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‘संघर्ष के दिनों में मैंने तय किया कि न गांजा पीऊंगा, न शराब’

गजराज राव के बारे में जानता हूं मैं. उनकी गतिविधियों से परिचित रहा हूं. हमारी मुलाकातें भी होती रही हैं. ऐसा नहीं है कि मैं बिल्कुल अपरिचित हूं. फिर भी कभी उनसे बातचीत का मौका नहीं मिला. मुझे यह भी मालूम है कि गजराज कितने अच्छे एक्टर हैं. ‘बैंडिट क्वीन’ से ‘बधाई हो’ तक के सफ़र में उन्होंने छोटी-बड़ी भूमिकाओं से खास मुकाम हासिल किया है. फिलहाल ’बधाई हो’ ने उन्हें बड़ी पहचान दी है. इस पहचान से गजराज राव स्वाभाविक तौर पर खुश हैं. पिछले दिनों ही उनका जन्मदिन था.

इस बातचीत में गजराज राव के पूरे सफर की झांकी है, जिसमें कई और परिचित चेहरों की झलक है. यह बातचीत दो किस्तों में आप पढ़ेंगे:

आप ने एनएसडी से प्रशिक्षण लिया है या किसी और संस्थान से?

मैंने एनएसडी में अप्लाई किया था और आखिरी स्टेज तक चला गया था. आखिरी स्टेज में जाने के बाद ओरल इंटरव्यू को मैं पार नहीं कर सका. यह 1989 या 90 की बात होगी. मुझसे पूछा गया था कि किस तरह का नाटक करना चाहेंगे? उन दिनों मैं रंजीत कपूर के साथ काम कर रहा था. रंजीत भाई का नाटक क्लासिक से अलग हुआ करता था. वे दर्शकों को मंच तक लाना पसंद करते थे. उनके नाटक थोड़े मजेदार और अलग किस्म के होते थे. उनमें मनोरंजन होता था. उन नाटकों में भी काम की बातें की जाती थीं. तब मैं एक नाटक कर रहा था ‘एक संसदीय कमेटी की उठक-बैठक’. बहुत मज़ेदार नाटक था वह. ‘कोर्ट मार्शल’ भी मैंने किया था.

जब आप किसी के साथ काम कर रहे होते हैं तो उसके काम करने के तरीके से प्रभावित होते हैं. रंजीत भाई मानते थे कि नाटकों में दर्शकों का आना जरुरी है. वे कहते थे कि दर्शकों को अगर हम पुराने बासी नाटक दिखाएंगे तो वे नहीं आएंगे. हमें हर नाटक के साथ नए दर्शक तैयार करने चाहिए. मैंने यही बातें इंटरव्यू में कह दीं. इंटरव्यू में मौजूद गणमान्य लोगों ने मेरी बातें मंद-मंद मुस्कान के साथ सुनी और मुझे बताया कि रंजीत जो करते हैं, वह तो नाटक है ही नहीं. मेरी दलील थी कि उसमें नए दर्शक आ रहे हैं.

खैर, एक घंटे के अंदर ही एक शुभचिंतक ने मुझ से पूछा कि इंटरव्यू में रंजीत की तारीफ करने की क्या ज़रुरत थी? अब तू घर जा. अगले दिन जब मुझे रिजल्ट पता चला तो मैंने रंजीत भाई से सारी बातें बताई. उन्होंने भी मुझे झाड़ लगायी और कहा कि कभी-कभी घुमा कर बात कहनी चाहिए. उन्होंने समझाया कि एनएसडी के लोग मेरे नाटक पसंद करते हैं, क्योंकि उन्हें देखने दर्शक आते हैं. लेकिन मेरे रंगमंच का दर्शन उन्हें पसंद नहीं है. वे मुझ से खींझे भी रहते हैं.

