Newslaundry Hindi
अंबानी की आहट और रिटेल ई-कामर्स की दुनिया में घबराहट
भारत के सालाना 42 लाख करोड़ से अधिक के खुदरा बाज़ार में घमासान का नया दौर आया है. इस व्यापार से जुड़े सात करोड़ व्यापारी अस्थिर हो गए हैं. मुकेश अंबानी ने ई-कामर्स प्लेटफॉर्म बनाने की घोषणा कर खलबली मचा दी है. उन्होंने यह घोषणा वाइब्रेंट गुजरात समिट में की थी. मुकेश अंबानी का नाम सुनकर ही रिटेल सेक्टर सहमा हुआ है.
रिटेल सेक्टर को पता है कि रिलायंस जियो के आगमन के बाद टेलिकाम सेक्टर का क्या हाल हुआ था. मीडिया में ख़बरें आ रही हैं कि मोदी सरकार ने पिछले दिसंबर में ई-कामर्स से संबंधित नीतियों में बदलाव किया था. बदलाव खुदरा व्यापारियों को लाभ पहुंचाने के वास्ते किया गया था, लेकिन इसका लाभ प्रचुर संसाधनों से लैस मुकेश अंबानी को मिलता हुआ बताया जा रहा है.
मीडिया में जो चर्चाएं हैं उनमें विदेशी निवेशकों की छवि की चिन्ता तो है मगर 7 करोड़ देसी रिटेल व्यापारियों की नहीं है. जबकि दुनिया का कोई विदेशी निवेशक भारत में 7 करोड़ लोगों को कारोबार नहीं दे सका है.
इस वक्त ई-कामर्स रिटेल पर अमेज़ॉन और फ्लिपकार्ट का 70 फीसदी ऑनलाइन बाज़ार पर कब्ज़ा है. वॉलमार्ट ने हाल ही में फ्लिपकार्ट में निवेश किया है. चर्चा होने लगी है कि मोदी सरकार ने दिसंबर में प्रेस नोट-2 के ज़रिए ई-कामर्स नीतियों में जो बदलाव किए हैं उससे नाराज़ होकर वॉलमार्ट भारतीय बाज़ार से अपना हाथ खींच लेगा. इससे विदेशी निवेशकों पर बुरा असर पड़ेगा. संदेश जाएगा कि भारत में सबके लिए एक सामान बाज़ार और सरकार नहीं है. मगर आज के बिजनेस स्टैंडर्ड में फ्लिपकार्ट के सीईओ का बयान छपा है कि वॉलमार्ट कहीं नहीं जाने वाला है. हम मैदान नहीं छोड़ेंगे.
अमेरिकी कंपनियां काफी दबदबे के साथ कारोबार करती हैं. क्या वे भारत में दबाव में आकर कारोबार करेंगी या फिर राष्ट्रपति ट्रंप अपनी कंपनियों के लिए दबाव डालने लगेंगे. आने वाले दिनों में इसके कारण लोकल-ग्लोबल राजनीति कैसे रंग बदलती है, देखेंगे. फिलहाल जो नए नियम बने हैं उनकी इतनी जल्दी वापसी संभव भी नहीं लगती है. चाहें ट्रंप जितना चिल्ला लें.
इस कहानी को समझने के लिए ई-कामर्स का ढांचा समझना ज़रूरी है. फ्लिपकार्ट और आमेज़ॉन एक ऑनलाइन बाज़ार हैं. यहां हर कोई चाहेगा कि उसकी दुकान खुले. तो इनकी साइट पर बहुत से व्यापारी अपना पंजीकरण कराते हैं. जब आप जूता से लेकर किताब तक सर्च करते हैं तो कई व्यापारियों के नाम आते हैं. उनके उत्पाद देखते हैं. होता यह है कि ई कामर्स कंपनी की भी अपनी दस तरह की कंपनियां होती हैं जो तरह-तरह के उत्पाद बनाती हैं.
इसे ऐसे समझें कि एक ही निवेशक है. उसी की फ्लिपकार्ट है और उसी की तमाम कंपनियां जो फ्लिपकार्ट पर अपना सामान बेचती हैं. अब जब आप सर्च करेंगे तो इन्हीं कंपनियों के माल की सूची सामने आएगी. इससे दूसरे वेंडरों का माल नहीं बिक पाता है. आर्टीफीशियल इंटेलिजेंस के इस्तेमाल से इंटरनेट जगत में यही तो होता है. ऊपर से ई-कामर्स साइट पर छूट का एलान होता रहता है. एकतरफा छूट से बाज़ार में दबाव बनाया जाता है ताकि दूसरे व्यापारी खेल से बाहर हो जाएं.
