Newslaundry Hindi
यौन हिंसा पर गोलमेज: सेक्स और उसके इर्द-गिर्द मौजूद अदृश्य सीमाएं
मीटू मूवमेंट के दौरान यौन शोषण या सेक्शुअल हरासमेंट को लेकर जो बहस दो महीने पहले सोशल मीडिया से लेकर हमारी सोशल लाइफ़ में शुरू हुई थी, वो अब ऐसे मुकाम तक पहुंच चुकी है, जहां उस पर और ज्यादा समझदारी भरे संवाद की संभावना क्षीण हो चुकी है. इसकी एक वजह शायद इस बहस का सैचुरेटेड हो जाना भी है.
पब्लिक स्फ़ीयर में होने वाली इन बहसों से हमारे सार्वजनिक जीवन में एक किस्म की सामाजिक, राजनीतिक और व्यावसायिक जागरुकता तो आई है. इसके मूल में घर के बाहर काम करने वाली औरतों को किस तरह से मर्दवादी सिस्टम में तमाम तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, उस समस्या के प्रति समाज को संवेदनशील करने की कोशिश भी दिखी है. दूसरी तरफ़ इस पूरे संवाद के दौरान दो लोगों के बीच स्थापित होने वाले यौन रिश्ते के दौरान जो समझौता या समर्पण होता है, उसका कहीं न कहीं सामान्यीकरण कर दिया गया.
सोनीपत स्थित अशोका यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर स्टडीज़ इन जेंडर एंड सेक्शुअलिटी और पार्टनर्स फॉर लॉ इन डेवेलपमेंट नाम की ग़ैर-सरकारी संस्था ने मिलकर दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में एक राउंड टेबल बहस का आयोजन किया. इस बहस का मक़सद इस पूरी प्रक्रिया को नए सिरे से खोलना और पीड़ित और अपराधी के विवरण को नए सिरे से समझना था. एक समाज के तौर पर ये समझना जरूरी है कि शारीरिक हिंसा या शारीरिक उत्पीड़न किन-किन लोगों के बीच और किन-किन तरीकों से हो सकता है. इसमें यौन हिंसा एक प्रमुख मुद्दा था.
ये बातचीत तीन पैनलों के बीच पूर्ण हुई. इसमें सेक्शुअल डिज़ायर के अनेक आयामों पर चर्चा की गई, जिसमें आकर्षण, बाउंड्री सेटिंग, एजेंसी यानि अथॉरिटी, ट्रांसग्रेशन यानि अतिक्रमण आदि पर खुलकर चर्चा की गई. चर्चा में अशोका यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर स्टडीज़ इन जेंडर एंड सेक्शुअलिटी की डायरेक्टर माधवी मेनन, अंबेडकर यूनिवर्सिटी से जेंडर स्टडीज़ की असिस्टेंट प्रोफेसर शिफ़ा हक़, साइको थेरेपिस्ट और लेखिका अमृता नारायणन और साइको-थेरेपिस्ट दिव्या रस्तोगी तिवारी, वाईपी फाउंडेशन से मानक मटियानी, मेंटल हेल्थ एक्टिविस्ट रत्नाबली-रे, अवली ख़रे और प्रोफेसर शोहिनी घोष शामिल हुईं. इसके अलावा प्रतिभागी के तौर पर महिला, पुरुष और प्रोफेशनल्स के अलावा एलजीबीटी समूह के भी कई लोग मौजूद रहे.
बहस के दौरान ये समझने की कोशिश की गई कि क्या हम रज़ामंदी से स्थापित किए गए रिश्तों को कोडिफाई या साकेंतिक शब्दों में ढाल सकते हैं? क्या हम सब हमारे समाज में व्याप्त सांस्कृतिक अंतर्भाव और औपचारिक ढांचों को इस हद तक समझते हैं जो हमें ये बताता है कि, हर शरीर की अथॉरिटी कोई और है. मसलन, सिर्फ़ एक सामाजिक या भावनात्मक रिश्ता आपको किसी के शरीर का मालिक नहीं बना देता है. साथ ही ये भी कि अगर हर शरीर की एजेंसी अलग है तो उस शरीर के साथ संबंध बनाने, उसके साथ किस-किस तरह से संबंध स्थापित किया जाए, सामने वाला किस हद तक कंफर्टेबल है और सामने वाला कब कंफर्टेबल नहीं है. और यहीं पर दो लोगों के बीच पॉवर यानि का ताक़त का जो अंतर है वो कई बार रिश्तों को निर्धारित करने लगता है.
एक विकासशील समाज के लिए ये सवाल नए तो बिल्कुल नहीं है लेकिन, इन सवालों पर बिना किसी झिझक के, किसी नैतिक दबाव के मनोवैज्ञानिक चश्मे और सांस्कृतिक प्रैक्टिस के संदर्भ में चर्चा करना ये ज़रूर एक नई पहल थी. इसके ज़रिए न सिर्फ़ सेक्स से जुड़ी इच्छाएं जैसे वर्जित और जटिल विषय पर खुल कर बात करने की कोशिश की गई. इस पूरी प्रक्रिया के दौरान आने वाली दिक्कतों और दोनों पार्टनर्स की हद, उत्पीड़न की सीमाओं, उसके प्रति हमारा नज़रिया, यौन हिंसा, कानून और सज़ा इन सब पर खुलकर चर्चा हुई.
