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भीमा-कोरेगांव: जनवरी से अक्टूबर तक बढ़ता हुआ गिरफ्तारियों का ग्राफ

31 दिसंबर, 2017 की शाम को जब पुणे के शनिवारवाड़ा किले में एल्गार परिषद का कार्यक्रम चल रहा था तो किसी को भी यह इल्म नहीं था कि यह कार्यक्रम देश भर के अलग-अलग कोने में काम करने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ताओ, वकीलों और लेखकों की गिरफ्तारियों का ऐसा दौर शुरू करेगा जो कि थमने का नाम नहीं लेगा. इन गिरफ्तारियों के पीछे मुख्य कारण है पुणे से लगभग 28 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कोरेगाव-भीमा गांव. यहां 1 जनवरी, 2018 को हुई जातीय हिंसा के लिए पुणे पुलिस इन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को ज़िम्मेदारी मानती है.

अब तक इस मुकदमे में आठ लोगों की  गिरफ्तारियां हो चुकी हैं, एक को नज़रबंद किया हुआ है और एक ज़मानत पर है. इन सभी लोगों पर पुलिस द्वारा यह आरोप लगाया गया है कि  इनका एल्गार परिषद से संबंध था और यह  तथाकथित रूप से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के सदस्य हैं. यह गिरफ्तारियां  दो दौर में हुई  हैं,  पहले दौर में पुलिस ने  महेश राउत (महाराष्ट्र के गढ़चिरोली में खनन के खिलाफ काम करते थे), सुरेंद्र गडलिंग (नागपुर के एक मानवाधिकार वकील), शोमा सेन (नागपुर  विश्वविद्यालय में अंग्रेजी की प्रोफेसर), रोना विल्सन (दिल्ली स्थित कमेटी फॉर रिलीज़ ऑफ़ पॉलिटिकल प्रिज़नर्स संगटन से जुड़े कार्यकर्ता) और सुधीर ढवले (मुंबई में  रहने वाले दलित अधिकार कार्यकर्ता). इन पांचों की गिरफ़्तारी 6 जून को मुंबई, नागपुर और दिल्ली स्थित इनके घरों से हुई थी.

दूसरे दौर की गिरफ्तारियां 28 अगस्त को हुई थीं जिसमे लगभग तीन दशकों से  छत्तीसगढ़ में मजदूरों के हित में काम कर रही मानवाधिकार कार्यकर्ता और वकील सुधा भारद्वाज के अलावा  अरुण फरेरा (मुंबई में रहने वाले मानवाधिकार वकील), वर्नन गोंज़ाल्विस (मुंबई में रहने वाले सामाजिक कार्यकर्त्ता), वरवरा राव (हैदराबाद में रहने वाले कवि और वामपंथी विचारक) और दिल्ली में रहने मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा को गिरफ्तार किया गया था. हालांकि गिरफ्तारी के अगले ही दिन इन सभी सामाजिक कार्यकर्ताओं को सुप्रीम कोर्ट द्वारा घर में नज़रबंद करने के आदेश दे दिए गए थे. यह सभी पांच लोग लगभग एक महीने से दो महीने की अवधि के लिए नज़र बंद किये गए थे. बीते शुक्रवार को पुणे की एक विशेष न्यायायल द्वारा सुधा भारद्वाज, अरुण फरेरा और वर्नन गोंज़ाल्विस की ज़मानत अर्ज़ी ख़ारिज कर दी गई. इसके बाद तीनों को 6 नवम्बर तक के लिए पुलिस हिरासत में भेज दिया गया.

फरेरा और गोंज़ाल्विस को पुणे पुलिस द्वारा अदालत में शुक्रवार को ही पेश किया गया था, जबकि सुधा भरद्वाज को उनके फरीदाबाद स्थित निवास से  गिरफ्तार कर पुणे की अदालत में शनिवार को पेश किया गया. हालांकि इस मामले में  आरोपी बनाये गए दो अन्य लोग वरवरा राव और गौतम नवलखा को अभी हिरासत में नहीं लिया गया है, क्योंकि गुरुवार के  दिन हैदराबाद हाईकोर्ट ने राव की घर पर नज़रबंदी तीन हफ्ते के लिए बढ़ा दी. जबकि नवलखा  एक अक्टूबर से ज़मानत पर हैं. गौरतलब है कि सोमवार को ही महाराष्ट्र सरकार द्वारा दिल्ली उच्च न्यायालय में नवलखा को दी गई ज़मानत के खिलाफ एक विशेष याचिका दायर की गई है.

