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पांच साल के मोदी राज ने कैसे तोड़ा है घरेलू रिश्तों को

अकादमिक जगत, पब्लिक इंटेलेक्चुअल्स, सिविल सोसाइटी के बीच इन दिनों एक बहस बहुत आम हो चुकी है कि मोदीराज के पांच सालों में क्या-क्या बदला है. और बदलाव की ये बहस विकास, नीतियों और नारों की बहस नहीं होती, बल्कि यह सामाजिक संरचना में आये बदलाव की बहस है, यह आम जनजीवन में पैदा हुए खुरदुरेपन की बहस है. मोदी के ही काल में ये संभव हुआ कि ख़बरों की फैक्ट चेकिंग की एक पूरी नयी विधा ने पांव जमा लिए. इसी तरह के बदलाव लोगों के निजी जीवन, निजी रिश्तों, मित्रताओं और संबंधों में भी आये हैं. इसका समाजशास्त्रीय विश्लेषण जब होगा तब होगा, लेकिन मीडिया के नज़रिये से इस चलन को समझना भी जरूरी है.

फेसबुक पर अमिता नीरव लिखती हैं, “बीते पांच सालों में एक-एक करके सारे रिश्तेदार दूर होते चले गये हैं. बचपन के दोस्तों ने ब्लॉक कर दिया. कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दोस्तों ने कन्नी काटनी शुरू कर दी है. दफ्तर के साथी राजेश की लिस्ट में हैं नहीं. जो लोग मेरी नॉन पॉलिटिकल पोस्ट के प्रशंसक थे, उनमें से कई मुझे अनफ्रेंड कर चुके हैं, कइयों ने अनफॉलो किया हुआ है.

हमारा सोशल मीडिया ऐसी तमाम कहानियों से भरा हुआ है. दिलचस्प ये है कि इस तरह की पोस्ट को पढ़ने वालों और टिप्पणी करने वाले तमाम लोगों को लगता है कि इस पोस्ट में उनके ख़ुद के दर्द को शब्द मिल गये. सुधा अरोड़ा लिखती हैं- “कई बार आप बहुत बेचैनी और छटपटाहट से भरे होते हैं और उसका कारण आप बता नहीं पाते. कोई दूसरा जब उसे शब्द दे देता है, तो आप को बहुत सुकून मिलता है. ऐसा ही अमिता की पोस्ट को पढ़कर हुआ. तीन साल से कुछ लिख नहीं पा रही हूं. “रायटर्स ब्लॉक” कह कर अपने को बहला रही हूं. मैं अकेली नहीं हूं. ऐसे अकेले बहुत से लोग हैं. सब को अकेले कर दिया गया है. लोग एक-दूसरे से बच निकलने की कला सीख गये हैं.”

उज्जैन में राजनीतिक शास्त्र में शिक्षित अमिता की पोस्ट पढ़कर विजय शर्मा ने टिप्पणी की कि यह दर्द लगभग हर दिल को परेशान कर रहा है. उनके अनुसार “हर विचारशील व्यक्ति इसी दौर से गुज़र रहा है.”

प्रेम प्रकाश जुनेजा तो राजनीतिक मतभेदों की वजह से अपने निजी रिश्तों से बाहर व्यवसायी रिश्तों के खोने का दर्द ज़ाहिर करते हैं. वे लिखते है- “मैं तो लगातार अपने पुराने ग्राहक खोते जा रहा हूं. मोदी बीजेपी की आलोचना का मतलब दुश्मन पैदा करना.”

भारत में बीते पांच सालों में शोध के लिए कई ऐसे विषय सामने आये हैं, जिन पर लगता है कि वर्षों-वर्षों तक अकादमिक अध्ययन की ज़रूरत बनी रहेगी. ऐसे ही अध्ययनों में यह पहलू भी शामिल हो सकता है कि पांच सालों की राजनीति का आपसी रिश्तों पर कितना गहरा असर देखने को मिला है.

क्या रिश्ते राजनीतिक ही होते हैं?

राजनीतिक सोच रिश्तों को प्रभावित करती है, लेकिन रिश्तों के बीच घृणा और बहिष्कृत करने की घटनायें बीते पांच वर्षों में सामान्य हो गयी है. प्रशांत बताते हैं कि बचपन के जिन दोस्तों के घर आना-जाना था, वह मोदी सरकार बनने के बाद से कड़वाहट में बदलने लगा. वे दोस्त व्हॉट्सएप पर ही बदतमीज़ी पर उतारू नहीं होते, बल्कि घर में बैठे हैं तो हमले की मुद्रा में खड़े हो जाते हैं. देशद्रोही और नक्सल कहने लगे हैं. प्रशांत इसकी दो वजहें बताते हैं. एक तो उनके सारे दोस्त सवर्ण हैं और वे सेना के लिए काम करते हैं.

