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सियासत ही नहीं, धरती भी कारपोरेट के यहां रेहन है
यह विडम्बना की पराकाष्ठा नहीं, तो और क्या है! जो ख़बर इस पखवाड़े दुनिया में सबसे अधिक चर्चा में होनी थी, वह क़ायदे से हाशिये पर भी नहीं है. अमेरिका से लेकर भारत तक की मुख्यधारा के मीडिया में जिस नज़रिये के ख़बर और विश्लेषण जगह पा रहे हैं, वे दरअसल उन देशों की सरकारों की आधिकारिक राय हैं. यही नहीं, जो विरोधाभास दिखा रहा है, उसका उद्देश्य भी एक ही है. वह उद्देश्य है- दक्षिणी पोलैंड के कातोवित्से की संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन से कोई ठोस नतीज़ा न निकले तथा दुनिया के कारोबार और बाज़ार यूं ही चलते रहें.
सम्मेलन अपने आख़िरी चरण में है और दुनिया को दिखाने के लिए कोई सहमति जैसी चीज़ भी पेश करा दी जायेगी. या, शायद वह भी न हो, कोई और तारीख़ तय की जाये अगली बातचीत के लिए. साल 2020 में जलवायु सम्मेलन की मेज़बानी के लिए भी कोशिशें तेज़ हो गयी हैं.
लेकिन कुछ घोषणा तो करनी ही होगी क्योंकि पेरिस जलवायु सम्मेलन में जो तय हुआ था, उसे पूरा करने के लिए कोई कार्यक्रम तो बनाना है क्योंकि उसकी समय सीमा बस इस साल तक है. सो, अंतिम क्षणों में एक प्रारूप तैयार कर लिया गया है. साल 2015 के पेरिस सम्मेलन में धरती के गर्म होने की गति दो डिग्री सेल्सियस से बहुत कम रखने की बात कही गयी थी. उस समय जो विवाद थे, वह अभी भी बने हुए हैं. लेकिन, इन तीन सालों में उन्हें सुलझाने की जगह और उलझा दिया गया है.
अमेरिका उस समझौते से ख़ुद को अलग कर चुका है और इस साल उसने संयुक्त राष्ट्र की प्रक्रिया से ही निकल जाने की बात कही है. विकासशील देशों का आरोप है कि ऊर्जा के स्वच्छ साधनों का रूख करने के लिए उन्हें जो वित्तीय सहयोग विकसित देशों से अपेक्षित है, वह नहीं मिल रहा है. पेरिस में विकसित देश यह भी कह रहे थे कि उभरती अर्थव्यवस्थाओं को उत्सर्जन में कटौती करनी चाहिए. यह सब बातें सही हैं, पर सभी पक्ष सब बातों पर सहमत नहीं हो पा रहे हैं.
इस बार तो अमेरिका, रूस, सऊदी अरब और कुवैत ने संयुक्त राष्ट्र की उस रिपोर्ट को ही किनारे की कोशिश की जिसमें कहा गया है कि यदि तापमान में बढ़ोतरी 1.5 डिग्री सेल्सियस से पार गयी, तो यह धरती के लिए तबाही का कारण होगा.
उस रिपोर्ट में नियंत्रण के उपायों के तौर पर ऊर्जा उपभोग में ठोस बदलाव की बात कही गयी है. लेकिन ये चार बड़े तेल उत्पादक देश इसे अधिक महत्व नहीं देना चाहते हैं. इसके बरक्स बड़ी संख्या में देश तापमान नियंत्रण के लिए कारगर उपायों के पक्षधर हैं. यूरोपीय संघ विकासशील देशों के साथ सहयोग करना चाहता है, जिनकी अगुवाई चीन कर रहा है. भारत भी इसका एक हिस्सा है.
यह बात तो ठीक है कि तेल उत्पादक देश जीवाश्म ईंधनों पर किसी तरह की रोक या कटौती नहीं चाहते हैं, पर सवाल यह भी उठता है कि क्या यूरोपीय संघ, यूरोप के अन्य देश तथा भारत और चीन जैसे देश अपनी कथनी और करनी को लेकर ईमानदार हैं. यह भी एक बड़ा सवाल है कि क्या जलवायु का मुद्दा सिर्फ़ देशों के बीच बहस का विषय है या फिर बड़े कारपोरेशन अपने स्वार्थों के लिए इन्हें इस्तेमाल कर रहे हैं?
