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ज़हरीली हवा और सियासत की हवाबाजी
हाल में दुनिया भर में वायु प्रदूषण की स्थिति पर एक वैश्विक रिपोर्ट आयी है. स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर-2019 (एसओजीए) रिपोर्ट के अनुसार, वायु प्रदूषण के कारण साल 2017 में स्ट्रोक, मधुमेह, दिल का दौरा, फेफड़े के कैंसर जैसी बीमारियां होने से पूरी दुनिया में लगभग 50 लाख लोगों की मौत हुई थी. इस दौरान अकेले भारत में तक़रीबन 12 लाख लोगों की मौत वायु प्रदूषण की वजह से हो गयी थी. एसओजीए के अनुसार भारत दुनिया का तीसरा सबसे प्रदूषित देश है. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली एनसीआर का इलाका दुनिया के सबसे प्रदूषित इलाकों में से एक है और यहां की हवा की गुणवत्ता बेहद ख़राब है. इसके अलावा दुनिया के 20 सबसे अधिक प्रदूषित शहरों की सूची में अकेले भारत के 15 शहर शामिल हैं.
हवा की स्थिति दिन-ब-दिन ख़राब होती जा रही है और लगातार जानलेवा हो रही है, लेकिन बावजूद इसके देश के राजनीतिक विमर्शों का हिस्सा नहीं है. देश का राजनीतिक वर्ग वायु प्रदूषण की भयावहता पर न गंभीर दिखायी देता है, न ही इस सवाल पर जनता के बीच जाने की ज़रूरत ही उसे महसूस होती है. 2019 लोकसभा चुनाव जारी हैं और कोई भी राजनीतिक दल अपने चुनाव प्रचार में वायु प्रदूषण या पर्यावरण के सवाल पर बोलता नज़र नहीं आ रहा है.
वायु प्रदूषण के इतने भयावह स्तर तक पहुंच जाने के बावजूद, इसे लेकर जागरूकता क्यों नहीं दिखायी देती है? प्रदूषण की ऐसी मार के बीच भारत जैसी अर्थव्यवस्थाओं के लिए कैसा भविष्य इंतज़ार कर रहा है? तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था में पर्यावरण से जुड़े बुनियादी सवाल पीछे क्यों छूट जा रहे हैं? इन तमाम सवालों पर वरिष्ठ पत्रकार हृदयेश जोशी और ग्रीन पीस से जुड़े सुनील दहिया से न्यूज़लॉन्ड्री के कार्यकारी संपादक अतुल चौरसिया ने बातचीत की.
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