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न्याय का एक अध्याय पूरा: कब कटेगी चौरासी?

जरनैल सिंह ने चिदंबरम पर जूता फेंककर सही किया. जूता नही फेंकता तो चौरासी के दंगों की ऐसी भयानक दास्तान किताब की शक्ल में नहीं आ पाती. हर पन्ने में हत्या, बलात्कार और निर्ममता के ऐसे वाकयात हैं जिन्हें पढ़ते हुए आंखें बंद हो जाती हैं. दिल्ली इतना ख़ून पी सकती है, पचा सकती है, जब इस किताब को खतम किया तो अहसास हुआ. तभी जाना कि उन्नीस साल गुज़ार देने के बाद भी शहर से रिश्ता क्यों नहीं बना.

वैसे भी जिस जगह पर अलग अलग शहरों से आ कर लोग रोज़मर्रा के संघर्ष में जुटे रहते हैं वहां सामाजिक संबंध कमज़ोर ही होते हैं. हर किसी की एक दूसरे से होड़ होती है. घातक. कस्बों और कम अवसर वाले शहरों में रिश्ते मज़बूत होते हैं. भावनात्मक लगाव बना रहता है. किसी बड़े शहर का हो जाने के बाद भी.

लेकिन कब कटेगी चौरासी पढ़ते-पढ़ते यही लगा कि कांग्रेस समर्थित दंगे का समर्थन लोग भी कर रहे थे. भीड़ सिर्फ कांग्रेसी नहीं थी. इस भीड़ में आम शहरी भी शामिल थे. जो चुप रह गए, वो भी शामिल थे. उनकी यादों में चौरासी कैसे पच गया होगा, अब यह जानने के लिए बेचैन हो गया हूं. जिन लोगों ने अपनी आंखों के सामने पड़ोसी की किसी सरबजीत कौर की अस्मत लूटते हुए और उसकी चीख सुनते हुए अपनी रातें चुप चाप काट ली होंगी, जरनैल तुम इन पड़ोसियों से भी बात करो. उन पर भी किताब लिखो. इस किताब में पड़ोसी के बर्ताव, भय और छोटी मोटी कोशिशों की भी चर्चा है. उस पड़ोसी की भी है जिसने बचाने की कोशिश की और जान दे दी. लेकिन अलग से किताब नहीं है.

‘त्रिलोकपुरी, ब्ल़ॉक-32. सुबह आंखों के सामने अपने पति और परिवार के 10 आदमियों को दंगाइयों के हाथों कटते-मरते देखा था और अब रात को यही कमीने हमारी इज़्ज़त लूटने आ गए थे. यह कहते हुए भागी कौर के अंदर मानो ज्वालामुखी धधकने लगता है. “दरिंदों ने सभी औरतों को नंगा कर दिया था. हम मजबूर, असहाय औरतों के साथ कितने लोगों ने बलात्कार किया, मुझे याद नहीं. मैं बेहोश हो चुकी थी. इन कमीनों ने किसी औरत को रात भर कपड़ा तक पहनने नहीं दिया.”

“इतनी बेबस और लाचार हो चुकी थी कि चीख़ मारने की हिम्मत जवाब दे गई थी. जिस औरत ने हाथ-पैर जोड़ कर छोड़ देने की गुहार की तो उससे कहा आदमी तो रहे नहीं, अब किससे शर्म करती हो.”

जरनैल ने व्यक्तिगत किस्सों से चौरासी का ऐसा मंज़र रचा है जिसके संदर्भ में मनमोहन सिंह की माफी बेहद नाटकीय लगती है. नेताओं को सज़ा नहीं मिली. वो भीड़ कहां भाग कर गई? वो पुलिस वाले कहां गए और वो प्रेस कहां गई? सब बच गए. प्रेस भी तो इस हत्या में शामिल थी. नहीं? मैं नहीं जानता लेकिन जरनैल के वृतांतों से पता चलता है कि चौरासी के दंगों में प्रेस भी शामिल थी.

जरनैल लिख रहे हैं- “इतने बड़े ज़ुल्म के बाद भी आसपास मरघट जैसी शांति बनी रही, मानो कुछ हुआ ही नहीं. मीडिया मौन है और टीवी पर सिर्फ इंदिरा गांधी के मरने के शोक संदेश आ रहे हैं. तीन हज़ार निर्दोष सिख राजधानी में क़त्ल हो गए और कोई ख़बर तक नहीं. क्या लोकतंत्र का यह चौथा स्तंभ सत्ता का गुलाम हो गया था, या इसने भी मान लिया था कि सिखों के साथ सही हो रहा है? यह तो इंडियन एक्सप्रेस के राहुल बेदी संयोग से 32 ब्लॉक, त्रिलोकपुरी तक पहुंचे तो इस बारे में ख़बर आई.”