यह सभी गिरफ्तारियां पुणे निवासी तुषार दामगुड़े द्वारा की गयी शिकायत के आधार पर की गयी हैं. दामगुड़े ने यह एफआईआर आठ जनवरी को पुणे के  विश्राम बाग़ पुलिस थाने में दर्ज कराई थी. लेकिन गौरतलब है कि सुधीर धवले के अलावा इस मामले में गिरफ्तार किए गए अन्य आरोपित के नाम शिकायत में कहीं भी दर्ज नहीं हैं. दामगुड़े द्वारा दाखिल की गयी प्राथमिकी में सुधीर धवले के अलावा कबीर कला मंच (जो कि एक सांस्कृतिक संगटन है) के सदस्यों के नाम थे. इस प्राथमिकी में कबीर कला मंच के सागर गोरखे, रमेश गायचोर, दीपक ढेंगले, ज्योति जगताप के  साथ-साथ दलित हितों के लिए काम करने वाली हर्षाली पोतदार का भी नाम था. इसके अलावा प्राथमिकी में यह लिखा था कि कबीर कला मंच के अन्य कलाकार और कुछ अन्य लोग भी इसमें शामिल थे. लेकिन पूरी प्राथमिकी में कहीं भी सुधा भारद्वाज और अन्य आठ लोगों के नाम का ज़िक्र  नहीं था.

गौरतलब है कि दामगुड़े की प्राथमिकी के पहले, 22 साल के अक्षय बिक्कड़ ने भी विश्रामबाग़ पुलिस स्टेशन में पूर्व छात्र नेता उमर खालिद और गुजरात से विधायक जिग्नेश मेवानी के खिलाफ प्राथमिकी  दर्ज करायी थी. इस प्राथमिकी में इन दोनों पर यह आरोप लगाया गया था कि इन्होंने एल्गार परिषद के दौरान भड़काऊ भाषण देकर समाज के दो तबकों में एक दूसरे के खिलाफ नफरत फ़ैलाने की कोशिश की थी जिसके चलते कोरेगाव भीमा गांव में कोरेगाव भीमा युद्ध की 200वीं सालगिरह पर दंगे हो गए थे. इस प्राथमिकी में भी एल्गार परिषद  मामले और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के तथाकथित सदस्य होने का आरोप झेल रहे 10 मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और वकीलों का कहीं भी नाम नहीं था.

जब 28 अगस्त को पुणे पुलिस ने सुधा भारद्वाज, अरुण फरेरा, वर्नन गोन्साल्विस, वरवरा राव और गौतम नवलखा को गिरफ्तार किया था तो उनके द्वारा प्रकाशित की गयी एक प्रेस रिलीज़ में कहा गया था- “विश्रामबाग़ पुलिस स्टेशन में 8 जनवरी 2018 को  दर्ज की गयी प्राथमिकी की बिना पर जो पुलिस ने जांच-पड़ताल की है उसमें पुलिस को कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (माओइस्ट) और गिरफ्तार पांच लोगों के बीच संबंधों के पुख्ता सबूत मिले हैं. पुलिस को छानबीन के दौरान ऐसे बहुत से ईमेल, पत्र, बैठक में हुए प्रस्ताव के नमूने मिले हैं जो कि सीधे तौर पर गिरफ्तार हुए लोगों के माओवादियों से संबंधों का ब्यौरा देते हैं.”

पुलिस की प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, “कबीरकला मंच  और गिरफ्तार हुए पांच  व्यक्ति (सुधा भारद्वाज, वर्नन  गोन्साल्विस, अरुण फरेरा, गौतम नवलखा और वरवरा राव)  माओवादियों द्वारा दिए गए पैसों का लोगों को सरकार के खिलाफ भड़काने में इस्तेमाल कर रहे हैं और इनकी यह गतिविधियां एल्गार परिषद के कार्यक्रम से पहले चल रही हैं. पुलिस को कंप्यूटर, लैपटॉप और अन्य इलेक्टॉनिक उपकरणों से  मिले दस्तावेजों से साफ़ तौर पर ज़ाहिर होता है कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (माओवादी) एक षडयंत्र रच रही है जिसके तहत सरकार के खिलाफ एक फासीवाद विरोधी मोर्चा खोलना है. इस प्रस्ताव की चर्चा ईस्टर्न रीजनल ब्यूरो की बैठक के दौरान हुआ था जिसमें यह तय किया गया था कि अखिल भारतीय मोर्चे के ज़रिये सरकार का तख्ता पलट किया जा सके.”

