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भोपाल के युवा जिन्होंने सरकार का मुंह ताकने की बजाय खुद ही अपनी किस्मत लिख डाली

28 नवम्बर को होने वाले चुनाव के रंग में रंगा भोपाल जिले का केकड़िया गांव ऊपरी तौर पर देश के आम गांवों जैसा ही नज़र आता है, लेकिन थोड़ी देर यहां रुकने पर आप पाते हैं कि तकरीबन 1300 की आबादी वाले इस गांव के बाशिंदे और युवा कुछ मायनो में विशेष हैं. भील सुमदाय की बहुलता वाले इस आदिवासी गांव के बारे में भोपाल के लोगों को भी कम ही पता है.

केकड़िया गांव की विशेषता यह है कि 28 साल की उम्र के ऊपर का हर व्यक्ति यहां अनपढ़ है और उसके नीचे का हर व्यक्ति शिक्षित. यहां के युवा पंचायत के कामों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं और यह कोशिश करते हैं कि गांव की हर बुनियादी ज़रूरतें पूरी हों, अगर सरकार की मदद नहीं मिलती है तो ये युवा खुद ही  गांव के हित में जरूरी कामों को स्वयंसेवा के जरिए पूरा करते हैं.

अलीराजपुर और धार जिले के आस-पास के इलाकों से 1950 में यहां आए भील समुदाय के लोगों ने इस गांव को अपना नया आशियाना बनाया. आज गांव में  एक आईटी (इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी) लैब भी है जहां बच्चों को कंप्यूटर की शिक्षा दी जाती है और युवा डेटा एंट्री का भी  काम करते हैं. 1950 में स्थापित हुए इस गांव में पहला स्कूल 1994 में स्थापित हुआ. उस ज़माने में प्राथमिक विद्यालय में पढ़े हुए विद्यार्थियों में से सिर्फ एक व्यक्ति स्नातक तक की शिक्षा पूरी कर पाया था. वह इस गांव का पहला स्नातक था. लेकिन अब यहां का अंदाज़े बयां कुछ और है.

आज इस गांव के युवा  सिर्फ स्नातक ही नहीं हैं, बल्कि इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ होटल मैनेजमेंट और नेशनल लॉ इंस्टिट्यूट यूनिवर्सिटी जैसे संस्थानों में पढ़ रहे हैं या पढ़ कर नौकरियों में लग गए हैं.

ऐसा नहीं है कि केकड़िया गांव में समस्याएं नहीं हैं लेकिन यहां के युवा इतने जागरूक हैं कि समस्याओं से निपटने के लिए व्यक्तिगत स्तर पर तैयार  रहते हैं. एमकॉम की पढ़ाई कर रहे और मध्य प्रदेश में जनअभियान परिषद (जो सरकार की योजनाओं के बारे में लोगों को बताता है) में काम करने वाले दानवीर निंगवाल कहते हैं, “यहां के युवा शिक्षित हैं और गांव से संबंधित कार्यों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं.  गांव में लोगों के घरों में पानी पीने के सिर्फ 35 सरकारी कनेक्शन थे लेकिन यहां के युवाओं ने खुद काम कर के यहां पानी के और भी  नल लगवाए जिससे गांव वालों की पानी की ज़रुरत पूरी हो सकी है. पंचायत की बैठक में सभी गांव वाले भाग लेते हैं और अपनी-अपनी राय रखते हैं. हमारी पंचायत में सबसे पहले बोलने का हक महिलाओं को है.”

दानवीर आगे कहते हैं, “हमारे बड़े बुजुर्ग धार और अलीराजपुर से  यहां 1950 में आकर बस गए थे. सरकार की तरफ से सभी को आदिवासी अधिकार नियम के तहत 2.5 एकड़ खेती की ज़मीन दी गयी थी. तब यहां कुछ भी नहीं था, इस गांव के 28 साल के ऊपर के सभी लोग निरक्षर हैं. लेकिन वक़्त रहते रहते यहां स्कूल भी खुला और शिक्षा का महत्व हमारे आदिवासी समाज में बहुत है. धीरे धीरे यहां के सभी युवा पढ़ने लगने और शिक्षित हुए. लेकिन नौकरी की समस्या आज भी है. हमारे गांव के युवा पढ़े-लिखे तो हैं लेकिन उनके पास नौकरी नहीं है. इस गांव के तकरीबन 500 लड़के-लड़कियां शिक्षा ले रहे हैं, जिनमें से तकरीबन 30% ग्रेजुएट हैं.

