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शराबबंदी: चुनाव में क्या रुख अख्तियार करेगी नीतीश की अतिवादी राजनीति

दानापुर के जगदेवपथ मुसहरी इलाके में कीचड़ और दुर्गंध भरी संकरी गलियों के बीच चलते वक्त आपको ख़याल रखना पड़ता है कि कहीं कोई खुला मैनहोल या गड्ढा आपको आत्मसात न कर ले. पिट्ठू खेलते बच्चे, बच्चों पर चिल्लाते बूढ़े, अनाज साफ करती लड़कियां, बर्तन धोती महिलायें और अंडरवियर के भीतर हाथ डालकर खारिश मिटाते मर्द आपका स्वागत करते हैं. 37 साल की शोभा कुमारी के साथ मैं पटना शहर के बाहर महादलित समुदाय की इस बस्ती में उन सवालों के जवाब खोजने के लिये प्रवेश करता हूं जो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सबसे साहसिक और फिलहाल बेहद विवादित बन चुके क़दम से जुड़े हैं. बात शराबबंदी क़ानून की हो रही है.

नीतीश कुमार सरकार ने शराबबंदी को एक बड़ी कामयाबी की तरह दर्शाया है. (फोटो – नागेन्द्र कुमार)

शराबबंदी क़ानून, जो कि बिहार में पिछले 3 साल से लागू है और जिसके तहत शराब पीना, बनाना, बेचना और रखना अपराध है, अब राज्य सरकार के गले की फांस बन गया है. आज बिहार में शराब बंद नहीं हुई बल्कि एक अवैध संगठित कारोबार के रूप में जाल बिछा चुकी है. साल 2016 में जगदेवपथ मुसहरी के महादलितों पर शराबबंदी की पहली मार पड़ी थी जब इस कानून की वजह से इस गांव के लोगों को घरेलू शराब बनाने का पुश्तैनी धन्धा बन्द करना पड़ा था और इन लोगों की जीविका का साधन ही छिन गया लेकिन तीन साल बाद आज ऐसी बस्तियों में एक बार फिर शराब धड़ल्ले से बन और बिक रही है. बाकायदा पुलिस की छत्रछाया में.

अपनी पोल खुल जाने, पुलिस के कोपभाजन के डर से इन गलियों में किसी बाहरी व्यक्ति के आगे लोग यह स्वीकार नहीं करते कि वो शराब बनाते हैं पर यह ज़रूर कहते हैं कि “बहुत सारे घरों में शराब बन रहा है.” कोई हमें उन “बहुत सारे घरों” में नहीं ले गया लेकिन इसी मोहल्ले में शराब की महक से सराबोर और झूमते एक शख्स के साथ बैठे 25 साल के पिंटू ने बताया, “पहले यहां भी (शराब) बन्द हुआ था… अब पुलिस वालों के साथ मिलकर लोग फिर से बनाने लगे हैं.”

शोभा मुझे इसी बस्ती में रहने वाले 45 साल के बच्चू मांझी के पास ले जाती हैं जो एक बूचड़खाने में काम करते हैं. मांझी कहते हैं कि उन्होंने तो शराब बनाने का काम छोड़ दिया लेकिन उनके ही समुदाय के बहुत से लोग पुलिस के साथ यह धंधा जारी रखे हुये हैं.

“बहुत जगह पर ऐसा है कि पैसा देकर घूसखोरी करता है सब.  वो (पुलिस) पैसा ले लेता है और फिर कहता है बनाओ… बेचो. यह सब बहुत चल रहा है.” बच्चू मांझी बताते हैं.

