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राहुल गांधी को मिली मखमली जीत और कुछ अन्य बातें
ऋगवेद का एक श्लोक स्कूलों में पढ़ाया जाता है- “सं गच्छध्वम्, सं वदध्वम्”. इसका अर्थ है- साथ मिलकर चलें, साथ मिलकर रहे. उसी सनातन मार्ग का अनुसरण करें जिस पर हमारे पूर्वज चले.
यह श्लोक भारतीय सनातन परंपरा की आत्मा को व्यक्त करता है. इसमें सबके लिए स्थान है, सबको समाहित कर आगे बढ़ने की क्षमता है, इसे आप सहिष्णुता भी कह सकते हैं, पंथ निरपेक्षता भी कह सकते हैं. यह किसी से ‘मुक्त’ होकर नहीं अपितु सबके साथ ‘युक्त’ होकर चलने की बात करता है.
बीते पांच सालों में भारतीय राजनीति की गति रोलरकास्टर मशीन की तरह रही है. इसके कई ऐतिहासिक मूल्यों पर चोट की गई, संविधान को नकारा गया, इसका मूल चरित्र बदलने की गंभीर कोशिशें की गई. विध्वंस और बंटवारा इस दौरान राजनीति के केंद्र में आ गए, विश्वबंधुत्व और सहिष्णुता परिधि पर खिसक गए. राजनीति को ‘मुक्त’ और ‘युक्त’ के दो स्पष्ट खांचों में बांट दिया गया. इसका श्रेय पूरी तरह से भारतीय जनता पार्टी और मोदी-शाह की जोड़ी को जाता है.
‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का लोकप्रिय, भीड़ जुटाऊ, क्षणिक नारा इस राजनीति का सबसे ताकतवर हथियार बन कर उभरा. इस नारे की चरम लोकप्रियता के दौर में कृषकाय विपक्ष के पास दिखाने को ही सही ‘मुक्त’ के विकल्प के रूप में ‘युक्त’ ही शेष बचा था. राहुल गांधी जब से कांग्रेस की सत्ता की धुरी बने हैं, तब से उन्होंने ‘युक्त’ के इस विचार को बहुत सलीके से इस्तेमाल किया है.
तीन राज्यों में मिली जीत के बाद राहुल गांधी ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी इसी रणनीति को दोहराया. इससे पहले संसद भवन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से गले मिलना भी उसी रणनीति का हिस्सा था. कहने की जरूरत नहीं कि यह बेहद सफल रहा. सत्ता पक्ष के लोग और समर्थक राहुल गांधी को प्रधानमंत्री से गले मिलने के लिए कोसते रहे और इस प्रक्रिया में वे खुद के दिवालिएपन को उजागर करते रहे. भारत की जनता की नज़र में गले मिलना कभी भी गलत कर्म तो नहीं हो सकता. कहने की जरूरत नहीं कि इस राजनीति का जबर्दस्त रिटर्न राहुल गांधी को मिला है.
यह स्थापित सत्य है कि बंटवारे, मुक्त अथवा विध्वंस की राजनीति हमेशा ही क्षणिक और तात्कालिक लाभ दे सकती है. इसके मुकाबले ‘युक्त’ या सृजन की सियासत के रिटर्न हमेशा ही दीर्घकालिक होंगे. नफ़रत का काउंटर नैरेटिव अंतत: प्रेम ही होगा, यह कोई रॉकेट साइंस नहीं है.
हालांकि ‘युक्त’ की राजनीति कांग्रेस का स्थायी चरित्र नहीं रहा है. यह युक्ति उसने मजबूरी में अपनायी है. लेकिन, जब कांग्रेस अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है, जब उससे ठहराव और समझदारी की अपेक्षा किसी भी और समय से ज्यादा है तब उसने विध्वंस और बंटवारे की सियासत के सामने सकारात्मक और दीर्घकालिक राजनीति का रास्ता चुना. इसका श्रेय सिर्फ और सिर्फ राहुल गांधी को जाता है.
आज के दौर की जो प्रतिनिधि राजनीति है, जिसका दावा भारतीय सनातन मूल्यों पर बाकियों से अधिक है, जो खुद को बाकियों से ज्यादा हिंदू बताते हैं, जिनका दावा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर है, जिनका एकमेव लक्ष्य प्राचीन भारत का गौरव पुनर्स्थापित करना है, कहने की जरूरत नहीं कि वे पूरी तरह से उन सनातनी मूल्यों के खिलाफ खड़े हैं. वे इसके मूल चरित्र के साथ विश्वासघात कर रहे हैं. विधवाओं के प्रति की जाने वाली बयानबाजी या फिर ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ जैसी सोच उनकी घृणा से पैदा हुई है.
यह उस घृणा की उपज है जब हम देख रहे हैं कि एक मंदिर के बदले 100 मस्जिद तोड़ने की बातें हो रही हैं. आदमी की मौत पर गाय की मौत की जांच को तरजीह दी जा रही है. ऐसे बंटे और ध्रुवीकृत समय में राहुल गांधी का दिल और दिमाग बिल्कुल सही स्थान पर है. यह आने वाले समय के लिए निश्चिंत होने की एक वजह है.
