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पब्लिक ट्रांसपोर्ट को बढ़ावा क्यों नहीं

नए साल के पहले दिन दिल्ली की दो नगर निगमों- नयी दिल्ली नगर निगम और पूर्वी दिल्ली नगर निगम- ने दिल्लीवासियों को पार्किंग शुल्क में चार गुना बढ़ोतरी का तोहफ़ा दिया है. देर-सबेर अन्य निगमों को भी ऐसे फ़ैसले लेने पड़ सकते हैं. यह आदेश सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय ग्रेडेड रेस्पॉन्स एक्शन प्लान के तहत दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति के निर्देश पर दिया गया है. एक्शन प्लान में यह प्रस्तावित है कि जब हवा में प्रदूषण का स्तर बेहद गंभीर हो जाए, तो पार्किंग शुल्क चार गुना बढ़ा दिया जाए. इस फ़ैसले का इरादा लोगों को निजी वाहनों के इस्तेमाल से रोकना है ताकि प्रदूषण को नियंत्रित किया जा सके.

प्रदूषण कम होने पर शुल्क घटा लेने की व्यवस्था है. इससे पहले दिसंबर में दिल्ली सरकार का एक आदेश सुर्खियों में था. उसमें वाहनों की ख़रीद के समय लिये जानेवाले एकमुश्त शुल्क में भारी बढ़ोतरी का प्रस्ताव था. अभी वाहन की क़ीमत के अनुसार दो या चार हज़ार रुपए चुकाने होते हैं. सरकारी आदेश में इसे बढ़ाकर छह से 75 हज़ार तक करने का प्रावधान था. उस आदेश को हफ़्ते भर बाद वापस ले लिया गया.

जब निजी वाहनों के बारे में दिल्ली में यह सब क़वायदें चल रही हैं, यूरोप के एक बहुत छोटे देश लक्ज़मबर्ग ने एक कमाल का फ़ैसला किया है. वहां पब्लिक ट्रांसपोर्ट को पूरी तरह से मुफ़्त करने की घोषणा हुई है, जो आगामी छह महीने में लागू हो जायेगी. भारत के हिसाब से देखें, तो वहां न तो प्रदूषण की समस्या है, न ही भारत की तरह यातायात के साधनों की कमी है, न ही आर्थिक विषमता है और न ही निजी वाहनों की कमी है. हालांकि यूरोप के देशों में पब्लिक ट्रांसपोर्ट की बेहतरी हमेशा बड़ा मुद्दा होती है, पर लक्ज़मबर्ग इसे बिलकुल मुफ़्त करनेवाला दुनिया का पहला देश बन गया है.

असली बात नीतिगत दृष्टिकोण और दूरदृष्टि की है. इन ख़बरों के हवाले से यह विचार करना ज़रूरी है कि आख़िर प्रदूषण, भीड़, सड़क दुर्घटनाओं की बड़ी संख्या और यातायात-संबंधी समस्याओं के बावजूद हमारी सरकारें पब्लिक ट्रांसपोर्ट को बढ़ावा देने पर ठीक से विचार क्यों नहीं करती हैं. यह भी सवाल है कि नागरिकों का दबाव भी कमज़ोर क्यों हैं. ज़ेरे-बहस यह भी मुद्दा होना चाहिए कि मेट्रो जैसी सेवाएं लगातार महंगी क्यों होती जा रही हैं कि निम्न आय वर्ग और ग़रीब तबके के लिए उसकी सवारी ही मुश्किल हो जाए.

