शोगी की गुमशुदगी जैसी बातें इस्तेमाल में लायी जा रही हैं, ताकि भावी बादशाह की अलहदा छवि बन सके.
इस काम के लिए पश्चिमी मीडिया से बेहतर और क्या हो सकता है! कुछ अख़बार और चैनल अनुमान लगा रहे हैं कि सऊदी शासन, ख़ासकर शहज़ादा मोहम्मद, जमाल ख़शोगी की गुमशुदगी से परेशानी में आ जायेंगे. ऐसा कुछ भी नहीं होने जा रहा है. कुछ दिन बाद यह ख़बर भी दबा दी जायेगी, बस पूरे मसले में दो लोगों को फ़ायदा होगा- शहज़ादा मोहम्मद और तुर्की के राष्ट्रपति एरदोआं को. एरदोआं कड़े तेवर दिखाकर उस ख़ित्ते में ख़ुद का कुछ क़द बढ़ायेंगे और शहज़ादे की ठंडी मुस्कान से उसके ख़ौफ़ का साया कुछ गहरा हो जायेगा.
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