मुसहर समुदाय की तरह बिहार की कई जातियों में घरेलू शराब बनाने और बेचने का पुश्तैनी धन्धा रहा है. जगदेवपथ से करीब 10 किलोमीटर दूर दानापुर के लालकोठी इलाके में एक साधारण सी दिखने वाली इमारत में हमारी मुलाकात 65 साल की सुधा वर्गीस से हुई जो मुसहर महिलाओं की शिक्षा और सशक्तीकरण के लिये काम करती हैं. ‘नारी गुंजन’ नाम की स्वयंसेवी संस्था चला रही सुधा याद करती हैं कि कैसे 2016 में शराबबंदी के बाद जहां ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं बहुत खुश थीं, वहीं मुसहर समुदाय उनके खिलाफ हो गया.

“तब मुसहर लोगों ने सोचा कि हमने ही सरकार के साथ मिलकर शराबबंदी कराई है और उनकी रोज़ी रोटी पर हमला किया.” सुधा बताती हैं कि पुलिस ने क़ानून बनने के बाद शराब पकड़ने के नाम पर लोगों से पैसा उगाही शुरू कर दी थी. “2016 में जगदेवपुर मुसहरी के दो लोगों से पुलिस दिनदहाड़े कुल 80 हज़ार रुपये की उगाही करके ले गई. हमने इसका विरोध किया और अफसरों से शिकायत की, लेकिन ऐसी कई घटनायें उसके बाद भी होती रहीं,” सुधा ने बताया.

(सामाजिक कार्यकर्ता सुधा वर्गीस बताती हैं कि कैसे पुलिस धन उगाही और प्रताड़ना कर रही है)

सुधा बताती हैं कि जबरन पैसा उगाही के अलावा हिरासत में मारपीट और यातनाएं देने के कई मामले हुए हैं. पिछले साल 22 मई को पुलिस पटना से 20 किलोमीटर दूर नाहरपुरा गांव से एक जवान लड़के जायिकी मांझी को उठाकर ले गई और 4 दिन बाद उसकी लाश वापस आई.

“उसकी (जायिकी मांझी की) आंखें और जीभ बाहर आ गई थी. पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में उसे स्वाभाविक मौत बताया गया लेकिन स्वाभाविक मौत में जीभ-आंखें कैसे बाहर आ सकती हैं,” सुधा पूछती हैं और कहती हैं कि वह इस मामले में आगे लड़ेंगी. नीतीश कुमार सरकार ने शराब के दंश से निजात दिलाने के लिये जो क़ानून बनाया उसके कई ऐसे पहलू हैं जो सरकार को ही कटघरे में खड़ा करते हैं.

बिहार पुलिस के महानिदेशक गुप्तेश्वर पांडे स्वीकार करते हैं कि पुलिस गैरकानूनी खेल में शामिल रही हैं. “कानून को तोड़ने वाले सिस्टम के बाहर भी होते हैं और कुछ लोग सिस्टम के भीतर भी होते हैं. आज सिस्टम के भीतर के लोग सिस्टम को खुली चुनौती दे रहे हैं.” पांडे ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, “मैं सार्वजनिक पब्लिक प्लेटफॉर्म से कई बार यह बात बोल चुका हूं कि हमारे लोग भी कुछ इसमें शामिल हैं. और निश्चित रूप से शामिल हैं और इसका प्रमाण है कि हमने 400 पुलिसकर्मियों पर कार्रवाई की है. संविधान की धारा 311 (बी) में कई लोगों को सीधे डिसमिस किया है.”

घरेलू शराब बनाना और बेचना मुसहर समुदाय का पुश्तैनी काम है. मुसहर पुलिस पर धन उगाही का आरोप लगाते हैं.  (फोटो – हृदयेश जोशी)

संभव है कि शराबबंदी ने राज्य में महिलाओं को आंशिक राहत ज़रूर दी हो, लेकिन शराब माफिया और पुलिस की मिलीभगत ने ऐसी विकराल समस्या को जन्म दे दिया है जिससे सरकार भी इनकार नहीं कर पाती. महिलाओं के बीच लोकप्रिय और सुशासन बाबू कहे जाने वाले नीतीश कुमार इन लोकसभा चुनावों में शराबबंदी को अपने प्रचार का हिस्सा बना रहे हैं लेकिन बिहार की ज़मीन पर यह जानना एक महत्वपूर्ण शोध का विषय है कि  इसका कितना और कैसा असर चुनावों में दिखाई देगा?