इससे परेशान होकर कन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स ने संघर्ष शुरू किया. उसने नारा दिया कि व्यापारी रहे सम्मान से, व्यापार करे अभिमान से. इसके महासचिव प्रवीण खंडेलवाल ने निरंतर कई स्तरों पर ई-कामर्स प्लेटफार्म के कारण खुदरा व्यापारियों को हो रहे नुकसान की लड़ाई लड़ी है. भाजपा में होते हुए भी उन्होंने अपने संगठन के हितों से समझौता नहीं किया. इन्हीं के संघर्ष का नतीजा था कि दिसंबर में ई-कामर्स की नीतियों में बदलाव किया गया. प्रवीण खंडेलवाल ने कहा कि वे इस लड़ाई को वालमार्ट बनाम अंबानी के रूप में नहीं देखते. बल्कि उन्हें लगता है कि अगर सरकार ने अपनी पाबंदियों को घरेलु ई-कामर्स कंपनियों पर नहीं लगाया तो कोई लाभ नहीं होगा. जो काम फ्लिपकार्ट कर रही है वही काम अंबानी का प्लेटफार्म करेगा. भारतीय खुदरा व्यापारियों का अस्तित्व मिट जाएगा.
कन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स ने 24 जनवरी को प्रधानमंत्री को पत्र लिखा है. इस पत्र में लिखा है कि ई-कार्मस की नीति विदेशी और घरेलु प्लेटफार्म पर समान रूप से लागू हों ताकि कोई भी अनैतिक तरीके अपनाकर बाज़ार से बाकी कारोबारियों को बाहर न कर दें. सभी ई-कामर्स कंपनियों के लिए अनिवार्य कर दिया जाए कि वे हर साल कंप्लायंस सर्टिफिकेट लें और विवादों के निपटारे के लिए एक नियामक संस्था बनाई जाए.
अतीत के अनुभव बताते हैं कि ऐसे नियामक भी तेज़ी से ताकतवर व्यापारियों के हाथ में चले जाते हैं. उनकी नीतियां और फैसले भी उन्हें की हितों के लिए होने लगता है. दूसरा क्या कोई सरकार ई कामर्स प्लेटफार्म के भीतर आर्टीफीशियल इंटेलिजेंस से होने वाले हेर-फेर को रोक सकती है? वो भी भारत में… जहां नज़र रखने की किसी व्यवस्था की कल्पना करना भी टाइम पास करना है. नियम बना देने से इंटरनेट के भीतर होने वाले खेल नहीं रूक जाते हैं. जो कंपनी प्लेटफार्म बनाती है, वह अपने नियम भी खुद बनाती है. ज़ाहिर है जिसके पास संसाधान है, जो ताकतवर है, वो अपना हिसाब लगा लेगा.
आज तो व्यापारी संगठन वालमार्ट मुर्दाबाद के नारे भी लगा सकते हैं. मीडिया उनके प्रदर्शन को कवर भी कर ले. लेकिन क्या वे मुकेश अंबानी के प्लेटफार्म के खिलाफ नारे लगा सकते हैं, संघर्ष कर सकते हैं? कौन सा मीडिया कवर करेगा? अधिकांश मीडिया तो मुकेश अंबानी का ही है. सरकार किसकी है इतना सरल सवाल पूछने की भी ज़रूरत नहीं है. जियो को कोई रोक नहीं पाया. अंबानी के ई प्लेटफार्म को भी कोई नहीं रोक पाएगा. क्या व्यापारी अपना प्लेटफार्म बनाकर उनसे लोहा ले सकते हैं? यह स्थिति बने तो बाज़ार में मुकाबला दिलचस्प होगा.
