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धंधा है पर मंदा है: द टेलीग्राफ बिहार संस्करण की बंदी का निष्कर्ष
पटना और पत्रकारिता की फिज़ाओं में एक ख़बर पिछले हफ्ते भर से तैर रही थी- अंग्रेजी अखबार द टेलीग्राफ का बिहार संस्करण बंद होने वाला है. 14 दिसंबर की सुबह जब हॉकरों ने अखबारों का बंडल घरों में फेंका, तब यह ख़बर सच निकली. द टेलीग्राफ के पहले पन्ने पर बाईं तरफ 11 शब्दों की एक मुख़्तसर सी सूचना छपी थी- द टेलीग्राफ का बिहार संस्करण 15 दिसंबर 2018 से बंद हो जाएगा.
पिछले ही साल झारखंड के साथ कई अन्य राज्यों में हिंदुस्तान टाइम्स ने भी अपने संस्करण बंद करने की घोषणा की थी. इसमें रांची, भोपाल, कोलकाता और इंदौर के संस्करण शामिल थे. इसके अलावा उसी समय हिंदुस्तान टाइम्स ने अपने वाराणसी और इलाहाबाद ब्यूरो को भी बंद कर दिया था.
बिहार में द टेलीग्राफ के पाठकों की संख्या बहुत अधिक नहीं थी, लेकिन जितनी भी थी, उनके लिए यह ख़बर निराशा पैदा करने वाली थी. इस अख़बार के नियमित पाठक और समाजिक कार्यकर्ता आशुतोष कुमार पांडेय कहते हैं, “अखबार मेरे सामने पड़ा है और अब मैं यह सोच कर परेशान हूं कि कल से क्या पढ़ूंगा.”
पांडेय कहते हैं, “टेलीग्राफ की अपनी विश्वसनीयता रही है. अखबारों को विपक्ष की भूमिका में रहना चाहिए और टेलीग्राफ इस भूमिका पर एकदम खरा उतरता है. बतौर पाठक जब मैं इसे पढ़ता हूं, तो लगता है कि अभी के समय में यह एक आवश्यक अख़बार है. इस दौर में ऐसे अखबार का बंद होना, सन्नाटा पसर जाने जैसा है.”
ख़बर है कि द टेलीग्राफ के बिहार संस्करण के साथ ही ओडिशा संस्करण और एपीबी ग्रुप के ही कोलकाता से बांग्ला में छपनेवाले नये-नवेले टैबलॉयड ‘ए बेला’ को भी बंद कर दिया गया है. एबीपी ग्रुप पूर्वी भारत का सबसे बड़ा मीडिया समूह है. इसके तीन न्यूज़ चैनल व आनंद बाजार पत्रिका (बांग्ला), द टेलीग्राफ समेत करीब एक दर्जन अख़बार, पत्रिका और टैबलॉयड हैं. इसके अलावा इस समूह का पुस्तक प्रकाशन का भी बड़ा कारोबार है.
द टेलीग्राफ का बिहार में ब्यूरो ऑफिस था और अख़बार कोलकाता से ही छप कर आता था. एबीपी ग्रुप के कोलकाता मुख्यालय से अखबार को बंद करने की मुख्य वजह बिहार संस्करण का ‘आर्थिक तौर पर लाभप्रद’ नहीं होना बताया गया है. अखबार के बिहार संस्करण के ब्यूरो चीफ दीपक मिश्रा कहते हैं, “हमें प्रबंधन की तरफ से बताया गया है कि द टेलीग्राफ का बिहार संस्करण आर्थिक तौर पर लाभप्रद नहीं है. मैं अखबार के आर्थिक पहलुओं के बारे में नहीं जानता, इसलिए उन पर टिप्पणी नहीं करूंगा. लेकिन, जहां तक ख़बरों की बात है, तो हमने बेहतरीन काम किया है.”
उन्होंने आगे कहा, “हमने बिहार सरकार की खामियों को उजागर किया और विपक्ष को भी समुचित जगह दी. सरकार की खामियों को उजागर करते हुए कई रिज्वायंडर भी हमें मिले, लेकिन सरकार की तरफ से कभी हमारे ऊपर दबाव नहीं बनाया गया.”
अखबार के बिहार संस्करण के स्टॉफ के पास जो सूचनाएं मुख्यालय से आई हैं, उनके मुताबिक नोटबंदी और फिर जीएसटी के चलते पहले से ही ग़ैरमुनाफे का सौदा रहा अखबार और मीडिया का व्यवसाय और बुरे संकट में फंस गया है. इसी वजह से एबीपी ग्रुप को द टेलीग्राफ का बिहार और ओडिशा संस्करण बंद कर देना पड़ा है.