महिला आंदोलन की कोख से जन्मा क़ानून

मुज़फ़्फ़रपुर के खबरा गांव की मीना देवी को 6 सितम्बर, 2012 का वह दिन अच्छी तरह याद है जब करीब 500 महिलायें सवेरे 5 बजे शहर के मिडिल स्कूल में जमा हुईं. इन महिलाओं ने पूरे इलाके में घरों और दुकानों से शराब की बोतलें और थैलियां जमा करनी शुरू कर दीं. शराब पीने और बेचने वालों की ज़िद ही थी कि उस दिन मीना और उनकी सहेलियों पर तलवार से हमले का असफल प्रयास हुआ, लेकिन शराब के खिलाफ संगठित महिलायें इतनी संकल्पित थीं कि उनके आगे उस दिन किसी की नहीं चल पाई. इन महिलाओं ने ज़ब्त की गईं शराब की थैलियां और बोतलें सड़क पर बिछा दीं और हाइवे को जाम कर दिया.

“हर घर में अशांति, मारपीट और कलह का वातावरण था. शाम ढलने के बाद महिलाओं का बाहर रहना मुश्किल होता. पुरुष शराब पीकर जहां-तहां उत्पात मचाते और घर में पत्नियों से मारपीट करते,” 33 साल की मीना देवी ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया. उनके मुताबिक शराब आर्थिक और मानसिक शोषण की वजह बन गई थी.

शराब के विरुद्ध महिलाओं का गुस्सा पहले से ही उबल रहा था लेकिन घरों और दुकानों में घुसकर सीधे शराबज़ब्ती  करना एक ऐसा क्रांतिकारी विस्फोट था कि राज्य के अलग अलग हिस्सों में महिलाओं ने यह मुहिम चला दी. नीतीश कुमार को यह सामाजिक उबाल साफ दिखाई दिया. जहां एक ओर नरेंद्र मोदी के विजय रथ को रोकने के लिये उन्होंने 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद अपने चिर प्रतिद्वंदी लालू प्रसाद यादव से हाथ मिला लिया, वहीं उन्हें ग्रामीण महिलाओं को अपनी ओर करने का एक सुनहरा मौका भी दिखा. नीतीश कुमार  अपनी रैलियों और भाषणों में महिलाओं की इस पहल का उल्लेख करने लगे और 2015 के विधानसभा चुनावों में शराबबंदी नीतीश कुमार के चुनावी वादों का हिस्सा बन गया.

मुज़फ्फरपुर की मीना देवी समेत सैकड़ों महिलाओं ने शराब के खिलाफ बिगुल बजाया. [फोटो – हृदयेश जोशी]

अप्रैल 2016 में शराबबंदी कानून लागू होने के बाद से अब तक बड़ी संख्या में गिरफ्तारियां, मुकदमे और शराबज़ब्ती हुई है. इस क़ानून के तहत शुरुआत में घर में शराब पाये जाने पर सभी वयस्कों की गिरफ्तारी और घर को सील करने और वाहन में शराब मिलने पर वाहन ज़ब्ती और गिरफ्तारी के कड़े प्रावधान थे. बेइंतहा सख्त प्रावधानों की आलोचना और क़ानून के दुरुपयोग के बाद 2018 में इसमें कुछ बदलाव किये गये.

चुनाव आयोग को राज्य सरकार की ओर से दिये गये ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि दिसंबर 2018 तक एक लाख से अधिक मुकदमे दर्ज हुये. करीब 1.5 लाख लोगों की गिरफ्तारी हुई और 43 लाख लीटर शराब ज़ब्त की गई, लेकिन इन्हीं आंकड़ों में यह भी बताया गया है कि अब तक केवल 193 लोगों को ही अदालत से सज़ा हो पाई है.