पुणे पुलिस के अनुसार 28 अगस्त को गिरफ्तार किये गए सभी पांच  लोगों का भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के इस षडयंत्र में प्रमुखता से हाथ था. पुलिस ने यह भी कहा था कि इस मामले में प्राप्त सबूतों के अनुसार इन पांच अर्बन नक्सलों को माओवादियों द्वारा विद्यार्थियों और युवाओं को भरमाने,  हथियारों का प्रावधान करने की ज़िम्मेदारी दी गयी थी. यह ज़िम्मेदारी इन पांचों को  भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की सेंट्रल कमेटी के वरिष्ट सदस्यों द्वारा दी गयी थी. यह आरोपी और भी गैर कानूनी  कार्यों में शामिल हैं जिनके चलते बड़े पैमाने पर निर्दोष नागरिकों और सुरक्षा अधिकारियों की हत्याएं हुई हैं. इनके और भी गैर कानूनी संगठनों से सम्बन्ध हैं जो  हिंसक घटनाओं को अंजाम देते हैं.

उल्लेखनीय है  कि पुलिस के आरोपों  का आधार वो तथाकथित पत्र हैं जिनकी विश्वसनीयता का कोई प्रमाण नहीं है और   जो पुलिस के अनुसार इन पांच मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के कंप्यूटर व अन्य उपकरणों से मिले हैं. इस मामले की शुरुआती दौर में छानबीन विश्रामबाग  पुलिस कर रही थी जिसके बाद  पुणे पुलिस की स्वारगेट डिवीज़न के सहायक आयुक्त शिवाजी पवार को जिम्मेदारी सौंप दी गई. पुलिस के अनुसार इस  छानबीन के दौरान 17 अप्रैल, 2018 को पुणे पुलिस ने सुरेंद्र गडलिंग, रोना विल्सन, शोमा सेन, सुधीर धवले, हर्षाली पोतदार, सागर गोरखे, रमेश गायचोर, दीपक  ढेंगले आदि  के घर छापा मारा था और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को ज़ब्त किया था.

यह  वही इलेक्ट्रॉनिक उपकरण थे जिसमें पुलिस को को कथित दस्तावेज मिले जिसमे  प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी की हत्या  का ज़िक्र था. लेकिन पुलिस के इन दावों पर तब सवाल उठता है कि प्रधानमंत्री की हत्या से सम्बंधित तथाकथित  अति संवेदनशील दस्तावेज़ मिलने के बावजूद भी उन्होंने पहले दौर की गिरफ्तारियां (महेश राउत, सुरेंद्र गडलिंग, शोमा सेन, सुधीर ढवले और रोना विल्सन की) छह महीने बाद जून में क्यों की.

न्यूज़लॉन्ड्री  के पास  इनमे से कुछ दस्तावेज़ मौजूद हैं  जिन पर गौर फ़रमाया  जाए तो इसमें बहुत सी बातें ऐसी सामने आती हैं जो इन दस्तावेजों की  विश्वसनीयता पर  सवाल उठाती हैं.  गौरतलब है कि इस मामले से सम्बंधित बहुत से अति संवेदनशील  दस्तावेज़ शुरुआत में हुयी गिरफ्तारियों के दौरान सोशल मीडिया पर भी प्रसारित हो रहे थे.