बीते दिन दशकों की नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण देश में ऑटोमोबाइल सेक्टर में भारी बढ़त हुई है. चारपहिया और दुपहिया वाहनों की ख़ूब ख़रीद-बिक्री होती आ रही है. इसका नतीज़ा यह हुआ है कि यातायात में पब्लिक ट्रांसपोर्ट की हिस्सेदारी में भी बड़ी गिरावट आयी है. अंतरराष्ट्रीय संस्था एटी कियर्नी के हालिया अध्ययन के अनुसार, हमारे देश के बड़े शाहरों में आवागमन में पब्लिक ट्रांसपोर्ट की हिस्सेदारी 25 से 35 फ़ीसदी है. साल 1994 में यह आंकड़ा 60 से 80 फ़ीसदी हुआ करता था. इस रूझान के कारण बसों की संख्या पर असर पड़ा है.

सरकारी आंकड़ों के हवाले से रिपोर्टों में बताया गया है कि देश में क़रीब 19 लाख बसें हैं, जिनमें से 2.8 लाख राजकीय परिवहन विभागों/निगमों द्वारा चालित हैं या उन्हें परिचालन का परमिट है. सरकार का आकलन है कि आम यात्रियों की ज़रूरत पूरी करने के लिए कम-से-कम 30 लाख बसें चाहिए.

सितंबर में केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी का एक बयान छपा था जिसमें उन्होंने कहा था कि चीन में हर एक हज़ार लोगों पर छह बसें उपलब्ध हैं, जबकि भारत में हर दस हज़ार लोगों पर सिर्फ़ चार बसें हैं. उन्होंने यह भी कहा था कि देश के तक़रीबन 90 फ़ीसदी लोगों के पास अपना कोई वाहन नहीं है. साल 2018 की आर्थिक समीक्षा में दिल्ली सरकार ने जानकारी दी है कि 2009-10 में राज्य परिवहन निगम के पास 4725 बसें थीं, जो 2016-17 में घटकर 4027 रह गयीं. साल 2016-17 में जहां चारपहिया और दुपहिया वाहनों की संख्या में 5.56 और 8.25 फ़ीसदी की बढ़त हुई, वहीं बसों की संख्या में बढ़ोतरी की दर सिर्फ़ 2.45 फ़ीसदी रही.

टैक्सियों की संख्या बढ़ने की दर सबसे ज़्यादा 29.90 फ़ीसदी रही. राजधानी में वाहनों की संख्या एक करोड़ को 2017 के शुरुआती महीनों में ही पार कर चुकी है. ध्यान रहे, यह दिल्ली में पंजीकृत वाहनों के आंकड़े हैं. अन्य राज्यों के पंजीकृत वाहन भी दिल्ली में हैं और आते-जाते रहते हैं.

यह एक स्थापित तथ्य है कि दुनिया के सबसे अधिक प्रदूषित सभी दस शहर उत्तर भारत में हैं. यदि सूची में 10 अगले प्रदूषित शहरों को जोड़ लें, तो पूर्वी भारत के भी अनेक शहर इसमें शामिल हो जायेंगे. फ़ाइनेंसियल टाइम्स ने नासा के सैटेलाइट आंकड़ों के आधार पर बताया है कि कम-से-कम 14 करोड़ भारतीय ऐसे हैं, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित मानक से 10 गुना या इससे ज़्यादा ज़हरीली हवा में सांस लेते हैं.

लांसेट का अध्ययन है कि प्रदूषण के कारण 2017 में 12 लाख से ज़्यादा भारतीयों की मौत हुई थी. अन्य कारणों के साथ वाहनों से उत्सर्जित धुआं प्रदूषण का एक बड़ा कारण है. लेकिन अगर दिल्ली का अध्ययन देखें, तो एक बेहद चिंताजनक तस्वीर उभरती है. पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की अधीनस्थ शोध संस्था सफ़र के अनुसार, 2010 और 2018 के बीच दिल्ली के प्रदूषण में वाहन और औद्योगिक कारकों का योगदान क्रमशः 40 और 48 फ़ीसदी बढ़ा है. इस अवधि में घरों से निकलनेवाले प्रदूषकों में 64 फ़ीसदी की कमी आयी है क्योंकि रसोई गैस का इस्तेमाल तेज़ी से बढ़ा है.