राज्य के कई अधिकारी और मुख्यमंत्री के आलोचक याद दिलाते हैं कि पहली बार 2005 में एनडीए सरकार बनने के बाद शराब की “बीमारी” को फैलाने में भी नीतीश सरकार का ही हाथ था. 15 साल के लालू राज के बाद जर्जर हो चुके मूलभूत ढांचे को बनाने और राजस्व को बढ़ाने का आसान जरिया शराब था. नीतीश के राज में शराब के लाइसेंस दरियादिली से बांटे गये. शहरों और कस्बों के अलावा गांव-गांव में शराब के ठेके और काउंटर दिखने लगे.

बिहार सरकार के आर्थिक सर्वे को देखने से पता चलता है कि 2005-06 में राज्य एक्साइस (शराब से होने वाली कमाई) जहां 319 करोड़ था वहीं 2015-16 आते आते यह बढ़कर 3,142 करोड़ रुपये हो गया यानी दस गुना या 900% की बढ़ोतरी.

कभी नीतीश कुमार के साथ रहे और अब आरजेडी में अपनी दूसरी पारी खेल रहे शिवानंद तिवारी कहते हैं, “शराब को घर-घर तक पहुंचाने का श्रेय भी नीतीश कुमार को ही है. हम 2005 में राबड़ी सरकार में मंत्री थे और तब जितना कमाई शराब से था वह नीतीश राज में यह पाबंदी लगाने से पहले 10 गुना पहुंच गया था. गांव-गांव तक पहुंचा दिया दारू उन्होंने. आज भी (शराबबंदी के बाद) जिसके पास पैसा है वह दारू पी रहा है. (शराब) महंगा हो गया है बस. इतना ही है. मिल तो सब जगह ही रहा है.”

(शराबबंदी के बावजूद फल-फूल रहे अवैध धंधे, कारोबारियों और पुलिसिया गठजोड़ के बारे में बता रही हैं ग्रामीण महिलाएं)

शराबबंदी के बाद 2016-17 में राज्य राजस्व 3,142 से घटकर 30 करोड़ रह गया और फिर अगले साल 2017-18 में तो सरकार को 3 करोड़ का घाटा उठाना पड़ा. आज शराबबंदी की वजह से राज्य को होने वाले कुल राजस्व घाटे का आकलन करीब 5,000 करोड़ है क्योंकि शराब बंद होने के साथ खाने-पीने के छोटे-मोटे कई कारोबार भी बन्द हो गये.

“अब लोग शादियां और जलसे यहां नहीं कर रहे हैं सर. बड़े होटलों में आने वाले व्यापारी और मीटिंग भी सब जयपुर, रांची या लखनऊ में हो रहा है,” पटना के टैक्सी ड्राइवर विनोद कुमार ने बताया. विनोद कुमार एक बातूनी और चलता पुर्ज़ा थे जो कई टैक्सी स्टैंड मालिकों को जानते और शहर की गतिविधियों की जानकारी रखते थे. “शहरी आदमी और पैसेवालों के लिये शराब मौजमस्ती और रुतबे की बात है सर और बिजनेसमैन तो पार्टी वगैरह करता ही है. फिलहाल सब चौपट हो गया है,” पटना में एक होटल मालिक ने बताया.

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक शराबबंदी कानून के बाद से अब तक 43 लाख लीटर शराब ज़ब्त हुई है, लेकिन पुलिस और शराबमाफिया की मिली भगत भी अब जगज़ाहिर हो चुकी है. [फोटो – नागेन्द्र कुमार]

पटना एयरपोर्ट पर हमारी मुलाकात इंजीनियर उद्यमी सुधीर कुमार के साथ हुई, जो अपने साथियों समेत स्कूली दिनों के दोस्तों की पार्टी (अलुमिनाई मीट) के लिये रांची (झारखंड) जा रहे थे. पूछने पर उन्होंने मुस्कुराते हुये कहा, “वैसे तो यह पार्टी इधर (पटना में) ही होनी थी लेकिन अब यहां दोस्तों से मिलकर क्या करेंगे. यह तो ड्राई ज़ोन है. किसी होटल में इस तरह का कार्यक्रम नहीं हो सकता.”