शुरुआत करते है उस पत्र से जो तथाकथित रूप से कामरेड ‘एम’ द्वारा  रोना को लिखा गया था. पुलिस के अनुसार यह पत्र भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की सेंट्रल कमेटी के सदस्य मिलिंद तेलतुंबड़े द्वारा लिखा गया था. यह पत्र अंग्रेजी में था जिसकी शुरुआत में लिखा है- “डियर कॉमरेड  रोना, लाल जोहार, हमें दो पत्र और पीजीपी  ( प्रेट्टी  गुड प्राइवेसी) मटेरियल मनोज द्वारा प्राप्त हो गए हैं. हमने सम्बंधित एरिया कमांडर को 6 दिसंबर को आने वाली फैक्ट फाइंडिंग की बारे में बता दिया है.”

अगर  अब इस पत्र के शुरआती शब्दों पर ही गौर फरमाया जाए तो इसकी विश्वसनीयता को लेकर सवाल उठ खड़े होते हैं. आदिवासी संस्कृति में लाल जोहार नामक कोई भी  ऐसा शब्द नहीं है जो सम्बोधन के लिए इस्तेमाल होता है. दूसरा यह पत्र 2 जनवरी को लिखा गया था और इसमें 6 दिसंबर के आगामी कार्यक्रम के बारे में बताया जा रहा है,  जो कि बेमानी सा लगता है  क्योंकि दिसंबर, जनवरी के पहले आता है ना  कि  बाद में.

इसके अलावा इस पत्र में महाराष्ट्र में दलित नेता के रूप में उभर रहे प्रकाश अम्बेडकर  (डॉ भीमराव अम्बेडकर के पोते), जिग्नेश मेवानी, उमर खालिद और कांग्रेस पार्टी का नाम भी शामिल. पत्र में इन चारों के नामों का उल्लेख इस तरह किया गया था, जैसे कि  इनका माओवादियों से संबंध हो और वह उनकी सरकार के खिलाफ दलित आंदोलनों को मजबूत करने में मदद कर  रहे हों. इस पत्र में शोमा सेन, सुधीर ढवले और सुरेंद्र गाडलिंग के नामों का भी ज़िक्र था और यह लिखा गया था कि यह भी माओवादी पार्टी से सम्बन्ध रखते हैं. पत्र में कोरेगाव-भीमा में  हुए दंगे और  उससे सम्बंधित आन्दोलन को और प्रखर रूप देने की बात कही गयी थी  और बाकी प्रदेशों में भी इस तरह के आंदोलनों को करने की बात कहीं थी जिससे कि 2019 में मोदी सरकार का तख्ता पलट किया जा सके.

इसके बाद जो अगला पत्र  इस मामले को लेकर मीडिया में आया वह कॉमरेड प्रकाश स्वरा कॉमरेड ‘आर’ को लिखा गया था. पुलिस के अनुसार यह पत्र कॉमरेड प्रकाश उर्फ़  नवीन उर्फ़ ऋतुपम गोस्वामी जो कि असम के इलाके में भूमिगत है ने रोना विल्सन को लिखा था. इस पत्र में अरुण फरेरा  और वर्नन गोन्साल्वेज़ के नामों के साथ-साथ उनकी तथाकथित माओवादी गतिविधियों का भी  ज़िक्र था. इसी पत्र में राजीव गांधी की हत्या के  तर्ज पर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या करने के बारे में भी लिखा था.  इसी पत्र में यह भी लिखा गया था कि आठ करोड़ रुपये की ज़रूरत  है एम-4 बंदूक खरीदने के लिए, जिसमें लगभग चार लाख राउंड आते है.  इस पत्र को लेकर पूरे देश भर में हड़कंप मच गया था और मीडिया का एक बड़ा तबका 6 जून को गिरफ्तार हुए पांच मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश करने का आरोपी मानने लगा.

इन पांच गिरफ्तारियों के बाद अगली गिरफ्तारियों की  शुरुआत हुई रिपब्लिक न्यूज़ चैनल द्वारा जुलाई महीने में दिखाई गयी एक ख़बर के बाद जिसमें चैनल ने  सुधा भारद्वाज पर माओवादियों से सम्बन्ध होने के आरोप लगाए थे. रिपब्लिक चैनल ने इस खबर के दौरान एक पत्र दिखाया था जो की कथित रूप से सुधा भारद्वाज द्वारा कॉमरेड प्रकाश को लिखा गया था. इस खबर के बाद सुधा भारद्वाज ने रिपब्लिक चैनल पर मानहानि का दावा भी किया था.