मैंने जब कहा कि अगले साल भी मैं एनएसडी के लिए ट्राय करूंगा तो रंजीत भाई ने डांटा, “नहीं कोई जरुरत नहीं है. जिन्होंने तुम्हारे साथ ऐसा किया वे तुम्हें डिजर्व नहीं करते. तुम बाहर काम करते रहो. कुछ समय के बाद तुम्हें ऐसा लगेगा कि तुम सही काम कर रहे हो.” फिर मैं एनएसडी नहीं गया, लेकिन मुझे इसका अफसोस रहेगा क्योंकि किसी इंस्टीट्यूट में ट्रेनिंग लेने से दो-तीन सालों में हम बहुत कुछ सीख लेते हैं. वहां छात्रों और विदेशी शिक्षकों से बहुत कुछ सीखने को मिलता है.

आपके प्रोडक्शन हाउस की भविष्य की क्या योजना है?

मेरी प्रोडक्शन कंपनी विज्ञापन फ़िल्में बनाती है. मैं ऐड फिल्में डायरेक्ट करता हूं. फिल्म खत्म होने के बाद मैंने फ़ौरन काम शुरु कर दिया था. इस बीच इंडसएंड के लिए दो विज्ञापन फिल्में शूट कीं, जिनमें बोमन ईरानी हैं. हम लोग एक फीचर फिल्म पर भी काम कर रहे हैं, जिसकी शूटिंग अगले साल होगी. वह फिल्म मेरे डायरेक्शन में होगी. हमने ‘बुधिया’ का निर्माण किया था. हमारे सहयोगी सोमेन्द्र पाढी के पास स्क्रिप्ट थी. उन्हें बाहर का निर्माता नहीं मिल पा रहा था तो हमने अपना प्लेटफार्म दिया. उसमें मनोज बाजपेयी ने अभिनय किया था.

‘बधाई हो’ के कौशिक जी को टीवीएफ़ के जीतू के पापा के किरदार से अलग करना कितना मुश्किल था?

अच्छा-खासा मुश्किल था, क्योंकि टीवीएफ़ के पिताजी तुनकमिजाज हैं. बहुत सारी टेक्निकल चीजें नहीं जानते हैं और अपने बेटे से हमेशा सवाल करते रहते हैं. बेटे को परेशान करने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती है. कौशिक सुलझे हुए इंसान हैं. बहुत व्यवहारिक हैं. मुझे किसी ने अभी बताया कि कौशिकजी देश के प्रिय पिता हैं. मैंने उन्हें सुधारा कि मैं प्रिय पिता हूं, प्रिय पति हूं और प्रिय बेटा हूं, मैं भाग्यशाली हूं कि मुझे ऐसा किरदार मिला, जिसके तीन शेड हैं. तीन अलग-अलग किरदारों से मेरे संबंध हैं और वे अच्छी तरह निखर कर आए हैं.

राजकुमार गुप्ता की ‘आमिर’ में आपने खतरनाक विलेन का काम किया था. उसके बारे में कैसे सोचा था?

सचमुच ‘आमिर’ का किरदार अलग किस्म का था. ‘ब्लैक फ्राइडे’ के समय राजकुमार गुप्ता अनुराग कश्यप के असिस्टेंट थे. उन्होंने कहा था कि मैं जब भी फिल्म बनाऊंगा तो आपको एप्रोच करूंगा. क्या आप नए डायरेक्टर के साथ काम करेंगे? मैंने उन्हें कहा था कि मैं जरूर करना चाहूंगा और मैंने किया. उस किरदार के ट्रीटमेंट का सारा श्रेय राजकुमार को है. वह आधे उजाले में रहता है. खिलौनों के साथ खेलता है. मुझे लगता है कि जब आप निर्देशक पर भरोसा करते हैं और स्क्रिप्ट को गीता या बाइबल मानते हैं तो चीजें बहुत आसान हो जाती हैं. जब भी ऐसा हुआ है, मेरा किरदार निखर कर आया है. कभी भी संशय हुआ है या निर्देशक पर विश्वास कम हुआ है तो वह काम ठीक नहीं हो पाया है.

आप इतने कमाल के एक्टर है, फिर इतनी कम फिल्में क्यों करते हैं?