प्रदूषण के लिए आम तौर पर ज़िम्मेदार ठहराई जानेवाली धूलभरी हवा में भी 26 फ़ीसदी की कमी आयी है. कहने का मतलब यह है कि उद्योग और निर्माण कार्य के साथ वाहन वायु प्रदूषण के सबसे बड़े कारक हैं. मुंबई में भी 2001 के बाद से वाहनों की संख्या चार गुना से अधिक बढ़ी है और वहां भी प्रदूषण और यातायात समस्याओं में बढ़त हुई है.

चाहे सरकारें हों या अदालतें, जब पानी सर से गुज़रने लगता है, तब वाहनों पर कड़ाई, पुराने वाहन हटाने, ऑड-इवन चालन, शुल्क बढ़ाना जैसे तात्कालिक क़दम उठाये जाते हैं. इसी तरह से औद्योगिक इकाइयों और निर्माण कार्यों को कुछ समय के रोक दिया जाता है. कुछ महीने पंजाब और हरियाणा के किसानों द्वारा पराली जलाने की तोहमत लगाकर गुज़ार दिए जाते हैं. परंतु, समस्या सुधरने के बजाय बढ़ती ही जाती है.

ऐसे हालात में यह ज़रूरी हो जाता है कि सरकारें पब्लिक ट्रांसपोर्ट के प्रति गंभीर हों तथा ठोस नीतिगत पहल की ओर बढ़ें. जर्जर राजकीय बसों को हटाया जाए और बेहतर टर्मिनलों की व्यवस्था हो. दिल्ली और अन्य जगहों पर मेट्रो रेल किराया कम किया जाए, दिल्ली में तो यह बहुत अधिक है. विभिन्न पासों और छूट की योजना से बसों में चढ़ने के लिए लोगों को उत्साहित किया जा सकता है.

ध्यान रहे, पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिर्फ़ मुनाफ़े के इरादे से चलाए या बंद नहीं किए जा सकते हैं. नागरिकों को सस्ता और सुरक्षित परिवहन मुहैया कराना राज्य की ज़िम्मेदारी है. यह भी ख़्याल रखा जाना चाहिए कि प्रदूषण से सभी परेशान हैं, ख़ासकर बच्चे और बुज़ुर्ग. इससे होनेवाली बीमारियों के उपचार पर और रोकथाम के लापरवाह उपायों पर भारी ख़र्च हो रहा है. इससे श्रमशक्ति पर भी नकारात्मक असर पड़ रहा है.

यातायात के संचालन में मुश्किलों तथा जाम और भीड़ के कारण समय भी ख़राब हो रहा है और लोगों का दिमाग़ भी. विश्व स्वास्थ्य संगठन और अन्य अहम रिपोर्ट इंगित करते हैं कि प्रदूषण की रोकथाम पर सही से ख़र्च हो, तो बीमारियों और आपदाओं में पैसे बर्बाद करने से बचा जा सकता है.

यातायात के साथ एक गंभीर मसला सड़क दुर्घटनाओं का भी है. हमारे देश में इन दुर्घटनाओं में औसतन 400 लोग हर रोज़ मारे जाते हैं यानी साल का हिसाब डेढ़ लाख से ज़्यादा मौतों का है. अमेरिका जैसे देश में 2016 में यातायात दुर्घटनाओं में 40 हज़ार लोग मारे गये थे. सड़क सुरक्षा के क़ायदे-क़ानूनों का पालन भारी भीड़ होने और जागरूकता एवं व्यवस्था की कमी से ठीक से नहीं हो पाता है. पब्लिक ट्रांसपोर्ट की समुचित उपलब्धता से ऐसी कई अकाल मौतों को रोका जा सकेगा. आगामी लोकसभा चुनाव में सस्ता और सुलभ पब्लिक ट्रांसपोर्ट को मुद्दा बनाने के लिए नागरिकों को अपने स्तर पर दबाव बनाना चाहिए. यह मसला बेहद गंभीर है.