एक हिस्से को आंशिक राहत

2019 लोकसभा चुनाव से पहले सत्ताधारी पार्टी जेडीयू के दफ्तर में नीतीश कुमार के फोटो के साथ एक विशाल पोस्टर आपका स्वागत करता है जिस पर लिखा है- “हमारा संकल्प शराब मुक्त, दहेज़ मुक्त, बाल विवाह मुक्त.”

एक और पोस्टर कहता है- “हमार बिहार हुआ शराब मुक्त”.

यानी शराबबंदी की तमाम नाकामियों और आलोचनाओं के बाद भी यह कदम नीतीश कुमार के चुनावी तरकश में एक तीर रहेगा और वह चुनाव में इसका इस्तेमाल करेंगे. इसकी वजह हैं वो ग्रामीण महिलाएं जो कमज़ोर आर्थिक पृष्ठभूमि की हैं.

मुज़फ्फरपुर के अलावा समस्तीपुर, नालंदा, मधुबनी और पटना के बाहरी इलाकों में राज्य सरकार के रोज़गार कार्यक्रम “जीविका” के तहत काम कर रही बीसियों महिलाओं (जिन्हें दीदी भी कहा जाता है) ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि शराब बन्द होने से अशांति और हुड़दंग का माहौल कम हुआ है. “पहले तो यह बदलाव गज़ब का था. शराब बिल्कुल ग़ायब हो गया था लेकिन अब भी जो लोग चोरी छिपे पीते हैं तो डरकर चुपचाप रहते हैं. उन्हें डर है कि दीदी लोग हेल्पलाइन नंबर पर फोन कर पुलिस को बता देंगी जिसमें शिकायत करने वाले की पहचान गुप्त रहती है,” 34 साल की संजू देवी कहती हैं.

एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टिट्यूट (एडीआईआई) के प्रमुख सैबल दास गुप्ता कहते हैं कि शराबबंदी राज्य में काफी लोकप्रिय है और शुरू में तो यह कामयाब भी रही लेकिन फिर पुलिस इसे ठीक से लागू नहीं कर पाई. “शराबबंदी सामाजिक रूप से सफल नीति रही. यह महिलाओं के बीच काफी कामयाब रही. महिलाओं ने इसका स्वागत किया लेकिन इस क़ानून के नियमों को लागू करने में कामयाबी नहीं मिल पाई. इसकी वजह ये है कि पुलिस ने अपना काम ही नहीं किया और यह गैरकानूनी रूप से शराब की जमाखोरी का रास्ता बन गया.”

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि शराबबंदी लागू होने के एक साल के भीतर अपराध में गिरावट दर्ज की गई. 2017-18 में प्रकाशित आर्थिक सर्वे बताता है कि 2016 में अप्रैल-सितंबर के बीच कत्ल की घटनाओं में 28.3% की कमी हुई जबकि बलात्कार की घटनाएं 10% तक गिरी और डकैती और लूटपाट में क्रमश: 22.8% और 12.5% की कमी हुई है.

सरकार का आर्थिक सर्वे यह भी बताता है कि शराबबंदी के बाद दूध, दही, पनीर मिठाइयां और शहद जैसे उत्पादों की बिक्री बढ़ी है और गरीब अपने पैसे का सदुपयोग करने लगे हैं. शराबबंदी के बाद किसी न किसी स्तर पर हुए इस बदलाव की पुष्टि गांवों में लोग भी करते हैं. “मेरे पति ने ख़राब संगत में जाकर शराब पीना शुरू कर दिया था, लेकिन उन्होंने अब इसकी बुराई को समझ लिया है. माहौल बदला है और घर में पैसा आने लगा है. अब घर में शांति है,” मुज़फ्फरपुर में रहने वाली 32 साल की किरन देवी बताती हैं.

