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पेड या प्रोपगैंडा : अमर उजाला का पीपीआरसी प्रेम

अमर उजाला डॉट कॉम ने एक मई को पीपीआरसी नाम की एक संस्थान द्वारा जारी एक रिपोर्ट के हवाले से एक ख़बर प्रकाशित किया. इसका शीर्षक है, “सत्तर दावों में 67 में फेल हुई दिल्ली सरकार, फ्री वाई-फाई की शुरुआत तक नहीं’. इस ख़बर को एक मई से 12 मई के बीच अमर उजाला के फेसबुक और ट्विटर पेज़ के ज़रिये बार-बार शेयर किया गया. हमारी गिनती में आया कि यह चार बार फेसबुक और ट्विटर पर शेयर हुआ. संख्या इससे ज्यादा भी हो सकती है. गौरतलब है कि 12 मई को दिल्ली में मतदान हो रहा था.

देश में चल रहे लोकसभा चुनाव के दौरान और दिल्ली में मतदान से ठीक पहले आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार की आलोचना करने वाली स्टोरी जिस संस्थान की रिपोर्ट के हवाले से प्रकाशित किया गया था, उसके बारे में अमर उजाला ने कुछ महत्वपूर्ण जानकारियां छिपा लीं. सिर्फ ये लिख देना कि ‘पीपीआरसी की रिपोर्ट ऐसा कहती है’ एक लिहाज से पाठकों को भ्रमित कर उसके राजनीतिक विचारों को प्रभावित करने की कोशिश है. और जिस तरीके से अमर उजाला ने बार-बार यह काम किया उससे इसकी नीयत पर कई गहरे सवाल खड़े होते हैं. पीपीआरसी, पीपल्स पॉलिसी रिसर्च सेंटर भारतीय जनता पार्टी से सीधे संबद्ध एक शोध संस्था है. पहले आप इसके बारे में जान लें, फिर अमर उजाला की स्टोरी को समझने में सहूलियत होगी.

क्या है पीपीआरसी?

पीपीआरसी को हिंदी में लोक नीति शोध केंद्र के नाम से भी जाना जाता है. पीपीआरसी की वेबसाइट के मुताबिक यह संस्थान डॉ मुखर्जी स्मृति न्यास के तहत स्थापित एक शोध संगठन है. डॉ मुखर्जी स्मृति न्यास भारतीय जनता पार्टी से जुड़ा हुआ संगठन है. भारतीय जनता पार्टी के मुखपत्र कमल संदेश का भी पब्लिकेशन मुखर्जी न्यास द्वारा ही कराया जाता है. अगर हम इसके डायरेक्टर्स का नाम देखें तो सभी डायरेक्टर किसी न किसी रूप में बीजेपी से जुड़े हुए हैं.

डॉ. विनय सहस्रबुद्धे

डॉ. विनय सहस्रबुद्धे पीपीआरसी के डायरेक्टर हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के छात्र संगठन एबीवीपी के कार्यकर्ता के रूप में राजनीतिक करियर शुरू करने वाले विनय सहस्रबुद्धे बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रह चुके हैं. वर्तमान में महाराष्ट्र से राज्यसभा के सांसद हैं.

नलिन सत्यकाम कोहली

नलिन एस कोहली टेलीविज़न के पर्दे पर दिखने वाले भाजपा के कुछ लोकप्रिय चेहरों में से एक हैं. ये भी पीपीआरसी के निदेशक हैं. पीपीआरसी वेबसाइट पर दिये गए नलिन के परिचय में भी साफ़-साफ़ लिखा हुआ है कि बीजेपी के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य हैं और अभी मिजोरम में बतौर राज्य प्रभारी काम कर रहे हैं. हाल ही में अंतरराष्ट्रीय मीडिया संस्थान अल-जज़ीरा के साथ डिबेट में भोपाल से बीजेपी की उम्मीदवार प्रज्ञा ठाकुर की उम्मीदवारी का बचाव करने वाला नलिन का वीडियो सोशल मीडिया पर काफी वायरल हुआ था.

सुमित भसीन

सुमित भसीन के परिचय में पीपीआरसी की वेबसाइट बताती है कि वे लालकृष्ण आडवाणी की विवादास्पद राम रथयात्रा में उनके साथ मौजूद थे. यही नहीं, सुमीत भसीन का बीजेपी से जुड़ाव 3 दशक से भी पुराना है. एबीवीपी से जुड़े रहे भसीन, भारतीय जनता युवा मोर्चा के उपाध्यक्ष भी रह चुके हैं. वर्तमान में दिल्ली राज्य कार्यकारिणी के सदस्य हैं और भाजपा के ई-प्रशिक्षण सेल के राष्ट्रीय संयोजक हैं.