साइकोएनालिटिक साइकोथेरेपिस्ट दिव्या रस्तोगी तिवारी ने विस्तार से इन विषयों की जटिलता पर रोशनी डाला. आपसी प्यार और इज्जत वाले रिश्ते में भी कई बार अंतरंग संबंध स्थापित करने के दौरान कई बार हद तय करना मुश्किल और पेचीदा हो सकता है. इसमें, पुरुष वर्चस्व से लेकर हमारी सामाजिक, सांस्कृतिक, लैंगिक और संबंधों से जुड़ी सोच हावी हो सकती है. कई बार डर का भाव भी शामिल होता है. ये परिवार से लेकर हमारे दफ़्तरों तक में आम-बात है, जहां अक्सर अथॉरिटी वाली सीट पर कोई पुरुष बैठा होता है. ऐसे में अतिक्रमण को लेकर कोई अपने मन में एक तयशुदा सीमा कैसे खींचें और इसके क्या नियम क़ायदे होने चाहिए, ये आज भी एक अबूझ सवाल बना हुआ है.
पैनल ने इन्हीं सवालों के बीच से कन्सेंट या सहमति की तरंगों को कैसे पकड़ा या समझा जाए, उसको भी खंगालने की कोशिश की- बिना किसी कानूनी दायरे में गए. देश ही नहीं पूरी दुनिया में जब एक किस्म की हाइरार्की का बोलबाला है और जब उसे ही सामान्य या नॉर्मल मान लिया गया है– तब वहां आपसी रज़ामंदी को समझ पाना आसान नहीं होता.
ऐसे में जब हर कदम या हर मापदंड पर स्त्री और पुरुष के बीच ताकत का बहुत बड़ा अंतर पाया जाता है, तब एक-दूसरे की सहजता, सुख़, इच्छा, अनिच्छा, पसंद–नापसंद, सेक्स से जुड़ी कलाएं, तरीकों, आनंद और विरक्ति के दुरूह सवालों का सामना कैसे किया जाय?
इस बहस में रत्नाबली रे ने हस्तक्षेप किया. उन्होंने सेक्शुअल या यौन संबंध स्थापित करने की प्रक्रिया में एक व्यक्ति की जो साइको-सोशल डिसएबिलिटी होती है उस पर बात की. रे ने बताया कि कैसे हमारे समाज में सेक्शुअल एक्सप्रेशन को लेकर जो एक रुढ़िवादी और कट्टर समझ और सोच धीरे-धीरे विकसित होकर स्थापित हो चुकी है वो हमें इस प्रक्रिया के दौरान दूसरे पक्ष के हित, उसकी खुशी और उसके सुख़ के साथ एकाकार होने में नाकाम करती है. यही वजह है कि दो लोगों के बीच जो संबंध फैंटेसी, सिडक्शन, समझदारी और खुशनुमा एहसास के साथ जुड़ता है वो बाद में किसी एक और कई बाद दोनों के लिए एक तकलीफ़देह या यातनापूर्ण अनुभव में तब्दील हो जाता है.
महान दार्शनिक अरस्तु ने कहा है- ‘स्पीच इज़ द मेन एक्ट’, यानि हमारी भाषा वो औज़ार है जिसके ज़रिए हम दूसरों को देखते हैं और दूसरे हमें देखते हैं. और यही भाषा अक्सर महिलाओं को बार-बार ये एहसास कराती है कि उन्हें अपने शरीर के स्वामित्व को भूल जाना चाहिए, जहां मौखिक हिंसा या मौखिक दबाव की शुरुआत हो जाती है. इस बात को आने वाले कई सदियों तक नकारा नहीं जा सकता कि हर रिश्ते का एक राजनीतिक पक्ष होता है, और किसी के साथ शारीरिक रिश्ता होने का मतलब ये बिल्कुल नहीं होता कि वो दो लोगों के बीच अमानवीय रिश्ता बन जाए. मौजूद समय में सेक्स बहुतयात में घट रहा है, लेकिन उसमें सेक्शुलिटी यानि हमारी लैंगिकता को गलत तरीके से समझा जा रहा है.
समय आ गया है कि जो शरीर दूसरों के लिए ऑबजेक्ट और हमारे लिए हमारा व्यक्तिगत मसला है, उसमें आलोचनात्मक रवैया अपनाने के बजाय हमें उसे लेकर और ज़्यादा समावेशी और संवेदनशील हो जाएं. ताकि हमारे सेक्शुअल एनकाउंटर्स हमें अमानवीय न बना दें.
Also Read
-
TV Newsance Live: What’s happening with the Gen-Z protest in Nepal?
-
How booth-level officers in Bihar are deleting voters arbitrarily
-
Why wetlands need dry days
-
Let Me Explain: Banu Mushtaq at Mysuru Dasara and controversy around tradition, identity, politics
-
South Central 43: Umar Khalid’s UAPA bail rejection and southern leaders' secularism dilemma