पुलिस की मिलीभगत और मुहिम की नाकामी

बिहार की सीमा उत्तर प्रदेश, झारखंड और पश्चिम बंगाल के अलावा नेपाल से लगती है और शराब सप्लाई की रोकने के लिये इन सीमाओं पर सख्ती ज़रूरी है. नीतीश कैबिनेट ने क़ानून बनाने के बाद इसे सख्ती से लागू करने के लिये आईजी स्तर का विशेष पद निर्मित किया जिसकी ज़िम्मेदारी हाइ प्रोफाइल आईपीएस अफसर रत्न संजय को दी गई लेकिन इसके बावजूद बिहार की खुली सीमायें पुलिस के लिये शराब न रोक पाने का बहाना बन गई हैं, जबकि हरियाणा, पंजाब और झारखंड से शराब के ट्रक पुलिस वालों के संरक्षण में ही राज्य में घुस रहे हैं.

“एक ट्रक को छोड़ने के लिये 4 लाख रुपये तक दिये जा रहे हैं. इसी तरह ट्रक को पकड़वाने का भी रेट हैं. पुलिस ने धन्धा बना लिया है,” पटना में प्रैक्टिस करने वाले एक डॉक्टर ने यह बात अपने खुद के एक रिश्तेदार के संदर्भ में बताई जो कि इस अवैध धन्धे में संलिप्त है. वो आगे बताते हैं, “कई बार ज़ब्त की गई शराब को रिकॉर्ड में दर्ज किए बिना पुलिस वाले ही बेच देते हैं.”

मिसाल के तौर पर इसी साल 13 जनवरी को मुज़फ्फरपुर के मोतीपुर पुलिस स्टेशन के थानेदार कुमार अमिताभ के सरकारी आवास से शराब की 300 पेटियां बरामद हुईं. पता चला कि खुद पुलिस वाले ही ज़ब्त की गई शराब को ऊंची कीमतों पर सप्लाई कर रहे थे. यह शराबबंदी के बाद से अब तक हुई सबसे बड़ी ज़ब्तियों में से रही जिसे खुद एक पुलिस वाला अंजाम दे रहा था.

मुज़फ्फरपुर के मोतीपुर पुलिस स्टेशन के थानेदार कुमार अमिताभ जिनके सरकारी आवास से शराब की 300 पेटियां बरामद की गईं.

शराब के जाल में फंसी पुलिस का असर बिहार की कानून व्यवस्था में दिख रहा है. आरजेडी का शासन उखाड़कर सरकार बनाने वाले नीतीश को उम्दा क़ानून व्यवस्था के लिये भले ही सुशासन बाबू का तमगा मिला हो लेकिन राज्य में एक बार फिर अब अपराधियों का बोलबाला दिखने लगा है.

मुज़फ्फरपुर का ही उदाहरण लें तो यहां पिछले एक साल के दौरान औसतन 10 हत्यायें हर महीने हो रही हैं. पिछले साल 23 सितम्बर को शहर के मेयर को एके-47 से गोलियां मारकर छलनी कर दिया गया. लूटपाट की घटनायें लगातार बढ़ रही हैं. 22 नवंबर को एक्सिस बैंक की वैन से 52 लाख रुपये दिनदहाड़े लूट लिये गये. इसी साल 6 फरवरी को मुथूट फाइनेंस से 10 करोड़ का सोना लूटा गया.

पटना में पुलिस मुख्यालय में तैनात एक आला अधिकारी ने शराबबंदी की नाकामी को विस्तार से समझाया, “पहले पूर्ण शराबबंदी का इरादा नहीं था. इरादा सिर्फ देसी शराब को बन्द करने का था. यह विचार था कि सीमित संख्या में सरकारी दुकानों के ज़रिये इसे उपलब्ध कराया जायेगा. लेकिन कुछ अधिकारियों ने अपने आलस और निकम्मेपन को त्यागने के बजाय सीएम (नीतीश कुमार) को पूर्ण शराबबंदी के लिये उकसाया.” इस अधिकारी के मुताबिक सीएम को  “फीडबैक” दिया गया कि आंशिक शराबबंदी नहीं चल पायेगी और उससे उद्देश्य हासिल नहीं होगा.