न्यूज़लांड्री के पास मौजूद इस पत्र की कॉपी में  कथित रूप से लिखा गया था, “प्रिय कामरेड प्रकाश आईपीएल की बैठक के लिए 19 मार्च 2017 को मैं नागपुर गयी थी साथ में हैदराबाद से का. सुरेश, दशरथ  तथा महाराष्ट्र से महारुख और अंकित आये थे. कॉ. सुरेंद्र  और कॉ. शोमा सेन ने हमें काफी मदद की. उनसे सकरात्मक चर्चा हुई. कॉ सुरेंद्र द्वारा महाराष्ट्र तथा छत्तीसगढ़ के एंटीरियर में किये जा रहे ऑपरेशन की, जानकारी दी गयी. वह ग्राउंड लेवल पर दुश्मनों के खिलाफ अच्छा काम कर रहे है.”

इस तथाकथित पत्र में लिखा गया था कि प्रोफेसर साईं बाबा को सज़ा होने के बाद अर्बन कैडर में जो दहशत पैदा हो गयी है उसका प्रभाव रोकने के लिए कश्मीर अलगाववादियों द्वारा वहां के उग्रवादी संगठनों और उनके पारिवारिक सदस्यों तथा पत्थरबाज़ों को दिए जा रहे पैकेज के तहत हम अपने अर्बन तथा एंटरियर कॉमरेड्स को उनके काम के अनुरूप पैकेज तय कर दें  ताकि वह लोग हमारे संगठन के लिए पूर्ण रूप से समर्पित होकर काम करते रहें और किसी भी दुर्घटना और कानूनी परस्थिति का सामना करने के लिए मानसिक रूप से तैयार रहे.”

लगभग तीन पन्नो के इस पत्र में गौतम नवलखा, अरुण फरेरा  के अलावा नागपुर में कार्यरत बहुत से वकीलों, जगदलपुर लीगल ऐड ग्रुप, बस्तर सॉलिडेरिटी नेटवर्क, डिग्री प्रसाद चौहान आदि के नामों के साथ -साथ उनकी तथाकथित माओवादी गतिविधियों का भी जिक्र है. इस पत्र में मुंबई स्थित टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल सर्विस और दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता छात्रों को दूरवर्ती इलाकों में भी भेजने का भी उल्लेख  है. इस पत्र की लेखन शैली को देखा जाए तो मात्राओं की बहुत सी  त्रुटियां  नज़र आती हैं.

इस पत्र के मीडिया चैनल में आने के बाद पुलिस ने दूसरे दौर की गिरफ्तारी में सुधा भरद्वाज और अन्य चार लोगों (गोन्साल्विस, फरेरा , राव और नवलखा) को अगस्त 28 को गिरफ्तार कर लिए था. उन पर पुलिस ने एल्गार परिषद के ज़रिये भारत सरकार और महाराष्ट्र के खिलाफ षडयंत्र रचने के आरोप लगाए और उन्हें माओवादी पार्टी का सदस्य बताया.

इस गिरफ्तारी के बाद पुणे पुलिस द्वारा मुंबई में प्रेस कांफ्रेंस के दौरान और पुणे की अदालत में ऐसे कई दस्तावेज पेश किये गए जो तथाकथित रूप से 10 मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को माओवादी घोषित कर रहे थे, वह बात अलग है  कि  यह पत्र कितने प्रामाणिक है इस बात का किसी को नहीं पता.

न्यूज़लॉण्ड्री के पास मौजूद एक कोर्ट दस्तावेज़ के अनुसार पुणे पुलिस द्वारा गिरफ्तार किये गए लोगों के इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से बहुत से दस्तावेज मिले जिनमें से कुछ का उल्लेख नीचे दिया गया है और यह बताते है की गिरफ्तार किये गए लोगों का माओवादियों से सम्बन्ध है:

पुलिस द्वारा ज़ब्त किये गए दो जनवरी 2018 को लिखे  हुए एक  तथाकथित पत्र के अनुसार सुधा भारद्वाज ने 2 जनवरी 2018 को माओवादी फ्रंटल (माओवादी से जुड़े संघटन जो माओवाद का शहरी और ग्रामीण इलाको में प्रचार करते हैं) संगठन की बैठक में शामिल हुयी थीं, जिसमें पीपुल लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी की महिला सदस्यों के सामरिक प्रशिक्षण को और सशक्त करने की बात हुई थी और उन्हें बूबी ट्रैप और डायरेक्शनल माइनिंग का प्रशिक्षण दिए जाने पर भी चर्चा हुयी थी.