मैं काम तो करना चाहता हूं लेकिन मेरे पास फिल्में ही कम आती हैं. और कई बार ऑफर आए भी हैं तो पैसे सही नही मिलते हैं. रोल अच्छा होता है. मैं अच्छा एक्टर होता हूं, लेकिन पैसे नहीं होते हैं. कई बार तो कर भी लेता हूं. अनुराग कश्यप ने ‘ब्लैक फ्राइडे’ और ‘नो स्मोकिंग’ के समय कहा कि पैसे नहीं हैं तो भी मैंने फिल्में कर ली. मैं उनको जानता था. वे मुझे जानते हैं. अनिश वर्मा के लिए ‘दिल पे मत ले यार’ भी मैंने की थी.

लेकिन मैं हर काम मुफ्त में नहीं कर सकता. मुझे अपना घर भी चलाना है. मेरी भी किस्तें हैं, जिम्मेदारियां हैं. दूसरी दिक्कत यह रही कि एक ही तरह के रोल ऑफर हुए. ‘ब्लैक फ्राइडे’ के बाद ढेर सारे वैसे ही रोल मिले. ‘आमिर’ के बाद टेररिस्ट जोन की कई फ़िल्में मिलीं. उनमें एक धर्म विशेष का ख़राब चित्रण था. कलाकार की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह भूमिकाओं का चयन समझदारी से करे. ‘तलवार’ के बाद भ्रष्ट पुलिस अधिकारियों का तांता लग गया. मेरे अनेक रिश्तेदार राजस्थान पुलिस में हैं. उन सभी को मैं भ्रष्ट नहीं मान सकता. मैं ढेर सारे ईमानदार अधिकारियों से मिल चुका हूं.

बधाई हो’ में टीटी कौशिक अंग्रेजी बोलते हैं, इतनी बारीक़ चित्रण की तैयारी कैसे हुई?

वह स्क्रिप्ट का कमाल है. शांतनु और अक्षत ने यह लिखा था. इस तरह की अंग्रेजी बोलने वालों से मैं परिचित हूं. मैं खुद हिन्दीभाषी हूं. और मैंने ऐसे प्रयास अपने जीवन में किये हुए हैं. मैं कामचलाऊ अंग्रेजी बोलता हूं. विज्ञापन की दुनिया में आया तो वहां अंग्रेज़ीदां लोग होते हैं. उनकी दुनिया में अंग्रेजी बोलना पड़ता है. हाकी के मैदान में आप क्रिकेट नहीं खेल सकते. पहले झिझक होती थी.

थिएटर के दिनों में मानसिकता की वजह से अंग्रेजी नहीं बोल पाने की ग्रंथि थी. यह औपनिवेशिक दवाब आज भी है. उत्तर भारत में यह कुछ ज्यादा ही है. अभी थोड़ा बदलाव दिख रहा है. सिनेमा समेत हर फील्ड में दिख रहा है. मैं देवनागरी में स्क्रिप्ट मांगता हूं और वह मुझे मिल रही है. मैं हिंदी में सोचता हूं, इसलिए मुझे हिंदी में स्क्रिप्ट चाहिये होती है. नितेश तिवारी अपने विज्ञापन हिंदी में लिखते थे. वे तो निर्देश भी हिंदी में लिखते हैं. अन्यथा सामान्य रूप से विवरण अंग्रेजी में रहता है और संवाद हिंदी या रोमन हिंदी में.

अपनी पृष्ठभूमि और परवरिश के बारे में बताएं? आप दिल्ली से हैं?

हम लोग राजस्थान के डूंगरपुर जिले के हैं. मेरे पिताजी काम की तलाश में दिल्ली पहुंचे. उन्हें रेलवे में काम मिला. मेरी पैदाईश राजस्थान में हुई. चार-पांच साल की उम्र में मैं दिल्ली आया. बताया गया कि मैं गांव के स्कूल में जाता नहीं था. भाग आता था. पढ़ाई के लिए पिताजी दिल्ली ले आये. दिल्ली यूनिवर्सिटी की पढ़ाई के समय थिएटर से जुडाव हुआ. रेलवे कॉलोनी में अलग-अलग प्रान्त के लोग मिले. उनकी भाषाएं भिन्न थीं. उन भाषाओँ के शब्द सीखता गया. लहजा सीखता रहा. रेलवे कॉलोनी में एक बड़े बंगले के आउटहाउस में हम रहते थे. हम लोग पहले कनॉट प्लेस और फिर मिन्टो ब्रिज के पास थॉमसन रोड रेलवे कॉलोनी में रहे. बांग्ला भाषा वहीं से सीखा.