लेकिन, अखबार के बिहार संस्करण के पत्रकारों को ऐसा नहीं लगता है. द टेलीग्राफ से जुड़े एक पत्रकार ने नाम जाहिर नहीं करने की शर्त पर कहा कि हाल के महीनों में बिहार संस्करण को मुनाफे का नया लक्ष्य दिया गया था. उक्त पत्रकार के अनुसार पिछले महीने ही बिहार सरकार से अख़बार को 7 करोड़ रुपए की कमाई हुई थी, जिसके बाद 9 करोड़ रुपए का नया लक्ष्य प्रबंधन की ओर से दिया गया था.
द टेलीग्राफ के पटना स्थित ब्यूरो दफ्तर में करीब 25 लोग काम करते थे. इनमें 6-7 रिपोर्टर थे और बाकी लोग सर्कुलेशन, विज्ञापन व अन्य विभागों में कार्यरत थे. सभी कर्मचारियों को द टेलीग्राफ प्रबंधन ने 6 महीने की तनख्वाह देने का आश्वासन दिया है.
हालांकि बिहार में द टेलीग्राफ का प्रवेश कोई बहुत पुराना नहीं था. यह 2010 से शुरू हुआ था. कह सकते हैं कि यह संस्करण अपनी शैशवावस्था में अधोगति को प्राप्त हो गया. शुरुआत में यहां 9 रिपोर्टर थे, लेकिन बाद के वर्षों में इनकी संख्या कम होती गई. ब्यूरो ऑफिस से जुड़े एक अन्य पत्रकार ने बताया, “ब्यूरो ऑफिस में रिपोर्टरों की कमी थी, लेकिन फिर भी छोटी सी टीम पूरी मेहनत और लगन से काम कर रही थी. बिहार संस्करण लाभकारी नहीं था, यह मानना मुश्किल है.”
एबीपी समूह की तरफ से हालांकि स्टाफ को पहले नहीं बताया गया था कि अखबार बंद होने जा रहा है. मगर, बिहार संस्करण की प्रसार संख्या में जिस तरह कटौती की जा रही थी, उससे इस बात के संकेत मिलने लगे थे कि परिस्थितियां माकूल नहीं हैं.
वर्ष 2010 में जब बिहार से अख़बार शुरू हुआ था, तो बहुत कम समय में ही इसका सर्कुलेशन 22 हजार के आस पास पहुंच गया था, जो कि अच्छी-खासी संख्या थी. लेकिन नवंबर 2016 की नोटबंदी और फिर जीएसटी के बाद इसकी प्रसार संख्या घटाई जाने लगी.
द टेलीग्राफ (बिहार) से जुड़े एक अन्य पत्रकार ने बताया कि डेढ़ साल पहले तक 22 हजार सर्कुलेशन था. धीरे-धीरे इसकी संख्या घटाकर 14 हजार कर दी गई और अभी इसकी मात्र 8 से 9 हजार कॉपियां ही बाजार में छोड़ी जा रही थी. एक हॉकर ने बताया कि उन्हें उतनी ही कॉपियां दी जाती थी, जितनी बाजार में बिक जाए.
पिछले साल ही एबीपी समूह बड़ी संख्या में कर्मचारियों की छंटनी को लेकर भी चर्चा में था. पिछले साल फरवरी में समूह से जुड़े 700 कर्मचारियों की छुट्टी कर दी गई थी. इसके बाद से ही यहां के कर्मचारियों पर नौकरी जाने का खतरा मंडरा रहा था. बिहार से 16 पेज का अख़बार निकलता था, जिसमें बिहार की खबरें 3 से 4 पेजों में रहती थी.
अख़बार को मिलने वाले विज्ञापन से भी एबीपी समूह के इस फैसले को समझा जा सकता है. अखबार में ज्यादातर विज्ञापन सेंट्रलाइज्ड होते थे, यानी कि द टेलीग्राफ के कोलकाता संस्करण को जो विज्ञापन मिलता था, वही विज्ञापन बिहार संस्करण में भी छप जाता था. मतलब बिहार से स्थानीय विज्ञापन नाममात्र का मिल रहा था. इससे जाहिर है कि अख़बार को भरोसेमंद रेवेन्यू मॉडल बिहार में खड़ा नहीं कर पाया. ऊपर से बिहार सरकार का रूखा रवैया भी था जो इस अख़बार को बेहद कम विज्ञापन देता था.
बिहार के सूचना व जनसंपर्क विभाग से मिली जानकारी के मुताबिक 13 दिसम्बर को विभाग की तरफ से 14 दिसंबर के लिए कुल 46 विज्ञापन जारी किए गए थे, लेकिन द टेलीग्राफ को महज 3 विज्ञापन मिले और वह भी क्लासीफाइड थे.
इसी तरह 12 दिसंबर को बिहार सरकार ने कुल 86 विज्ञापन (क्लासीफाइड, टेंडर व डिसप्ले) जारी किए थे, जो 13 दिसंबर को प्रकाशित होने थे. इनमें से महज एक विज्ञापन द टेलीग्राफ को मिला था. दूसरे दिनों के विज्ञापनों का हाल भी कमोबेश ऐसा ही रहता था.