वो कहते हैं, “हमारा एडमिनिस्ट्रेशन बर्बाद हो गया. हमारा थाना पूरी तरह तबाह कर दिया इसने. सरकारी दुकानों की सीमित संख्या के ज़रिये इस समस्या को काबू किया जा सकता था लेकिन ऐसा नहीं हुआ.”

जन आक्रोश और राजनीतिक चोट

मुंगेर लोकसभा सीट में पड़ने वाले रामनगर दियारा गांव में यह रिपोर्टर ऐसी करीब 100 महिलाओं के समूह के साथ बैठा है जो महादलित समुदाय की हैं. इन महिलाओं का गुस्सा शराब पर पुलिस और प्रशासन की ढिलाई को लेकर है. सामान्य कद काठी वाली सेवासती देवी यह सवाल पूछने पर फट पड़ती हैं कि शराबबंदी से ज़िंदगी कितनी बदली?

“कौन कहता है कि शराब बन्द हुआ है? खूब मिल रहा है. (गांव में) बन भी रहा है… बिक भी रहा है. पहले मरद (पुरुष) लोग 20 रुपये में पीते थे अब 300 रुपया फूंक रहा है,” सेवासती देवी कहती हैं. बाकी सभी महिलाएं उनके समर्थन में कुछ न कुछ कहती हैं और प्रशासन और पुलिस को कोसती हैं.

“कोई बदलाव नहीं आया. पुलिस तो सबको बरबाद कर दिया. शराबे है इहां चारो ओर,” अपनी गोद में बच्चा लिये 30 साल की अनीता देवी कहती हैं. ऐसी ही नाराज़ महिलायें अलग अलग गांवों में मिलीं.

पटना से करीब 55 किलोमीटर दूर घोसवारी गांव की मिन्नत परवीन और जहांआरा खातून का कहना है कि जब तक पुलिस शराब बेचने वालों की मदद करती रहेगी शराब नहीं मिट सकती. ये दोनों महिलाएं अपने क्षेत्र में शराबबंदी की मुहिम में सक्रिय रहीं. यह भी सच है कि पुलिस ने जिन डेढ़ लाख लोगों को अब तक जेल में डाला है उसमें समाज के कमज़ोर हिस्से के लोग ज्यादा हैं जो नीतीश कुमार का वोट बैंक हैं. क्या नीतीश इस मुहिम के पटरी से उतर जाने पर चिंतित नहीं होंगे? एक महत्वपूर्ण राजनीतिक पहलू यह भी है कि जिस मुसहर समुदाय की जीविका पर शराबबंदी की चोट पड़ी और जिससे पुलिस धन उगाही करती रही है उस समुदाय के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी इन लोकसभा चुनावों में नीतीश कुमार के खिलाफ खड़े महागठबंधन में हैं.

यह भी सच है कि शराबबंदी क़ानून के तहत बड़ी संख्या में समाज के दलित, महादलित और अतिपिछड़े समुदाय के लोग गिरफ्तार हुये हैं जो कि चुनाव में अहम रहेगा. [फोटो – नागेन्द्र कुमार]

मुख्यमंत्री ने लगातार अपने इस कदम को कामयाबी के रूप में गिनाया है. वह राजस्व घाटे की बात को खारिज करते हैं और लोगों के जीवन में “गुणात्मक बदलाव” की बात करते हैं. “पैसा बच रहा है और लोग उसे अपनी बेहतरी में खर्च कर रहे हैं.” यह बात नीतीश कई मौकों पर कह चुके हैं. सरकार कहती है कि जिन लोगों के रोज़गार पर शराबबंदी की चोट पड़ी वह सब्ज़ी, अंडा और फल बेचने से लेकर परचून और कपड़े की दुकान चला रहे हैं.