अभिनय की मेरी शुरुआत लहजा पकड़ने से हुई. फिर थिएटर से जुड़ गया. मैंने पहला नाटक ‘संध्या छाया’ देखा था. एक दिन भटकते हुए श्रीराम सेंटर चला गया था. सर्दियों के दिन थे. मणिपुरी शाल वाले लोग मिले. कलाकारों का अभ्यारण्य है वह इलाका. वहां वैसे लोग दिखते हैं, जो शहर के बाकी हिस्सों में नहीं नज़र आते. मुझे वह नाटक रोमांचक लगा. 25-30 साल के दो कलाकार बुजुर्गों की भूमिका में थे. उन्हें अपनी पंक्तियां याद थीं. मंचन के दौरान लाइट और साउंड का खेल चल रहा था. मेरे लिए वह अद्भुत अनुभव था. नाटक देखने के बाद मैं हवा में था. ऐसा हो सकता है तो मुझे यही करना है.

अगले दिन मैं फिर से वहां गया. कुछ शौकिया समूह मिले. फिर खिलौना थिएटर ग्रुप से जुड़ गया. वह बच्चों का थिएटर करता था. उनके साथ 100 शो किए. स्कूलों में जाकर हम परफॉर्म करते थे. उसके बाद एक्ट वन थिएटर से जुड़ा. उसमें एनके थे, मनोज बाजपेयी, विजयराज, निखिल वर्मा थे. बाद में आशीष विद्यार्थी आए. एक्ट वन से जुड़ने के बाद मैंने सोच लिया कि अब थिएटर नहीं छोड़ना है. यह दुनिया मुझे अच्छी लगती है.

तो पढ़ाई छूट गयी या छोड़ दी? या थिएटर के साथ पढ़ाई भी चलती रही?

पढ़ाई लगभग बंद हो गयी. मैं थिएटर करने लगा था. मन में था कि पैसों के लिए पिताजी पर आश्रित नहीं रहना है. बहुत सारे छोटे-छोटे रोज़गार करता था. जैसे कि कनॉट प्लेस के इकबाल टेलर्स में सेल्समेन रहा. इंची-टेप से नाप लेता था. एक बार ‘बीवी नातियोंवाली’ के एक्टर आ गए. उन्हें देख कर मेरी बांछें खिल गईं. स्कूल के एक दोस्त की गोल मार्केट में किताबों की दुकान थी. वहां काम किया. एनसीइआरटी की किताबें ले आना और बेचना. एक्ट वन में आशुतोष उपाध्याय बिज़नेसमैन थे. वे थिएटर के रसिक थे. उन्होंने एक दिन मुझे परेशान देखा तो कहा कि चिलम की दुनिया में मत जाना. मैंने बताया कि पैसों की ज़रुरत है. पिताजी से ले नहीं सकता. उन्होंने अपने यहां मुझे काम दे दिया. उनके यहां तीन महीने जूनियर सुपरवाईजर रहा. उनका कपड़ों के एक्सपोर्ट का काम था. मैंने एक दिन उनसे कहा कि मैं यह काम नहीं करना चाहता.

मुझे हमेशा सपोर्ट करने वाले मिलते गए. मेरा संघर्ष सिर्फ मेरा नहीं है. मेरा मानना है कि हर व्यक्ति के जीवन में उसे बढ़ावा देने वालों का भी संघर्ष रहता है. मुझे अभी जो ख़ुशी मिल रही है, यह उन सभी की भी ख़ुशी है. चाहे वह अनिश वर्मा हों या कोई और. मुंबई आने पर अनिश के साथ दो-तीन महीने रहा. वहीं कुछ ऐसे भी दोस्त थे जो फ़ोन करने के पैसे मांग लेते थे. 1990 से 94 तक यह सब चला. समझ में नहीं आ रहा था कि कौन सा रास्ता लूं? मुझे 10-20 हज़ार मिल जाते तो काम चल जाता. एनएसडी की रैपेटरी में बाहर के कलाकारों को सिपाही एक, सिपाही दो के रोल मिलते थे, जो मुझे नहीं करने थे.