दानवीर के साथ गांव के कामों को देखने वाले 24 साल के देवेंद्र तोमर कहते हैं, “इस गांव में एक समुदाय भवन है जिसमें  आईटी लैब है. बच्चों को पढ़ाने की एक क्लास है और स्वास्थ्य शिविर लगाने के लिए जगह है. यहां हम गांव के बड़े-बुजुर्गों या जो अशिक्षित हैं  उनके सरकारी योजनाओं से सम्बंधित फॉर्म भी भरते हैं. आज से तीन साल पहले यह समुदाय भवन पंचायत भवन की एक इमारत था जो कि एक खण्डर से ज़्यादा कुछ नहीं था. लेकिन अभेद्य एजुकेशन और वेलफेयर सोसाइटी (समाजसेवी  संस्था) की मदद से हमने इसकी सूरत बदल दी है. जन सहयोग से यह पूरा समुदाय भवन बनाया गया है.”

गांव में आईटी लैब शुरू करने के पीछे उद्देश्य था गांव में ही रोज़गार पैदा हो.

देवेंद्र बताते हैं, “शाम को चार बजे समुदाय भवन में बच्चो को  नवोदय विद्यालय की प्रवेश परीक्षा की तैयारी कराई जाती है. इसके अलावा यहां दसवीं क्लास के बच्चों को बोर्ड की परीक्षा की भी तैयारी कराई जाती है, जिससे कि परीक्षा में अच्छे नंबर मिल सके.”

समुदाय भवन के सामने है पंचायत भवन है और उसके बाहर एक छोटा सा मैदान जहां ग्रामसभा लगती हैं. दानवीर कहते हैं, “आज से दो साल पहले ग्रामसभा एक मज़ाक थी, लेकिन अब यहां के युवा उसमें हिस्सा लेते है और साथ ही बाकी लोगों से भी ग्रामसभा में शामिल होने को कहते हैं. सबके शामिल होने से गांव की बहुत सी समस्याओं  पर चर्चा भी हो जाती है और उन समस्याओं को सुलझाने के लिए उपाय भी सोच लिए जाते हैं.”

देवेंद्र कहते हैं, “दानवीर कांग्रेस का समर्थन करते हैं और मैं भाजपा का लेकिन गांव की बेहतरी से ऊपर कुछ नहीं हैं. हम सब साथ में मिलकर काम करते हैं.” गांव के युवाओं द्वारा बनाये हुए नलों और सड़क का हिस्सा दिखाकर, वह कहते हैं, “हम सब श्रम दान करते हैं और गांव की सड़क हो या नल अगर सरकारी मदद नहीं मिलती हैं तो यह सब काम खुद ही कर देते है.”

दानवीर और देवेंद्र के अलावा गांव में ऐसे लगभग सौ युवा हैं जो एक साथ मिलकर काम करते हैं. यह युवा गांव पंचायत समिति के साथ जुड़कर शिक्षा और स्वास्थ से जुड़े मुद्दों की निगरानी करते हैं. ये देखते हैं कि गांव में टीकाकरण ठीक से हो रहा है कि नहीं. गांव के विद्यालय में शिक्षक सही समय पर आ रहे हैं कि नहीं, सही तरीके से पढ़ाई हो रही कि नहीं, मध्याह्न  भोजन (मिड दे मील) ढंग का है या नहीं.

एक रोशनी: अमिताभ सोनी

हालांकि कि केकड़िया गांव के युवक शिक्षित है, लेकिन इनको ज़्यादा जागरुक बनाने  में और गांव में आईटी लैब से लेकर समुदाय भवन लाने में 44 साल के अमिताभ सोनी का सबसे बड़ा हाथ है. अमिताभ जो 10 साल तक लन्दन में वहां की सरकार के समाज कल्याण  विभाग (सोशल वेलफेयर  बोर्ड) में काम करते थे, साल 2014 में  हिन्दुस्तान वापस लौट आये. फरवरी 2015 में उन्होंने इस गांव के युवाओं के साथ काम करना शुरू किया और यहां का नक्शा ही बदल दिया.

अमिताभ कहते हैं, “मैं जब लंदन गया था तो सोचा था कि कुछ 4-5 साल बाद लौट आऊंगा लेकिन पूरे दस साल लग गए. यहां आने के बाद मैं भोपाल में आदिवासी समुदाय के लोगों से पूछा करता था कि आपका गांव कहां है, ऐसे पूछते-पूछते मुझे केकड़िया गांव के बारे में पता चला. मैं यहां आया और यहां के बड़े बुजुर्गों और युवाओं से बात की. शुरुआत में मैं उनसे बस यही कहता था कि वे अपने गांव के स्कूल में मुझे पढ़ाने के मौक़ा दें, जिससे कुछ मैं उनको कुछ सिखा सकूं. तभी से मैं वहां काम कर रहा हूं.”