30 जुलाई 2017 को सुदर्शन द्वारा  गौतम नवलखा को लिखे गए पत्र में माओवादी पार्टी के निर्देश पर पूरे देश मैं फैक्ट फाइंडिंग मिशन के बारे लिखा था.

25 सितम्बर 2017 को   भूमिगत  कॉमरेड प्रकाश द्वारा लिखे गए एक पत्र के अनुसार, कंडुलनार और बासगुड़ा के इलाकों में  सुरक्षाबलों और रोड ओपनिंग पार्टी की मौजूदगी बढ़ गयी है इसलिए तार, कीलें, नाइट्रेट पाउडर आदि का प्रबंध किया जाए. उसी पत्र में  फरेरा और गोन्साल्विस द्वारा शोधकर्ताओं (रिसर्च स्कॉलर्स) को  माओवादी पार्टी  से जुड़ने के लिए प्रभावित करने का भी उल्लेख है.

एक पत्र में सुधा भारद्वाज और अरुण फरेरा को कॉमरेड प्रकाश द्वारा निर्देशत किया गया है  कि वह हैदराबाद में आईएपीएल (इंडियन एसोसिएशन ऑफ़ पीपुल्स लॉयर्स) की बैठक करवाएं, उसी पत्र में वकील परवेज़ इमरोज़ का नाम आया है, जिनके पुलिस के मुताबिक कश्मीरी आतंकवादियों से सम्बन्ध हैं.

पुलिस के कोर्ट में दिखाए हुए दस्तावेजों में एक ईमेल चंद्रशेखर उर्फ़ मुप्पाला लक्ष्मणराव गणपति (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, माओवादी) के महासचिव का भी है. 4 जुलाई, 2018 को लिखे गए इस तथाकथित ईमेल में  कॉमरेड चंद्रशेखर ने पुलिस द्वारा   कॉमरेड्स की गिरफ्तारी पर चिंता व्यक्त की है (पहले दौर की गिरफ्तारियों पर) और यह भी  निर्देश दिए हैं कि गिरफ्तारियों के दौरान पुलिस द्वारा ज़ब्त किये दस्तावेजों से कितना नुकसान हुआ है.

इसके अलावा पुलिस ने और भी  दस्तावेज कोर्ट में पेश किये थे, जैसे  कि  वामपंथी  तेलगु कवि वरवरा राव द्वारा सुरेंद्र गडलिंग को  शुद्ध हिंदी में लिखा हुआ पत्र. इस पत्र की विश्वसनीयता  पर इसलिए भी सवाल उठता है, क्योंकि शुद्ध हिंदी लिखना तो दूर राव ठीक से हिंदी बोल भी नहीं पाते हैं.

रिपब्लिक टीवी द्वारा दिखाए और पुलिस द्वारा ज़ब्त किये  गए (सुधा  भारद्वाज द्वारा  लिखा गया तथाकथित पत्र)  में  कई और वकीलों का नाम शामिल है जिनसे न्यूज़लॉन्ड्री ने बात की है. हैरत की बात तो यह है कि इनमें से कई लोगों को इस पत्र के मीडिया में आने पहले तक तो सुधा भारद्वाज का नाम तक नहीं पता था. इन वकीलों पर उस  तथाकथित पत्र में  माओवादी कैडर के लिए काम करने की बात लिखी थी.
न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए  नागपुर में रहने वाले सुदेश नितनवरे कहते हैं, “मैं तो एक मामूली सा इनकम टैक्स वकील हूं, मेरा नाम उस लेटर में कैसा आया मुझे अन्दाज़ा तक नहीं है. कभी-कभी कभार कोर्ट में शायद गाडलिंगजी (सुरेंद्र गडलिंग) से मिलना हो जाता था बस. उससे ज़्यादा कुछ नहीं.  मैं पहले से ही कैंसर की बीमारी से ग्रसित हूं. पता नहीं अब और क्या मुसीबत आ जाए. मीडिया में जब तक नहीं आया था उसके पहले तो मैंने सुधा भारद्वाज का नाम तक नहीं सुना था.”