प्रवीण खंडेलवान की एक दूसरी प्रेस रिलीज़ में समझाया गया है कि किस तरह से बड़े संसाधनों और प्रभावों से लैस कंपनियां चाहे वो विदेशी हों या भारतीय, करोड़ों खुदरा व्यापारियों को मैदान से बाहर कर देती हैं. अभी कई भारतीय रिटेल कंपनियां बिकने को तैयार हैं. फ्लिपकार्ट, वालमार्ट के हाथों चला गया. इन बड़ी कंपनियों के कारण कई देशों में वहां का परंपरागत खुदरा व्यापार समाप्त हो गया. प्रेस रिलीज़ में इलाहाबाद का उदाहरण दिया गया है. वहां के सिविल लाइन्स में बिग बाज़ार, स्पेंसर, विशाल के आने के बाद स्नेह शापिंग, सोनकर जनरल स्टोर, सुनील स्टोर, लालजी जनरल स्टोर, लेडीज़ कार्नर, एन वेराइटी आदि ने या तो अपनी जगह किराये पर उठा दिए हैं या फिर बेच दिए हैं.
फ्रांस में हाल ही में यलो-वेस्ट आंदोलन हुआ था. उसके बारे में वहां रहने वालीं निहारिका जिंदल ने अपने फेसबुक पेज पर लिखा था कि उनके शहर की मुख्य व्यावसायिक गली में 110 दुकानें थीं. 2013 में 23 दुकानें बंद हो गईं. जिनमें इलाके की मसालों की दुकान से लेकर छोटे-बड़े वह सभी व्यवसाय थे जो उस इलाके से संबंधित थे. बाकी कई दुकानों को मिलाकर उनकी जगह अमेरिकन फास्ट फूड चेन्स या चाइनीज़ कपड़े एसेसरीज़ या छोटे सुपर मार्केट खुल गए हैं. 110 दुकानों में से 3-4 दुकानें मिलाकर एक मैक-डी खुल गया है.
फ्रांस और इलाहाबाद के सिविल लाइन्स के उदाहरण कितने मिलते जुलते हैं. क्या व्यापारी अर्थनीति की गति को बदल पाएंगे? उनके साथ इस लड़ाई में मुख्यधारा का कोई भी बड़ा नेता नहीं आएगा. वजह साफ है. अगर आप कांग्रेस या बीजेपी के किसी नेता को विकल्प दें कि वे मुकेश अंबानी के लिए लड़ेंगे या 7 करोड़ व्यापारियों के लिए तो वे पहला विकल्प चुनेंगे. वर्ना व्यापारियों का संगठन ही बता दें कि उनके लिए कौन सा बड़ा नेता लड़ रहा था.
दूसरी वजह यह भी है कि सारे दल अब उन्हीं नीतियों में गहरा विश्वास रखते हैं जिनसे व्यापारियों को ख़तरा लगता है. मीडिया में भी उन्हीं नीतियों के तरफ़दार भरे हैं. ज़ाहिर है सात करोड़ व्यापारी वोट देकर या नहीं देकर भी बहुत कुछ हासिल नहीं कर पाएंगे. वे अपनी बात संख्या से शुरू करते हैं. सात करोड़ व्यापारी और 40 करोड़ को रोज़गार देने वाला रिटेल सेक्टर. फिर भी उनके अस्तित्व पर संकट बना हुआ है. कोई सुनने वाला नहीं है.
इसके लिए इन 47 करोड़ लोगों में अपने संकट को लेकर समझ बहुत साफ होनी चाहिए. इरादा तो मज़बूत होना ही चाहिए. डरपोक और भावुक नेताओं से सावधान रहना होगा. भारत के व्यापारियों के पास बहुत से राजनीतिक दल हैं. वे अकेले नहीं हैं. ऐसा नहीं है कि मुकेश अंबानी के समर्थन में ही सारे दल खड़े हैं. 7 करोड़ व्यापारियों में नैतिक बल होगा तो बाज़ार उनके हिसाब से होगा वर्ना बाज़ार मुकेश अंबानी के हिसाब से होगा.
Also Read
-
The 2019 rule change that accelerated Indian aviation’s growth journey, helped fuel IndiGo’s supremacy
-
TV Newsance 325 | Indigo delays, primetime 'dissent' and Vande Mataram marathon
-
You can rebook an Indigo flight. You can’t rebook your lungs
-
‘Overcrowded, underfed’: Manipur planned to shut relief camps in Dec, but many still ‘trapped’
-
Since Modi can’t stop talking about Nehru, here’s Nehru talking back