अमिताभ  के मुताबिक उनका लक्ष्य एक ऊर्जावान लोकतंत्र  को स्थापित करना है जो वैश्विक स्तर पर खरा उतरे. गांव में आईटी लैब को स्थापित करने का मुख्य कारण यही है. आईटी के जरिये लोगों को नौकरी मिलेंगी, उससे विस्थापन रुकेगा. लड़कियां भी वहां नौकरी कर सकेंगी क्योंकि उनके माता-पिता बाहर ते शहरों में जाने नहीं देते हैं.

अमिताभ द्वारा चलाये जा रहे ग़ैर सरकारी संघटन अभेद्य के जरिये गांव के 40 बच्चे (जिनमें 37 लड़कियां हैं) केकड़िया के पास ही एक  निजी स्कूल में पढ़ने जाते हैं. इन बच्चों की पढाई का खर्च 40 लोग उठाते हैं जो अमिताभ  के दोस्त या परिचित हैं. अमिताभ गांव के युवाओं की मदद से शिक्षा, रोज़गार, आजीविका, बिजली और पानी से जुड़े मुद्दों पर काम कर रहे हैं. वे कहते हैं, “जैविक  खेती पर हमने काम करना शुरू किया है, जिससे कि लोगों को रोज़गार मिले, ग्रामसभा ढंग से चलना जरूरी हैं जिससे  ज़मीनी स्तर पर वहीं के लोगों का एक नेतृत्व तैयार होगा.”

हालांकि  केकड़िया के युवा शिक्षित हैं लेकिन बेरोज़गारी की दर इन्हें भी परेशान करती है. बीएससी  तक पड़े हुए राजेश तोमर कहते हैं, “मैंने अपनी बीएससी तक की पढ़ाई पूरी कर ली है और अभी सरकारी नौकरियों की परीक्षा की तैयारी कर रहा हूं. बहुत बार तो पूरी नियुक्तियां ही नहीं होती. पद खाली रह जाते हैं. डर लगता है कि पता नहीं नौकरी मिलेगी या नहीं. अगर नहीं मिली तो खेती करूंगा.”

प्रमाण-पत्र की परेशानी

गौरतलब है कि गांव के युवाओं  और अमिताभ सोनी द्वारा शुरु की गयी पहल से केकड़िया  गांव में बहुत बदलाव आ रहे लेकिन अभी गांव के लोगों  को सबसे ज़्यादा इस बात  से परेशानी है  कि आदिवासी होने के  बावजूद भी अधिकांश  लोगों के पास जाति प्रमाण पत्र नहीं है.

दानवीर बताते हैं, “भोपाल कलेक्ट्रेट में जब भी हमारे गांव के लोग जाति प्रमाण पत्र बनवाने जाते हैं, उन्हें  वहां से लौटा दिया जाता है. उनसे कहा जाता है कि वह प्रमाण दिखाए कि 1950 से गांव में रह रहे हैं. जब हमें आदिवासियों के लिए बनाये नियमों के तहत पट्टे बाटे गए हैं, तो वह क्या प्रमाण नहीं है कि हम यहां रहते आ रहे हैं. हमारे गांव में सिर्फ 50-60 लोगों के पास जाति प्रमाण पत्र है और वह भी अलीराजपुर से बनवाया हुआ.”

गौरतलब है कि जून 2018 में भोपाल के कलेक्टर  ने यह आदेश जारी कर दिया था कि जिनके पास जाति प्रमाण पत्र नहीं है, उन्हें अनुसूचित  जनजाति की श्रेणी में कॉलेज में दाखिला नहीं दिया जाएगा और ना ही छात्रावास में रहने की जगह दी जायेगी. इस आदेश के तहत 15 आदिवासी छात्र-छात्राओं को छात्रावास से निकाल दिया गया क्योंकि उनके पास जाति प्रमाण पत्र नहीं था.

65 साल के विस्टा सिंह निंगवाल कहते हैं, “जाति प्रमाणपत्र बनाने के लिए हमारे गांव के लोगों को अलीराजपुर जाना पड़ता है. यह एक बहुत पेंचीदा काम है, क्योंकि हम इतने सालों से यहां रह रहे हैं, वहां कुछ लोगों को तो रिश्तेदारों की मदद से जाति प्रमाण पत्र मिल जाता है लेकिन बहुत से लोगों को नहीं मिलता है.”

विस्टा यह भी बताते हैं कि जब भील आदिवासी इस गांव में आये थे तब यहां कुछ नहीं था सिवाय जंगल के, रोड भी नहीं थी. अगर कोई बीमार हो जाता था तो उसके खटिया पर रखकर चार लोग उठाकर ले जाते थे. हमने तो अपना जीवन जी लिया है अब सब इन नए बच्चों के हाथ में.

गौरतलब है कि बिजली, पानी और अन्य बुनियादी चीज़ों की कमी होने के बावजूद यहां के युवा अपने आपको शिक्षित और सचेत कर अपने समुदाय की सूरत बदलने की कोशिश कर रहे हैं