यदि हम जलवायु की चर्चा को सिर्फ़ अमेरिका, रूस, चीन, भारत, फ़्रांस, ब्राज़ील आदि संज्ञाओं के इर्द-गिर्द देखेंगे, तो असली बात कहीं गुम हो जायेगी. दिखाने के लिए देशों और उनकी सरकारों के बीच बहस हो रही है, पर असली मामला कारोबार और मुनाफ़े का है. पिछले साल आयी कॉर्बन डिसक्लोज़र प्रोजेक्ट की रिपोर्ट को मानें, तो दुनिया की 100 बड़ी कम्पनियां 71 फ़ीसदी औद्योगिक ग्रीनहाऊस उत्सर्जन करती हैं.
साल 2013 में शोध पत्रिका क्लाइमेट चेंज में एक छपे एक अध्ययन के मुताबिक, 1751 से 2010 के बीच उत्सर्जित 63 फ़ीसदी ग्रीनहाऊस गैसों के लिए सिर्फ़ 90 कंपनियां दोषी हैं. इनमें से सात को छोड़कर सभी शेष कंपनियां तेल, गैस और कोयले का कारोबार करती हैं. इनमें 50 ऐसी हैं, जो निजी क्षेत्र में हैं, 31 सरकारी मिल्कियत की हैं तथा नौ ऐसी हैं जिन्हें सरकार चलाती है.
यह जानना भी दिलचस्प होगा कि इन कंपनियों ने जो उत्सर्जन किया है, उनमें से आधा सिर्फ़ पिछले ढाई-तीन दशकों में हुआ है. इन कम्पनियों के पास जीवाश्म ईंधनों का अकूत भंडार है और भविष्य में उनकी भी खपत होगी और ख़तरा भयानक होता जायेगा. यदि कोई प्रभावी जलवायु नीति बनती है, तो इनके कारोबार पर सीधा असर होगा.
जलवायु शोधार्थी और लेखक रिचर्ड हीडे ने इस संदर्भ में पहले एक मज़ेदार बात कही थी कि यदि आप कम्पनियों के प्रमुखों और तेल एवं कोयला मंत्रियों जैसे नीति-निर्धारकों को गिनें, तो ये सब एक-दो बस में समा सकते हैं. मतलब यह कि धरती इनकी मुट्ठी में है, इसलिए बहस को देशों और सरकारों से परे होकर देखने की ज़रूरत है. यही कंपनियां सरकारें बनाती और गिराती हैं तथा राजनीतिक पार्टियों और राजनेताओं की फंडिंग करती हैं. ये जलवायु सम्मेलनों और चर्चाओं में लॉबिंग का खेल भी खेलती हैं.
कातोवित्से सम्मेलन जिस देश में हो रहा है, वह पोलैंड अपनी ऊर्जा ज़रूरतों का 80 फ़ीसदी कोयले से पूरा करता है. उसने साफ़ कह दिया है कि इसमें और तापमान नियंत्रण की कोशिशों में कोई अंतर्विरोध नहीं है. पोलैंड की दक्षिणपंथी सरकार ने इस सम्मेलन के अवसर पर गिने-चुने विरोध प्रदर्शनों की ही इजाज़त दी है.
ट्रम्प प्रशासन के प्रतिनिधियों ने सम्मेलन में यह भी कह दिया कि दुनिया जीवाश्म ईंधनों का इस्तेमाल करती रहेगी. अमेरिकी राष्ट्रपति ने पिछले दिनों फ्रांस में हुए पीले जैकेट विरोध प्रदर्शनों के दौरान फिर से कहा कि पेरिस सम्मेलन के समझौते को ख़ारिज़ कर दिया जाना चाहिए.
तेल उत्पादक देशों में ज़्यादा तेल निकालने की होड़ मची हुई है. अमेरिका पहली बार तेल निर्यात करने लगा है. वह तेल का सबसे बड़ा ख़रीदार भी है. उसने कोयला-आधारित औद्योगिक नियमों में भी ढील दी है. यह भी कहा जाना चाहिए कि भले ही ट्रम्प प्रशासन की कोयला नीति चिंताजनक है, पर अमेरिका ने जर्मनी के मुक़ाबले कोयले पर अपनी निर्भरता तेज़ी से कम की है. जर्मनी को जलवायु परिवर्तन के मसले पर सकारात्मक रूप से देखा जाता है और यूरोपीय संघ की अगुवाई भी उसके हाथ में है. इधर जापान भी जलवायु को लेकर अधिक गम्भीर नहीं है.
