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अपनी ही तराजू पर ख़ुद को कैसे तौलें?

जब देश में महाभारत छिड़ा हो, तब महाभारत ही याद आयेगा न! सो महाभारत में ऐसे प्रसंग आये हैं जब धर्मसंकट में पड़े हैं धर्मराज! हम याद करें कि वे धर्मराज युधिष्ठिर ही थे कि जिन्होंने ‘नरो वा कुंजरो वा’ कह कर द्रोणाचार्य का वध करवाने और फिर भी सत्यवादी बने रहने की चालाकी की थी. उनकी वह चालाकी आज तक कलंक बन कर उनके माथे से चिपकी है! वे धर्मराज थे; आज का प्रसंग संविधान नामक धर्म के रक्षक का है. वे युधिष्ठिर थे; ये तरुण गोगोई हैं. संकट एक ही है – अपनी ही तराजू पर ख़ुद को कैसे तौलें?

मुझे नहीं मालूम कि हमारे देश की न्यायपालिका की सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठे न्यायमूर्ति तरुण गोगोई पर जिस महिला ने पहले शारीरिक और फिर मानसिक शोषण का आरोप लगाया है, वह कौन है; वह कैसे उनके घर में, उनके निजी चैंबर तक जा पहुंची और उनकी निजता के समय में हिस्सेदारी करने लगी; और फिर वह कौन है जो उस तक पहुंचा कि वह अब न्याय मांगने हमारे बीच आ पहुंची है? यह सब कुछ किसी षड्यंत्र का हिस्सा हो सकता है, लेकिन इससे हमें या तरुण गोगोई को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ना चाहिए. इसलिए फ़र्क़ नहीं पड़ना चाहिए कि जिसने आरोप लगाये हैं, और जिसके ख़िलाफ़ आरोप लगाये गये हैं, दोनों की न्यायिक जांच की एक सर्वस्वीकृत, पारदर्शी प्रक्रिया-विशाखा- हमारे यहां बनी हुई है और हमारे समाज में उसका इकबाल भी बना हुआ है. सारी परेशानी और एक अशोभनीय विवाद यहीं से खड़ा हो रहा है.

न्यायपालिका ने निर्देश से, महिला उत्पीड़न की हर शिकायत को निबटाने के लिए हर संस्थान में विशाखा समिति बनाने की अनिवार्यता है, और जो सर्वोच्च न्यायालय में भी बनी हुई है, अपने मामले में सर्वोच्च न्यायाधीश ने उस समिति को दरकिनार क्यों कर दिया है? सबसे बड़ी अदालत के सबसे बड़े न्यायमूर्ति पर, वैधानिक व्यवस्था के तहत उन्हें मिले उनके सहायकों में से सबसे छोटे पद पर नियुक्त 35 वर्षीय अलका रानी ने शपथ-पत्र दाखिल कर आरोप लगाया है कि रंजन गोगोई ने अपने सर्वोच्च पद के अधिकार का दुरुपयोग कर, उनके साथ शारीरिक छेड़छाड़ की. शपथ-पत्र काफी बड़ा ही नहीं है, बल्कि इतने विस्तार से, हर छोटी बात को तारीख़वार दर्ज़ कर के तैयार किया गया है कि कोई भी समझदार आदमी समझ लेगा कि यह सब किसी व्यवस्थित योजनानुसार किया गया है.

ऐसा हो तो भी हमें कोई अधिकार नहीं है कि हम अलका रानी को खारिज़ कर दें. इस आरोप की विधिवत जांच होनी ही चाहिए और हमें पता भी चलना चाहिए कि जांच में क्या पाया गया! इसका तरीका एकदम सीधा था, और है. रंजन गोगोई के सामने जैसे ही यह बात आयी, उन्हें सर्वोच्च न्यायालय में ऐसे मामलों के लिए ही बनी हुई समिति को इसे सौंप कर भूल जाना चाहिए था और उन मामलों की सुनवाई में लग जाना चाहिए था जो उनकी बेंच के सामने हैं और जिनका नाता देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के स्वास्थ्य से है.