इसके विपरीत हिन्दी अखबारों को खूब विज्ञापन मिलता है. संभवतः यही वजह है कि हिन्दी अखबारों में सरकार की खामियों से संबंधित खबरों को प्रमुखता से नहीं छापा जाता है. मुजफ्फरपुर शेल्टर होम की घटना की रिपोर्टिंग इसकी गवाह है. पूरे मामले से जुड़ी खबरें स्थानीय हिन्दी अखबारों ने तब प्रमुखता से छापना शुरू किया, जब राष्ट्रीय स्तर पर यह खबर सुर्खियां बनने लगी और बिहार का स्थानीय मीडिया सवालों के घेरे में आ गया.
हिन्दी अखबारों के बनिस्बत द टेलीग्राफ में खबरों को समुचित स्थान मिला करता था. तथ्यों को छिपाने का खेल इस अख़बार में नहीं दिखा कभी, इसलिए इस अखबार के समर्पित पाठक थे. पटना के लोग बताते हैं कि सत्ता को लेकर अखबार का तेवर शुरू से ही आलोचनात्मक रहा था. द टेलीग्राफ ने कई बड़ी खबरें ब्रेक की थीं, जिसके बाद सरकार हरकत में आई थी.
ऐसी ही एक रिपोर्ट 2011 में छपी थी, जिसके बाद सीएम नीतीश कुमार ने सारे डीएम की क्लास ली थी. दरअसल, नीतीश सरकार ने सभी जिलों को डीएम को निर्देश दिया था कि वे नियमित दरबार लगाएं और खुद मौजूद रह कर लोगों की शिकायतें सुनें. इस आदेश की अनदेखी कर डीएम अपने अधीनस्थ अफसरों को भेज देते थे. द टेलीग्राफ ने इस पर एक विस्तृत रिपोर्ट छापी थी, जिसके बाद नीतीश सरकार ने दोबारा लिखित आदेश जारी किया था.
इसी तरह 5 फरवरी 2005 में मुंगेर के पुलिस सुपरिंटेंडेंट केसी सुरेंद्र बाबू की भीम बांध अभयारण्य में हुई हत्या की घटना को लेकर द टेलीग्राफ ने एक ख़बर छापी थी. इस ख़बर के बाद हत्याकांड की दोबारा जांच की गई. 5 फरवरी 2005 में भीम बांध अभयारण्य से गुजरते वक्त बारूदी सुरंग में विस्फोट हुआ था, जिसमें एसपी की मौत हो गई थी.
इस मामले में पुलिस ने तीन लोगों को गिरफ्तार किया था.
पांच वर्ष तक चली कानूनी प्रक्रिया के बाद 2010 में तीनों को कोर्ट ने बेकसूर बताते हुए सभी आरोपों से मुक्त कर दिया था. कुछ दिन बाद द टेलीग्राफ में एक ख़बर छपी थी जिसमें बताया गया था कि पुलिस जांच में चूक हुई है और मामले में ऐसे पर्याप्त सबूत हैं जिनके आधार पर दोष साबित किया जा सकता है.
इस ख़बर के प्रकाशित होने के बाद केस को दोबारा खोला गया था. पुलिस मुख्यालय की तरफ से तत्कालीन आईजी (भागलपुर रेंज) एके आंबेडर को जांच का जिम्मा सौंपा गया था.
बिहार से द टेलीग्राफ शुरू करनेवाली टीम का हिस्सा रहे नलिन वर्मा कहते हैं, “किसी भी अखबार का बंद होना एक दुःखद घटना है. अखबार प्रजातंत्र के लिए बहुत जरूरी है. अखबार आम लोगों की आवाज होता है. अखबार का बंद होना आवाम के एक मंच का खत्म हो जाना है.” नलिम वर्मा फिलहाल पंजाब की एक यूनिवर्सिटी में पढ़ा रहे हैं.
भागलपुर के कहलगांव निवासी नीरज गुप्ता द टेलीग्राफ के मुरीद पाठकों में से एक हैं. वो कहते हैं, “मैं अब क्या पढ़ूंगा पता नहीं. द टेलीग्राफ में हिन्दी अखबारों की तुलना में गुणवत्तापूर्ण खबरें रहती थीं. ये दीगर बात है कि खबरों की संख्या कम होती थी, लेकिन जो भी खबरें होती थीं, उनमें नवीनता रहती थी.”
ऐसे दौर में जहां मीडिया का एक बड़ा हिस्सा दरबारी बन गया है, अथवा बनने को उतावला है, तब उन अख़बारों का जिंदा रहना बेहद जरूरी है, जो देश, राज्य, समाज और शासन-प्रशासन की सच्ची तस्वीर सामने रखे.
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