निहाल सिंह  राठौड़, जो कि सुरेंद्र गडलिंग के जूनियर हैं और उनकी एल्गार परिषद के मुक़दमे में पैरवी भी कर रहे हैं का नाम भी उस पत्र में लिखा था, वह कहते हैं, “यह पत्र पूरी तरह से फर्जी है, जितना मेरी जानकारी है नागपुर में इस तरह की कोई मीटिंग भी नहीं हुयी थी. अगर उस पत्र को देखें तो साफ़ नज़र आएगा कि यह पत्र किसी मराठी भाषी व्यक्ति ने लिखा है, उसमें मात्राओं की तो गलती है ही साथ में जिस तरह से उसमें एडवोकेट लिखा गया है वैसे  महाराष्ट्र में ही लिखा जाता है. यह पूरा मामला ही फर्जी है.”


मुंबई में रहनी वाली टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेस की पूर्व शिक्षक और  जेल में कैद आर्थिक रूप से गरीब महिलाओं के लिए वकालत करने वाली मोनिका सखरानी का नाम भी उस पत्र में था, वह कहती हैं, “जब मैंने यह सुना था तो में हैरान हो गयी. सरासर झूठी खबर दिखाई थी टीवी पर. मैं पहले टिस में पढ़ाती थी, उसके पहले भी वकालत कर रही थी और उसके बाद भी कर रही हूं. लेकिन आज तक मेरे किसी भी ऐसे संगठन से सम्बन्ध नहीं रहे हैं. बहुत ही झूठी और बेबुनियाद बात है यह.”

कोलकाता में  द  हिन्दू  अख़बार के ब्यूरो चीफ और वरिष्ठ पत्रकार सुवोजित बागची जिन्होंने लगभग एक दशक तक छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद को बड़े करीब से देखा है, कहते हैं, “हकीकत यह है कि जो सरकार पहले मध्य भारत के आदिवासियों के साथ करती थी अब वह शहर में रह रहे लोगों के साथ कर रही है. अगर आप बारीकी से आदिवासियों के खिलाफ मुकदमों को देखेंगे तो पाएंगे  कि उनके खिलाफ कोई मुक़दमा बनता ही नहीं है. उनको बस पकड़ लिया जाता है क्योंकि उनके पास कोई होता नहीं है छुड़ाने के लिए.” जैसे ही आदिवासी किसी मानवाधिकार संघटन जैसे कि जगदलपुर लीगल ऐड ग्रुप की मदद से जमानत लेते हैं पुलिस उन पर फिर से दूसरे आरोप लगाकर उनको अंदर कर देती है. यह सब  आदिवासियों के साथ सदियों से हो रहा था  लेकिन अब यह मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और मध्यवर्ग के लोगों के साथ हो रहा है.

गौरतलब है कि शनिवार को जिस दिन सुधा भारद्वाज को पुणे की अदालत में पेश किया गया था, कमेटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ डेमोक्रेटिक राइट्स के 65 वर्षीय कोषाध्यक्ष सुरेश राजेश्वर को पुणे पुलिस ने तलब किया था. राजेश्वर सुबह 11 बजे से शाम 5:30 बजे तक  स्वारगेट पुलिस थाने में थे. उन्होंने बताया  पुलिस उनसे तमाम सवाल कर रही थी  और पूछ  रही थी कि सुधा  भारद्वाज, अरुण फरेरा, वर्नन  गोन्साल्विस को कैसे जानते हो. वे कहते हैं, “मैं साल 1980 से सीपीडीआर के लिए काम कर रहा हूं. पुलिस ने मुझसे  सीपीडीआर के बैंक खातों का ब्यौरा भी मांगा जो मैंने उनको दे दिया. सुबह से लेकर शाम तक चल रही पूछताछ में मैंने उनके सभी सवालों के जवाब दे दिए थे. जब कुछ गलत किया ही  नहीं तो डरना कैसा.”

फिलहाल गौतम नवलखा और वरवरा राव के अलावा बाकी सभी मनाधिकार कार्यकर्ता पुलिस की गिरफ्त में हैं. उनका केस भारत में मानवाधिकारों के लिए एक परीक्षा है.