फिल्मों में आप का पहला काम ‘बैंडिट क्वीन’ था न?

उसका श्रेय तिग्मांशु धुलिया को जाता है. तब तक मैं सीरियल वगैरह में कुछ करने लगा था. एक बार प्रकाश झा से जनपथ के एक होटल में मिला. 30 सेकंड की मुलाक़ात रही. पंद्रह दिनों के बाद पटना से उनके प्रोडक्शन का आभार और खेद पत्र आ गया. लिखा था कि इस प्रोजेक्ट में काम नहीं मिल पायेगा मुझे. फिर भी मुझे यह पत्र बहुत उल्लेखनीय लगा. उस खेद पत्र में सम्मान था. ऐसे दो अनुभव रहे. एक प्रकाश झा और दूसरे डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी. उनके ‘चाणक्य’ में मेरा चयन नहीं हो पाया था. आज वे हमेशा तपाक से मिलते हैं.

तिग्मांशु ने मेरा काम देखा हुआ था. उन दिनों अलग माहौल था. सभी एक-दूसरे को बता देते थे. तिग्मांशु ने मुझे ऑडिशन के लिए भेजा, लेकिन मैंने कहा कि मेरा नहीं होगा. यह मेरी हीन भावना नहीं है. मुझे लगता है. तिग्मांशु ले गया मुझे. मैंने अश्वथामा की पंक्तियां याद की थीं. दो-तीन दिनों के बाद तिग्मांशु ने बताया कि मेरा हो गया है. पहली बार मेरा कॉन्ट्रैक्ट हुआ और 25 प्रतिशत एडवांस मिला. मेरा मेडिकल टेस्ट भी हुआ.

‘बैंडिट क्वीन’ में पांच दिनों की एक्टिंग का अनुभव बहुत अच्छा रहा. मैं फिल्मों का एक्टर बन गया. परिचितों और रिश्तेदारों में भाव बढ़ गया. उनका हौसला बढ़ा. उन्हीं दिनों शुजित सरकार मिले. वे दिल्ली में टीवी गेम शो के माहिर डायरेक्टर हो गए थे. मल्टी कैमरा सेटअप से काम कर सकते थे. वे सिद्धार्थ बासु के लिए काम करते थे. शुजित ने उनसे मिलवा दिया. बासु को याद था मैं. मैंने उनके साथ ‘मंच मसाला’ किया था. उसमें सौरभ शुक्ला और रवि वासवानी थे. उन्होंने पूछा कि क्या करोगे? मैंने बताया कि लिख लेता हूं. एक-दो नाटक का एडॉप्टेशन किया है. अभिनय आता है मुझे.

उन्होंने मुझे काम दिया. उन्होंने मुझे कहा कि गेम शो में ऑडियंस को-ओर्डीनेटर बन जाइये. क्विज से पहले मॉक क्विज कीजिये. 13-14 एपिसोड का काम था. अच्छा मेहनताना मिला. वहीं प्रदीप सरकार से भेंट हुई. तब उनके साथ दिवाकर बनर्जी थे. वे लिख रहे थे. जयदीप साहनी थे. दादा ने मुझे कुछ एक्टर लाने के लिए कहा. मैंने सभी मुफलिस दोस्तों को बुला लिया. कुछ महीने के लिए मैं उनका कास्टिंग डायरेक्टर और सहायक बन गया. जब उन्होंने प्रोडक्शन कंपनी खोली तो मुझे साथ रखा. तभी प्रदीप सरकार और सिद्धार्थ बासु के बीच में टीवी 18 नाम की चीज हुई. वहां राघव बहल थे. उन्हें एंकर स्क्रिप्ट के लिए लेखक चाहिए था.

एक साल वह भी चला. ‘भंवर’ सीरियल के संवाद लिखता था. उसमें एक्टिंग भी कर लेता था. उन दिनों संजय चौहान भी आए. फिर मैं दादा प्रदीप सरकार के साथ मुंबई आ गया.