ऋषि का अनुभव प्रशांत को पुष्ट करने की कोशिश करता दिखता है. वे बताते हैं कि उनके साले पहले कानून के छात्र थे और तार्किक तरीके से राजनीतिक घटनाक्रमों पर बात करते थे. लेकिन इन वर्षों में वे सेना में चले गये और मोदी द्वारा डिस्लेक्सिया जैसी बीमारी से जुझने वाले बच्चों को मजाक बनाने का भी समर्थन करने लगे.

लेकिन वरुण का अनुभव भक्ति के सामाजिक आधार को एक अलग आयाम देता है. वे लिखते हैं- “मैं घर में अकेला ऐसा शख़्स था, जो नरेंद्र मोदी का समर्थक नहीं था. मोदी से जुड़ी किसी भी बात पर घर के दूसरे सदस्यों की विपरीत टिप्पणी होती थी. यहां तक कि उन्हें इस बात से भी लगभग कोई फ़र्क नहीं पड़ता था कि घर की माली हालत ऐसी नहीं है कि एक साथ दो लोग पीएचडी कर सकें. पिछली सरकार के दलित आदिवासी शोधार्थियों के लिए स्कॉलरशिप के फैसले की वजह से पीएचडी करने में काफी मदद मिली. बाद के दिनों में तो मोदी सरकार ने कई तरह के अड़ंगे लगाकर राष्ट्रीय फेलोशिप को रोक दिया.”

“मतलब हर बात पर मैं अकेला होता था. स्थिति यह हो गयी कि मैंने घर पर फोन करना लगभग बंद कर दिया. जब फोन करता भी था तो बस औपचारिक बातचीत मसलन घर में सब लोग कैसे हैं, फलां की तबीयत कैसी है, खेत में पानी चल गया या नहीं, गेंहू या धान कटा या नहीं…उधर से भी फोन आना कम हो गया. इतनी बुरी स्थिति थी कि रोहित वेमुला की मौत के लिए भी उसे ही दोषी माना जा रहा था. हम सब दोनों तरफ़ से लोग राजनीतिक बातचीत से बचने लगे. हां, इतना जरूर था कि मेरी बातों को निराधार साबित करने के लिए उनके पास कोई ठोस तर्क नहीं होते थे, बस समर्थक थे तो थे,” वरुण कहते हैं.

रिश्तेदारों में भक्त बनने की समस्या

विवेक बताते हैं कि वे अपने चाचा की बेटी के घर गये. उन्होंने (चाचा की बेटी) और उसके पति ने उन्हें नमस्ते तक नहीं किया और जब उन्होंने अपनी ओर से हैलो कहा तो उसका भी जवाब नहीं दिया. दिन भर टीवी देखता रहा लेकिन एक शब्द भी बातचीत नहीं की. क्योंकि ताजा राजनीतिक घटनाक्रमों पर उससे मेरी पूर्व में दो बार बहस हो चुकी थी.

विवेक एक दिलचस्प बात बताते हैं कि मोदी के प्रेम में दीवाने हुए लोग अपने करीबियों से तो इस कदर नाराज़ हो जाते हैं कि सारे रिश्ते तोड़ने को तैयार हो जाते हैं और सोशल मीडिया पर वह व्यक्ति उनका सबसे प्रिय दोस्त बना हुआ है जो कि भाजपा की मीडिया सेल का एक प्रभारी है.

अपने बच्चे के भक्तों की तरह नहीं दिखने की नाराज़गी

“भक्त पिता” को इन पांच वर्षों में बच्चों के भीतर अपना वैचारिक प्रतिनिधि उगाने की जद्दोजहद में जूझते संपत के इस अनुभव में देखा जा सकता है. उन्होंने बताया कि सेना में काम करने वाले एक दोस्त ने दिल्ली में अपनी बेटी का उन्हें लोकल गार्जियन बनाया. वह दिल्ली यूनिवर्सिटी के रामजस कॉलेज में पढ़ती थी. वहां फरवरी 2017 में हंगामे से उपजे विवाद के बाद उसकी बेटी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के ख़िलाफ़ प्रदर्शनों में शामिल हो गयी. तब उस सैनिक दोस्त ने उससे यह शिकायत की कि उसकी बेटी को संपत ने कम्युनिस्ट बना दिया.

ऋषि, वरुण या सुधा अरोड़ा सभी एक-दूसरे की इस बात की पुष्टि करते हैं कि उन जैसे लोगों ने हाल के वर्षों के दौरान रिश्तेदारों के बीच एक दूसरे से बच निकलने की कला सीख ली है.

मोदी की छवि पूरी तरह से विभाजनकारी है. हिंदू-मुसलमान, भारत-पाकिस्तान जैसी तमाम छवियों में वह अपने लिए सुविधाजनक राजनीति खोज लेते हैं. ध्रुवीकरण उनका मुख्य हथियार है. जाहिर है उनके उत्कर्ष के चरम में उनकी विभाजनकारी छवि ने परिवार जैसी ताकतवर, गहरी संस्थाओं को भी हिला दिया है.