अब आते हैं चीन और भारत पर, जिन्हें कथित तौर पर विकासशील देशों का प्रतिनिधि तथा स्वच्छ ऊर्जा के प्रति समर्पित माना जा रहा है. पिछले कुछ समय से लगातार कहा जा रहा है कि भारत और चीन स्वच्छ ऊर्जा की ओर रूख कर रहे हैं तथा उसमें निवेश बढ़ा रहे हैं.
पोलैंड में भी भारत ने अपने इरादों के बारे में लंबे-चौड़े वादे किये हैं, जिन्हें हमारी मीडिया ने बिना किसी जांच-परख के प्रचारित भी किया है. सामान्य आकलन के अनुसार, फ़िलहाल भारत में कोयला और सौर ऊर्जा के इस्तेमाल का अनुपात 150 और एक का है. चीन में यह 20 और एक का है. साल 2017 में जहां चीन में सौर ऊर्जा में बढ़त की दर कोयले की बढ़त से तीन गुणा रही थी, भारत में यह नाममात्र रही.
इस साल सितंबर में पिछले साल के सितंबर की तुलना में भारत ने 35 फ़ीसदी ज़्यादा कोयला आयातित किया है. भारत और फ़्रांस की अगुवाई में गठित हुआ अन्तर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन को 2030 तक एक टेरावाट सौर ऊर्जा उत्पादन क्षमता के लिए एक ट्रिलियन डॉलर के निवेश की जरूरत है. इस साल मार्च में फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैकरां ने प्रधानमंत्री मोदी की उपस्थिति में यह बात कही थी. वैश्विक स्थिति पर नज़र रखनेवाला कोई भी विश्लेषक यह बता सकता है कि दोनों देशों के साथ इस गठबंधन के सदस्य देश बड़े निवेश की स्थिति में नहीं हैं.
फ्रांस में मैकरां का जलवायु के अधकचरे वित्तीय फ़ैसले संकटग्रस्त हैं और भारत सरकार धन की कमी से जूझ रही है. मैकरां ने तब कहा था कि निजी निवेश की ज़रूरत पड़ेगी. अब वही कम्पनियां जो जीवाश्म ईंधन और कार्बन उत्सर्जन से मुनाफ़ा कमा रही हैं, वे सौर ऊर्जा में बड़ा निवेश क्यों करना चाहेंगी!
असल बात यह है कि कोई भी देश या कोरपोरेट सही मुद्दे पर फ़ोकस नहीं करना चाहता है. अमेरिका बनाम चीन या विकसित बनाम विकासशील जैसी बातें सियासी या ख़बरिया लिहाज़ से बेची ज़रूर जा सकती हैं, पर इससे धरती का तापमान नहीं घटेगा. बेमतलब के सम्मेलनों में आवागमन और भोजन से भी उत्सर्जन बढ़ता ही है.
आज जरूरत है कि जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल कम करने पर ज़ोर दिया जाय, कोयले और डीज़ल की जगह प्राकृतिक गैस पर ध्यान दिया जाये, सौर ऊर्जा के छोटे-छोटे उपभोग को बढ़ावा दिया जाये, ग्रीनहाऊस गैसों, जैसे- मिथेन, का लीकेज रोका जाये, नदियों, वनों और वन्य जीवों को बचाया जाये, बांध बनाने और पहाड़ काटने से परहेज़ हो, पानी का प्रबंधन बेहतर हो, सार्वजनिक यातायात को प्रोत्साहित किया जाये, आटोमोबाइल क्षेत्र का नियमन हो तथा शहरीकरण योजनाबद्ध और विकेंद्रित हो.
सबसे बड़ा संकट तो यह है कि राजनीति और मीडिया से विकास और पर्यावरण पर समुचित विमर्श ही अनुपस्थित है. और ऐसा हो भी क्यों नहीं, जब इन दोनों पर उन्हीं का नियंत्रण हो, जो कार्बन उत्सर्जन से ही अपना कारोबार चलाते हैं.
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