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मोदी के किए नुकसान का बिल मुख्यमंत्रियों के नाम से काट रही है भाजपा

11 दिसंबर, 2018 को भारतीय जनता पार्टी अपने इतिहास में एक बुरे सपने के रूप में याद रखेगी. पार्टी 5 राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में से एक भी नहीं जीत सकी साथ ही 15 सालों से उसकी झोली में पड़े दो महत्वपूर्ण राज्य भी उसके हाथ से निकल गए.

यूं तो भाजपा ने जब से कांग्रेस-मुक्त भारत का नारा दिया है, तब से हर चुनाव ही ‘बड़ा’ चुनाव हो गया है. 2014 के बाद से स्थानीय निकायों के चुनावों में भी भाजपा को मिलने वाली जीत को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर मुहर और कांग्रेस पार्टी के निर्मूलन की तरफ बढ़ाया गया एक और कदम बताना दस्तूर हो गया है.

ऐसे में पांच विधानसभाओं के लिए हुए चुनावों के इन नतीजों को कैसे देखा जाए, जिनमें भाजपा के हाथ लगा है सिर्फ एक बड़ा सा सिफर? मध्य प्रदेश को ही लीजिए जहां भाजपा 2013 में 165 सीटों पर जीती थी, इस बार 110 सीटों पर सिमट गई है. शिवराज सिंह चौहान सिर्फ लगातार तीन कार्यकाल पूरा करने वाले मुख्यमंत्री ही नहीं हैं, बल्कि पार्टी में मोदी-युग की शुरुआत से पहले के स्थापित नेता हैं. जहां मोदी मुख्यमंत्री बनने से पहले पार्टी के कई महासचिवों में से एक थे, शिवराज मुख्यमंत्री बनने से पहले पांच बार सांसद रह चुके थे.

जिस समय मोदी अपने आप को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित करवाने के प्रयासों में जुटे हुए थे, शिवराज भी अडवाणी-कैंप की तरफ से उसी पद के दावेदार थे. मौके की नज़ाकत को समझते हुए उन्होंने स्थिति से समझौता किया और पार्टी के बाकी सभी नेताओं की तरह ही मोदी-भक्ति में खुद को लीन कर लिया. इसका उन्हें इनाम भी मिला. पार्टी के संसदीय बोर्ड में स्थान पाने वाले वे एकमात्र मुख्यमंत्री हैं.

ये कहना आसान है की शिवराज 15 साल की एंटी-इंकम्बेंसी और वोटरों के बीच पैदा हुई थकान का सामना कर रहे थे, ठीक वही कारक जिन्होंने ने छत्तीसगढ़ में भी भाजपा के 15 साल के शासन का अंत कर दिया. पर क्या ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ के नारे के पीछे ये सोच नहीं है की भाजपा पूरे देश के नक़्शे से ही कांग्रेस का नामोनिशान लम्बे समय के लिए मिटा देगी? क्या मोदी-शाह की इस परियोजना में एंटी-इंकम्बेंसी और वोटर की थकान जैसी वास्तविकताओं के लिए कोई जगह है? खुद अमित शाह कह ही चुके हैं कि भाजपा आने वाले 50 सालों तक राज करेगी.

मध्य प्रदेश की हार का पूरा ठीकरा शिवराज के सर पे ही फोड़ते हुए, भाजपा के प्रवक्ता इन नतीजों के विश्लेषण में ये कह रहे हैं की ये मोदी की ही लोकप्रियता है की 15 साल की एंटी-इंकम्बेंसी के बावजूद पार्टी ने कांग्रेस को कांटे की टक्कर दी है. इन्हें कोई बताये की कांटे की टक्कर चैलेंजर देता है, इंकमबेंट नहीं. और रही बात मोदी की लोकप्रियता की, तो उन्होंने तो राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी कैंपेन किया ही था. वहां की हार का भी ठीकरा मुख्यमंत्रियों के सर पर ही फोड़ेंगे?

चलिए बिल किसी के भी नाम पर काटिये, पर इतना तो मानिए की कभी आप जिसे भाजपा का विजय रथ कह रहे थे वो अब रुक चुका है. भाजपा पहले गुजरात में हारते-हारते बची, फिर कर्नाटक में कांग्रेस से सत्ता हासिल कर लेने में असफल रही और अब छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश गंवा बैठी. छत्तीसगढ़ में तो इतने बड़े अंतर से हारी जितने बड़े अंतर से आज तक जीत नहीं पाई थी.

इशारा सिर्फ स्थानीय एंटी-इंकम्बेंसी की तरफ नहीं है. जनता ने कम से कम इतना तो साफ़-साफ़ कह दिया है कि वो सिर्फ मोदी के नाम पर पार्टी को वोट नहीं देगी. वोट लेना है तो मोदी का नाम जपने से आगे बढ़ना पड़ेगा. जुमलों वाले विकास की जगह असली विकास देना होगा. नौकरियां देनी होंगी. किसान को फिर से खुशहाल बनाने का, वंचितों को मुख्यधारा से जोड़ने का, मध्यम वर्ग को सुदृढ़ व्यवस्था देने का और छोटे और मझोले व्यापारियों को हुए नुकसान की भरपाई का स्पष्ट मानचित्र देना होगा.

इसके लिए भाजपा को अपनी भाषा बदलनी पड़ेगी. धर्म-जात, गाय-भैंस और मंदिर-मस्जिद से आगे सोचना होगा. क्या इतना बड़ा परिवर्तन अगले लोकसभा चुनावों के पहले बचे सिर्फ इन आखिरी चार महीनों में संभव है? अगर संभव हो भी तो भाजपा इसके संकेत तो बिलकुल नहीं दे रही है. इस वक़्त पार्टी और पूरे संघ परिवार की कार्यप्रणाली पर सिर्फ एक विषय हावी है- राम मंदिर.

मंदिर के मुद्दे को ज़ोर शोर से उछालने की सिर्फ सरकारी कोशिश ही नहीं हो रही है. 1992 के जैसा उन्माद फैलाने का प्रयास किया जा रहा है. बाबरी की तरह ही और भी मस्जिदों को गिरा देने के नारे दिए जा रहे हैं. एक समुदाय विशेष को डरा कर दूसरे समुदाय को गोलबंद करने की कोशिश की जा रही है.

ये संकेत अच्छे तो नहीं ही हैं, इनका मतलब भी साफ़ है. भाजपा को भी अपने पांव तले ज़मीन खिसकती हुई नज़र आ रही है. लोकसभा चुनावों की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी है. अबकी बार मुहर केवल मोदी के नाम पर नहीं लगेगी, कमल की तरफ झुकी हुई ऊंगली संभव है कि मोदी का नाम सोच कर बिफर न जाए. भाजपा को ज़रुरत है एक नए विकल्प की, एक नए नैरेटिव की. फिलहाल, नया नैरेटिव देने की रेस में विपक्ष ने एक बड़ी बढ़त ले ली है.