लेकिन रंजन गोगोई ने ख़ुद ही एक दो सदस्यीय बेंच गठित कर दी; खुद ही उसमें पेश हो गये और अपनी गरीबी की, बैंक में रखे पैसों की बात बता कर मामले को भटका दिया. फिर उसके ही आधार पर एक फैसला भी सुना दिया गया. इस अदालती कसरत की व्यर्थता पर सवाल उठे, तो उन्होंने फिर सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश बोबड़े को यह मामला सौंप दिया, जिन्होंने न्यायमूर्ति रमन्ना और इंदिरा बनर्जी को अपने साथ जोड़ लिया और इस मामले की सुनवाई शुरू कर दी. क्या देश की सर्वोच्च अदालत के पास, जो रात-दिन इसका ही रोना रोती रहती है कि उसके पास ज़रूरी मामलों की सुनवाई करने के लिए पर्याप्त जज ही नहीं हैं, इतना वक़्त है और इतने जज हैं कि वह एक महिला की ऐसी शिकायत की जांच के लिए जमीन-आसमान एक कर दे? फिर विशाखा समिति की ज़रूरत ही क्या है? यह मामला इतना बड़ा बनाया ही क्यों गया? क्या इसलिए कि हमारी न्यायिक व्यवस्था कुछ छुपाना और किसी को बचाना चाह रही है? न्याय के बारे में वह कहावत पुरानी है, लेकिन बहुत अर्थवान है कि न्याय हुआ यह काफी नहीं है, समाज को दिखायी भी देना चाहिए कि न्याय हो रहा है! रंजन गोगोई और हमारी न्यायपालिका इसमें चूक कर गयी.

अब षड्यंत्र का एक नया ही पहलू अधिवक्ता उत्सव बैंस के हलफ़नामे से उभरा है. वे इस आरोप के पीछे एक कारपोरेट घराने और कुछ असंतुष्ट कर्मचारियों के बीच बुने गये षड्यंत्र की बात करते हैं तथा डेढ़ करोड़ रुपयों के सौदे की बात करते हैं. अब इसकी जांच में अदालत की एक दूसरी बेंच पड़ी है. उसे पड़ना ही चाहिए और इस पूरे मामले की जड़ तक पहुंचना चाहिए. यदि इसके पीछे धनबल-सत्ताबल से उन्मत्त लोग हैं, तो उनका चेहरा देश के सामने आना ही चाहिए. देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को ध्वस्त करने की कोशिश का यह भी एक हिस्सा है या नहीं, यह देश को पता चलना चाहिए. लेकिन अलका रानी का आरोप इस अंधाधुंधी में कहीं खो नहीं जाना चाहिए; और न यही होना चाहिए कि उनका आरोप यदि झूठा है, तो कहीं भुला दिया जाये. इसलिए बहुत ज़रूरी है कि अलका रानी और उत्सव बैंस का मामला अलग-अलग चले. अलका रानी का मामला विशाखा समिति को अभी-के-अभी सौंप देना चाहिए और न सर्वोच्च न्यायालय को और न रंजन गोगोई को इसके पीछे मिनट भर भी ख़राब करना चाहिए. विशाखा समिति को अपनी जांच में यदि ऐसा लगे कि यह शारीरिक शोषण का नहीं, राजनीतिक चालबाजी का मामला है तो उसे ऐसा बता कर, मामले की पूरी जानकारी उस बेंच को दे देनी चाहिए जो बैंस का मुकदमा सुन रही है. इससे सर्वोच्च न्यायालय का समय भी बचेगा, उसकी विश्वसनीयता कायम ही नहीं रहेगी बल्कि बढ़ेगी और रंजन गोगोई की बेंच उन सारे मामलों की सुनवाई करती रह सकेगी, जिनका संबंध भारतीय लोकतंत्र के भविष्य और सरकार की मनमानी से है.