फिलहाल यह कहना मुश्किल है कि पूरे बिहार में नीतीश की पार्टी और एनडीए को शराबबंदी का कितना फायदा मिलेगा. इतना ज़रूर है कि सभी जाति और संप्रदायों की ग्रामीण महिलाओं के एक हिस्से में शराबबंदी को लेकर नीतीश के प्रति सम्मान का भाव है. मुज़फ्फरपुर के मझौली खेतल गांव की सलमा इस बात की ताकीद करती हैं. वो कहती हैं, “भैय्या सुनिये फायदा तो सभी को हुआ है ना, चाहे हिन्दू हो या मुसलमान, हर घर में मर्द शराब पीकर आ रहे थे. इससे कुछ राहत तो मिली ही है.”

“तो क्या आप मुस्लिम होने के बाद भी शराबबंदी के लिये नीतीश कुमार को वोट देंगी?”

“हां. क्यों नहीं? दे सकते हैं…”

“यह जानते हुये कि वह नरेंद्र मोदी के साथ हैं?”

“ना… उसका कोई मतलब नहीं है… दे सकते हैं.”

पटना में प्रभात ख़बर के संपादक अजय कुमार कहते हैं, “नीतीश इस राहत के महत्व को समझते हैं और अपने भाषणों में ये बातें मज़बूती से रखते हैं. वह दूसरे पड़ोसी राज्यों से भी इसी तरह का कदम उठाने की अपील करते हैं लेकिन वह उसकी नाकामी और इससे उपजे भ्रष्टाचार के प्रति चौकन्ने भी हैं. इसीलिए उन्होंने हाल में अपने राज्य के डीजीपी की खिंचाई करते हुये कहा कि मीडिया की सुर्खियां बटोरने से अच्छा होगा कि वह काम पर ध्यान दें.”

नीतीश कुमार के गांव से कुछ दूर ये ग्रामीण महिलायें बताती हैं कि पुलिस प्रशासन की नाकामी से शराब फिर लौट आई है. [फोटो – हृदयेश जोशी]

पुलवामा में हुए आतंकी हमले और भारत की ओर से किये गए एयर स्ट्राइक के बाद चुनाव में राष्ट्रीय सुरक्षा और राष्ट्रवाद का ज़ोर है और बिहार में इसका असर साफ दिख रहा है. ऐसे में आखिर वोटिंग के दिन शराबबंदी का मुद्दा कितना अहम रह जायेगा.

कुमार कहते हैं, “चुनाव में चीज़ें दूसरे ही स्तर पर चली जाती हैं और इस चुनाव का मिज़ाज देखते हुये लगता है कि शराबबंदी को लेकर वोटरों का एक छोटा वर्ग ही मत देगा.”

असल में नीतीश कुमार ने अपने 15 साल के कार्यकाल में एक अतिवाद से दूसरे अतिवाद का रुख किया है. पहले शराब को जमकर बढ़ावा और फिर सिरे से प्रतिबन्ध जिसके खिलाफ शराब माफिया और पुलिस की एकजुटता और भ्रष्ट नौकरशाही ने गठबंधन कर लिया.

वोट किसे देंगे?

सिवान के गोपालगंज चौक पर मेरे इस सवाल के जवाब में 28 साल के केसर का कहना है, “जो शराबबंदी हटाएगा. उसे.” इस जवाब से हमारे कान खड़े हो जाते हैं. जब तक हम गंभीरता से केसर की ओर मुखातिब होते हैं, केसर और उसके दोस्तों के बीच इस जवाब को लेकर ताली बजाने और हंसने का एक दौर पूरा हो चुका होता है.

इस बयान को किसी पियक्कड़ की ख्वाहिश या हंसी-ठिठोली में नहीं टाला जा सकता. इसकी वजह पूछने पर वह कहते हैं, “मिल तो सभी जगह रहा ही है. फिर हम अधिक पैसा देकर और छुपकर क्यों पिएं?”