ये है महान भारत की महान पत्रकारिता. हर बात में अपनी पीठ थपथपाने वाली पत्रकारिता. मनमोहन सिंह की तरह इसे भी माफी मांग कर नाटक करना चाहिए. कम से कम खाली स्पेस ही छोड़ देते. यह बताने के लिए कि पुलिस दंगा पीड़ित इलाकों में जाने नहीं दे रही इसलिए हम यह स्पेस छोड़ रहे हैं. इमरजेंसी के ऐसे प्रयासों को प्रेस आज तक गाती है. 84 की चुप्पी पर सिसकती भी नहीं.

शुक्रिया पुण्य प्रसून वाजपेयी का. उन्हीं की समीक्षा के बाद जरनैल सिंह की किताब पढ़ने की बेकरारी पैदा हुई. सिख दंगों को देखते, भोगते हुए एक प्रतिभाशाली क्रिकेटर अच्छा हुआ पत्रकार बन गया. वरना ये बातें दफ़न ही रह जातीं. जिस लाजपत नगर में जरनैल सिंह रहते हैं, उसके एम ब्लॉक में अपना भी रहना हुआ है. दोस्तों के घर जाकर रहता था. कई साल तक. कभी अहसास ही नहीं हुआ कि यहां ज़ख्मों का ऐसा जख़ीरा पड़ा हुआ है. ये जगह चौरासी की सिसकियों को दबा कर नई ज़िंदगी रच रही है.

हम सब प्रवासी छात्र लाजपतनगर के इन भुक्तभोगियों को कभी मकान मालिक से ज़्यादा समझ ही नहीं सके. दरअसल यही समस्या होती है. महानगरों की आबादी अपने आस पडोस को संबंधों को इन्हीं नज़रिये से देखती है. कई साल बाद जब तिलक विहार गया तो लगा कि सरकार ने दंगा पीड़ितों पर रसायन का लेप लगाकर इन्हें हमेशा के लिए बचा लिया है. तिलक विहार के कमरे, उनमें रहने वाले लोग इस तरह से लगे जैसे कोई हज़ार साल पहले मार दिये गए हों लेकिन मदद राशि की लेप से ज़िंदा लगते हों. ममी की तरह.

त्रिलोकपुरी से रोज़ गुज़रता हूं. तिलक विहार की रहने वाली एक महिला ने कहा था कि वहां हमारा सब कुछ था. यहां कुछ नहीं है. हर दिन खुद से वादा करता हूं कि त्रिलोकपुरी जा कर देखना है. अब लगता है कि चिल्ला गांव जाना चाहिए. जहां से आई भीड़ ने त्रिलोकपुरी की महिलाओं के साथ बलात्कार किया था. महसूस करना चाहता हूं कि यहां से आए वहशी कैसे अपने भीतर पूरे वाकये को ज़ब्त किये बैठे हैं. बिना पछतावे के. कैसे किसी एक ने भी अपने गुनाह नहीं कबूले.

अगर पछतावे को लेकर कांग्रेस और मनमोहन सिंह इतने ही ईमानदार हैं तो त्रिलोकपुरी जाएं, तिलक विहार जाएं और दंगा पीड़ितों से आंख मिलाकर माफी मांगे. संसद की कालीन ताकते हुए माफी का कोई मतलब नहीं होता.

ख़ैर. मैं इस किताब का प्रचारक बन गया हूं. इस शर्म के साथ मैंने उन पत्रकारों की बहस क्यों सुनी जिनसे आवाज़ आई कि जरनैल को अकाली दल से पैसा मिला है. जरनैल का पोलिटिक्स में कैरियर बन गया. शर्म आ रही है अपने आप पर. जरनैल ने जो किया सही किया. जो भी किया मर्यादा में किया. जरनैल के ही शब्दों में अभूतपूर्व अन्याय के ख़िलाफ अभूतपूर्व विरोध था. आप सबसे एक गुज़ारिश है इस किताब को ज़रूर पढ़ियेगा. त्रिलोकपुरी और तिलक विहार ज़रूर जाइयेगा और हां एक बात और, पढ़ने के बाद अपने अपने पूर्वाग्रहों से संवाद कीजिएगा.

(यह लेख रवीश कुमार ने अपने ब्लॉग पर लगभग 9 साल पहले लिखा था. आज इसे जस का तस प्रकाशित किया जा रहा है)