यहां से मुंबई का सफ़र आरम्भ हुआ होगा?

दरअसल दादा पहले मुंबई आये. उनके आने के बाद मैं बेकार सा हो गया. दादा बुलाया करते थे. मेरी हिम्मत नहीं हो पा रही थी. दादा ने कहा था कि जब भी आना हो तो आ जाना. मैं तेरी देखभाल करेगा. ऐसा कौन बोलता है? आख़िरकार एक दिन मैं आ ही गया. मुंबई का भय था. मैं दो-तीन बार कुछ महीनों के लिए आकर लौट चुका था. करीब से दोस्तों की मुफलिसी देखी थी. पूनम नगर में रहता था.

कोई घटना याद है क्या ?

एक बार खाने के पैसे नहीं थे तो घर के कोने-दराज से रेजगारी इकट्ठा की गयी. 12 रुपए जमा हुए थे तो दाल-रोटी आई थी. मैं तो डर गया था. हालांकि पिताजी मदद करना चाहते थे, लेकिन उनकी बंधी कमाई थी. वे यह नहीं कहते थे कि ये लो पैसे. कहते थे,पैसे चाहिए तो बोलना. इसमें कैसे बोले आदमी. दादा के निमंत्रण पर मैं मुंबई आ गया. दादा बहुत अच्छे पे मास्टर हैं. आप को 20 चाहिए तो वे 25 देंगे. इतना संबल कोई दे तो और क्या चाहिए? यहां आने के बाद मैंने तीन सालों तक उनके साथ ही काम किया.

इस दरम्यान फिल्म या टीवी के लिए कोई काम नहीं किया क्या?

अनुराग कश्यप ने कहा था कि वे कुछ लिख रहे हैं. प्रदीप सरकार के लिए ही लिख रहे थे. मैंने हंसल मेहता के लिए ‘दिल पे मत ले यार’ और ‘छल’ में काम किया था. अनुभव सिन्हा ने कभी नहीं बुलाया मुझे. मेरी भी गलती रही कि कभी मैंने उनसे बोला नहीं. मैं संकोच और हिचक में रह गया. परिचितों से मांगने में मध्यवर्गीय हिचक रहती है. मैंने यही सोचा कि वे काम नहीं दे रहे हैं तो वाकई में उनके पास कुछ देने के लिए नहीं होगा.

आप ने कॉडरेड नमक कंपनी बनायीं है. इसकी शुरुआत कब और कैसे हुई?

मेरे साथ सुब्रत रे हैं. दिल्ली के साथी हैं. हमारे 1000 से ऊपर विज्ञापन हो गए हैं. मुझे हमेशा लगा कि स्ट्रगल में एक मेथड होना चाहिए. आसपास के लोगों को ख़राब स्थिति में देखने से मैं संभल कर चला. मैंने तय कर लिया था कि क्या नहीं करना है. गांजा नहीं पीना है मुझे. मुझे अल्कोहलिक नहीं होना है. मुझे इन दोनों नशे या इनका सेवन करने वालों से आपत्ति नहीं है, लेकिन मैं खुद उनका शिकार नहीं हो सकता था.

कई बार लगता था कि क्या मैं अतिरिक्त तौर पर सावधान था. दिल्ली में मंडी हाउस से रेलवे कॉलोनी पैदल जाता था. जूतों-कपड़ों का शौक पूरा नहीं कर पाता था. किताबों का शौक था. किताबें नहीं खरीद पाने की झुंझलाहट रहती थी. मेरे दोस्त बंगाली मार्केट के नत्थू स्वीट्स में खा रहे होते थे और मैं साइकिल वाले के छोले-कुलछे से पेट भर लेता था. दोस्तों की लंच पार्टी में मैं पेट भरे होने का नाटक करता था, क्योंकि मैं पैसे शेयर नहीं कर सकता था. मित्रों की तरफ से कोई अपेक्षा नहीं रहती थी. शुजित और आशीष हमेशा मदद करते थे. बड़े दिल के हैं दोनों.

जारी….