मुक्त कर देने की राजनीति अहमन्यता और अहंकार से पैदा होती है. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का बयान, कि आने वाले 50 सालों तक भाजपा देश पर राज करेगी, उसी अहमन्य सोच की उपज है. यह बयान देने से पहले एक लोकतांत्रिक देश का नेता यह भी नहीं सोचता की जहां हर 5 साल में चुनाव नियत है वहां 50 साल की बात करना निहायत अलोकतांत्रिक सोच है.
जब नेता अहंकार में डूबते हैं तब वो एंटी इंकंबेंसी, जनता की इच्छा, उसकी समस्या, उसकी जरूरतों को नजरअंदाज कर अपनी सोच को थोपने लगते हैं. जमीन से ऊपर, हवा में चलने लगते हैं. अमित शाह उस परिघटना का सजीव रीप्ले हैं.
दिल्ली, मुंबई से लेकर चेन्नई तक बार-बार किसान सड़कों पर उतर कर अपनी समस्याएं गिनवाते रहे लेकिन अहंकार में डूबी सियासत का एक भी नुमाइंदा उनसे मिलने, उनकी बातों को सुनने तक नहीं पहुंचा. उल्टे उन्होंने अपनी दुष्प्रचार मशीनरी के जरिए किसानों के आंदोलन को फर्जी घोषित करने की हरसंभव कोशिशें की. इसके उलट सरकार समर्थक आज पूरे देश में मंदिर निर्माण का उन्माद पैदा करने में लगे हुए हैं, मानो देश की सबसे बड़ी जरूरत यही है. बीते रविवार को पूरी दिल्ली विहिप के लोगों ने जाम कर यह साबित करने की कोशिश की कि किसानी फर्जी थे, रामभक्त असली हैं. रेत की बुनियाद पर, उन्माद के ईंट-गारे से खड़ी राजनीति को यह दिन देखना ही था.
5 राज्यों में जो हुआ और दिल्ली में जिस तरह से नाटक मंचित हो रहा है उसमें आने वाले समय की आहट है. जब 5 राज्यों से भाजपा का बिस्तर बंध रहा है, लगभग उसी समय के आस-पास दिल्ली में भाजपा के सिपहसालार आने वाली निर्णायक जंग से पहले उसका साथ छोड़ने लगे हैं. नीति आयोग के चेयरमैन अरविंद पनगढ़िया, प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम, रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल, प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य सुरजीत भल्ला ने बेहद कम समय के भीतर अपना इस्तीफा भेज दिया है. इसी दौरान आरएलएसपी के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा, जो कि एनडीए का हिस्सा थे, भी अपना रास्ता अलग कर चुके हैं.
पुरानी कहावत है जब जहाज डूबता है तो चूहे सबसे पहले भाग लेते हैं. क्या 2014 में प्रचंड आवेग से निकला मोदी का टाइटेनिक 5 राज्यों के धक्के से टूट गया है? इस सवाल के कई पहलू हैं जिन पर बाद में बात की जा सकती है लेकिन मोटी-मोटा तथ्य यही है कि जनता का भरोसा टूट रहा है.
यह मौका नरेंद्र मोदी से ज्यादा राहुल गांधी के लिए चुनौती लेकर आया है. कई हारों के बाद मिली यह जीत कांग्रेस और उसके काडर के लिए संजीवनी की तरह तो है लेकिन इसके पीछे छिपी उम्मीदों को पढ़ने में अगर राहुल और कांग्रेस चूक जाते हैं तो जल्द ही जनता को 2019 में हिसाब बराबर करने का एक और मौका मिलेगा.
राहुल गांधी के सामने 2 प्रमुख चुनौतियां हैं. पहली, उन्हें किसी भी तरह से जीते गए तीनों राज्यों के लोगों को यह भरोसा देना होगा कि उन्होंने जो वादे किसानों, बेरोजगारों से किए हैं वे पूरे हो रहे हैं.
दूसरी चुनौती कहीं ज्यादा बड़ी और दुरूह है. 5 राज्यों में हार की बौखलाहट में भाजपा और संघ की अनगिनत अदृश्य भुजाएं बेसब्र हो जाएंगी. मंदिर-मस्जिद के नाम पर पूरे देश में माहौल खराब किया जाएगा. इसके शुरुआती लक्षण दिख रहे हैं. जनता के ऊपर अक्सर भावनात्मक मुद्दों का असर उसके हित के मुद्दों से ज्यादा होता है. यह मानना मूर्खता होगी कि मंदिर का मुद्दा काठ की हांडी है. इसके इर्द-गिर्द सांप्रदायिकता का तानाबाना लंबे समय से और सफलतापूर्क भाजपा, संघ और उसके आनुषंगिक संगठन बुनते रहे हैं.
इस चुनौती से निपटने के लिए राहुल गांधी के पास एक समृद्ध विरासत है जिसमें महात्मा गांधी का दर्शन है, नेहरू-पटेल का विज़न है. अतीत में सबकुछ न तो बुरा है, ना ही वर्तमान में सबकुछ अच्छा (जैसा कि मोदीजी बताते हैं). इसलिए राहुल गांधी को अपने उस समृद्ध अतीत से अच्छी चीजों को चुन-चुन कर देश की जनता तक पहुंचाने की कोशिश अगले 4-5 महीनों में करनी चाहिए. इस काम के लिए यही सही मौका है जब उनके संगठन में ऊर्जा है, कार्यकर्ताओं में जोश है.
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