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पांव पखारना और पांव जमाना
हमारे यहां पाप की परिभाषा ऐसी है कि आप पाप किए जाएं और प्रयागराज में, किसी कुंभ में या किसी तीर्थस्थल पर जा कर उसे धो आएं तो पापमुक्त! इसलिए ऐसे स्थलों पर सबसे बड़ी भीड़ पाप-प्रायश्चित के लिए नहीं, पाप-भय को डुबोने के लिए होती है. बहुत सारे रुद्राक्ष की मालाओं से अंटी पड़ी गर्दन झुका कर, पूरे कपड़े पहने प्रधानमंत्री ने जब संगम में डुबकी लगाई तो पता नहीं उनके मन में क्या भाव थे लेकिन जो भाव सभी पढ़ पा रहे थे वह चुनाव-भय का भाव था! जो भयभीत होता है वह हर दरवाजे सर झुकाता जैसे कांग्रेस के युवा अध्यक्ष यहां-वहां रोज ही करते दिखाई देते हैं. यह निजी आस्था हो तो हमें या किसी को भी एतराज करने का अधिकार नहीं है लेकिन जिस निजी आस्था का सार्वजनिक संदर्भ हो वह प्रश्नाकुल तो करती ही है.
तो प्रश्न कई खड़े हो गये. राजनीति कहां-कहां, कितने-कितने मुखौटे पहनने पर मजबूर कर देती है. किसानों को रुपए बांट कर यह याद दिलाने का मुखौटा कि नोट और वोट का रिश्ता भूलना मत, मुझे यह याद करने पर मजबूर कर गया कि जब रोज-ब-रोज किसान आत्महत्या कर रहे हैं तब हमने कहां प्रधानमंत्री को किसी एक के घर भी जाते या आंसू बहाते देखा? दिल्ली के जंतर-मंतर पर देश भर से हजारों किसान आए थे तब क्या प्रधानमंत्री ने अपना कोई मंत्री उनके बीच भेजा? किसानों की पीड़ा से विगलित प्रधानमंत्री ने इतना भी तो नहीं किया कि किसानों में से कुछ को अपने यहां बुलवा कर पानी पिलाते? करुणा भी कितनी बाजारू हो गई है कि चुनाव जितने निकट आते हैं वह उतनी तेजी से उमड़ती है, और चुनावों के दूर जाते ही सूख जाती है.
सफाईकर्मियों को स्वच्छताग्रही कहकर प्रधानमंत्री ने उनमें से पांच के पांव पखारे और फिर यह भी कहा यह पल उम्र भर उनके साथ रहेगा. मतलब यह पल उनके जीवन में फिर नहीं आएगा याकि यह पल उनके जीवन में पहले कभी नहीं आया था. जो असामान्य है सामान्यत: वही याद रह जाता है. प्रधानमंत्री के लिए स्वच्छता असामान्य है कि स्वच्छता करनेवालों का सम्मान असामान्य है, यह तो वे ही जानें लेकिन यह तो हर कोई जान गया कि यह पूरा आयोजन कितनी क्रूरता से रचा गया था?
पांव में भुक्क सफेद मोजे और भगवा कपड़ों में लिपटे, बेशकीमती आसनी पर, अपने मोटापे की वजह से बड़ी तकलीफ से बैठ पा रहे प्रधानमंत्री सफेद भुक्क तौलियों से, पीतल की बड़ी थाल में रखे वर्दीधारी सफाईकर्मियों के पांव धोते-पोंछते हुए न सहज थे, न भावपूर्ण! एक योजना थी जिसे उन्हें पूरा करना था और इस तरह करना था कि जैसे वे अभिभूत हैं कि सफाईकर्मियों ने उन्हें यह अवसर प्रदान किया.
तो कोई पूछेगा या खोजेगा ही कि पिछले करीब पांच सालों में सफाई कर्मचारियों के लिए सरकार ने क्या-क्या किया? हाथ से मैला उठाने व सर पर ढोने की प्रथा खत्म की? महानगरों की गहरी-पक्की-जहरीली नालियों की गंदगी में सफाईकर्मियों का सदेह उतरना बंद हुआ? मशीनों और ऐप और स्वचालित यंत्रों के प्रेमी-प्रचारक प्रधानमंत्री ने क्या ऐसी एक मशीन भी मंगवाई या लगवाई, जिससे सफाईकर्मियों को सीवरेज में उतरने की जरूरत न पड़े? सफाईकर्मियों के वेतन-भत्तों पर, उनकी सुरक्षा पर, उनकी शिक्षा पर याकि उनके बच्चों की पढ़ाई की कोई एक योजना भी बनी? क्या ऐसा कोई अध्ययन भी हुआ कि सफाईकर्मियों तक आरक्षण कितना पहुंच सका है? झाडू के साथ अपना फोटो खिंचवाने के लिए ही सही, सरकार के प्रधान से ले कर सिपहसालार तक झाड़ू-तगारी ले कर जो एकदिनी तमाशा करते थे क्या वह तमाशा भी अकाल मौत नहीं मर गया?
कोई इतना ही बता दे कि क्या प्रधानमंत्री कार्यालय में नौकरी पर लगा एक सफाईकर्मी भी इसलिए सेवामुक्त हुआ कि अब प्रधानमंत्री दफ्तर आ कर अपनी मेज खुद ही साफ कर लेते हैं? अगर अपनी मेज साफ करने के बाद, अपना हाथ धोते प्रधानमंत्री की तस्वीर अखबारों में छपी होती तो क्या पता हम भी सलाम कर ही लेते!
अगर लड़ाई कश्मीर की है, कश्मीरियों से नहीं है तो इन पांच सालों में क्यों एक भी मौका ऐसा नहीं आया जब प्रधानमंत्री को हमने छर्रे से अंधे होने वालों कश्मीरी बच्चों से मिल कर रोते हुए देखा? क्यों ऐसा है कि देश भर में यहां-वहां पहुंचे और जिंदगी का दूसरा कोई रास्ता तलाशते कश्मीरी बच्चे अचानक एकदम असुरक्षित हो गये हैं? उन पर हमले हुए हैं, उनको धमकियां मिली हैं, उनको बताया गया है कि वे अवांक्षित हैं? आप खोज कर भी कहीं खोज नहीं पाएंगे कि प्रधानमंत्री ने या उनके किसी भी जिम्मेवार मंत्री ने इस बारे में गंभीरता व शासन की सख्ती के साथ कोई बयान दिया हो.
पिछले दिनों कश्मीर में जितने फौजी मारे गये हैं और मारे जा रहे हैं वह एक कीर्तिमान ही है. हां, सीमाएं संकट में हों तो फौज ऐसे बलिदानों के लिए ही बनी है. लेकिन उन सैनिकों के परिवारों के लिए, बच्चों के लिए क्या कोई नई योजना सामने आई? उनके परिवारों में पहुंचती सरकार हमें कहीं दिखाई देती है? शहीदों के परिजनों को बलिदान का मेडल ही नहीं, जीवन का सहारा भी चाहिए.
क्यों ‘वन रैंक-वन पेंशन’ की जरूरी मांग पूरी नहीं की जा रही है? पूर्व सैनिक सालों से राजधानी दिल्ली में ‘वन रैंक, वन पेंशन’ की मांग ले कर अनशन-धरना कर रहे हैं और प्रधानमंत्री कहते ही चल जा रहे हैं कि उनकी सरकार ने यह काम पूरा कर दिया है. सच तो कोई एक ही है ! जंतर-मंतर पर ही बैठ कर इसका फैसला क्यों नहीं किया जाता है?
वे शुरुआती दिन हमें खूब याद हैं जब प्रधानमंत्री को लग रहा था कि सारी अंतरराष्ट्रीय कूटनीति गले लगाने व लगने से, झूला झुलाने से, ढोल बजाने और विदेश में बसे भारतीयों को जमा करके, उनमें आत्मप्रशंसा करने से बदली जा सकती है.
याद करें तो हमें याद आ ही जाएगा कि प्रधानमंत्री शुरू में पाकिस्तान की कैसे और कितनी दौड़ लगाते थे! पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को उनके जन्मदिन पर बधाई देने वे रास्ता बदल कर पाकिस्तान पहुंचे थे. अब केवल धमकियां हैं, चुनौतियां हैं! लेकिन अब भी यह भूलना नहीं चाहिए, न देश को भूलने देना चाहिए कि पाकिस्तान के लोगों से हमारी दुश्मनी नहीं है. यह तो पाकिस्तान की फौज और हुक्मरानों की आपसी जुगलबंदी है जो कहर बन कर हम पर भी और उनके अपने नागरिकों पर भी टूटती है. इसलिए जरूरी है कि हम सख्त हों, ईमानदार हों. सीमा पर राजनीतिक छिछोरापन खतरनाक ही नहीं है देश को कमजोर करने वाला है. युद्ध ही एकमात्र रास्ता हो तो वह भी करें हम लेकिन एक सभ्य राष्ट्र का शील न गंवाएं.
पांव पखारने और पांव जमाने में जो फर्क है वह हम जितनी जल्दी समझ लें उतना अच्छा!
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