राजेंद्र आर्य

राजेंद्र आर्य, पीपीआरसी के चौथे निर्देशक हैं. वेबसाइट पर दिये गये परिचय के अनुसार आर्य का बीजेपी से पुराना कोई जुड़ाव नहीं रहा है, लेकिन इन्होंने बीजेपी के नेताओं और कार्यकताओं को प्रशिक्षण देने वाले राष्ट्रीय प्रशिक्षण प्रकोष्ठ में रहकर नेताओं और पार्टी कार्यकर्ताओं को राजनीतिक प्रशिक्षण दिया है.

यानी यह बात साफ़ है कि पीपीआरसी बीजेपी से जुड़ा हुआ संस्थान है. यहां दो वाजिब सवाल पैदा होते हैं. पहला, इस तरह के राजनीतिक संस्थान की कोई भी रिपोर्ट जो उसके राजनीतिक विपक्षी से जुड़ी हुई है, वह कितनी विश्वसनीय हो सकती है. दूसरा अमर उजाला ने जब पीपीआरसी की रिपोर्ट के आधार पर ख़बर प्रकाशित किया तो उसने अपनी स्टोरी में इस बात को स्पष्ट करने की जरूरत क्यों नहीं समझी कि पीपीआरसी, बीजेपी से जुड़ा एक संस्थान है.

अमर उजाला द्वारा इस साधारण पत्रकारीय मानक का उल्लंघन करने और बार-बार स्टोरी को शेयर करने की मंशा क्या हो सकती है? या तो यह पेड स्टोरी है, या फिर यह स्टोरी बीजेपी की तरफ से अपने विपक्षी आम आदमी पार्टी को नुकसान पहुंचाने के लिए प्लांट की गयी.

पीपीआरसी जैसे शब्द संक्षेप वाले नाम अक्सर भ्रम पैदा करते हैं. ज्यादातर पाठक मानसिक तौर पर हमेशा इतना सजग नहीं रहता कि इस तरह की महीन चालों को समझ सके. इससे जनता में भ्रम पैदा होता है कि यह किसी स्वतंत्र संस्थान का सर्वे है. जबकि यह सर्वे दिल्ली की आप सरकार की मुख्य विपक्षी पार्टी बीजेपी द्वारा चुनाव के बीच में ही कराया गया है.

इस संबंध में जब हमने अमर उजाला डॉट कॉम के संपादक जयदीप कार्णिक से सवाल किया तो उन्होंने बताया, “यह ख़बर पीपीआरसी के निदेशक डॉ. विनय सहस्रबुद्धे द्वारा जारी की गयी रिपोर्ट के आधार पर की गयी है. खबर में डॉ. विनय सहस्रबुद्धे का नाम है. विनय सहस्रबुद्धे के बारे में लगभग सभी लोग जानते हैं, उनका बीजेपी से जुड़ाव छिपा नहीं हैं.”

ठीक दिल्ली में मतदान से पहले आम आदमी पार्टी सरकार के ख़िलाफ़ ख़बर को बार-बार सोशल मीडिया पर शेयर करने के सवाल पर जयदीप ने बताया, “जो ख़बर ज़्यादा चलती है, उसे सोशल मीडिया की टीम अपने अनुसार शेयर करती रहती है. इसमें एडिटोरियल टीम की कोई भूमिका नहीं है.”

अमर उजाला की इस रिपोर्ट के संबंध में हमने आम आदमी पार्टी के पूर्व दिल्ली संयोजक दिलीप पांडेय से बात की तो उनका कहना था, “ये रिपोर्ट बीजेपी ने बनवायी है. ये कह रहे हैं कि 70 में से 67 काम नहीं हुए हैं. मैं अभी इसी वक़्त कम से कम 20 से ज़्यादा काम गिना सकता हूं, जो हमने कहा और पूरा किया.”

बीजेपी का नाम छुपाना पत्रकारीय दायित्वों से धोखा है?

मीडिया आलोचक और मंडी में मीडिया नामक किताब के लेखक विनीत कुमार ख़बर में पीपीआरसी के बीजेपी से संबंध छुपाने के सवाल पर कहते हैं, “अगर नाम छुपाया गया तो वह ख़बर न होकर प्रोपेगेंडा हो गयी. इस तरह के सर्वे में दो बातें रिपोर्टर को जरूर बतानी चाहिए. पहला, रिपोर्ट किसने जारी किया है. उसके निदेशकों का किसी भी राजनीतिक दल से कोई संबंध हो, तो उसका ज़िक्र अनिवार्य रूप से करना चाहिए. दूसरी चीज़, सर्वे का आधार क्या है. उसका सैंपल साइज़ क्या है. मसलन, जिस स्कूल की स्थिति ख़राब हो उन्हीं स्कूलों के आधार पर सर्वे हो और जहां काम हुआ है उसे छोड़ दिया गया हो. सर्वे में सबसे ज़्यादा खेल सैंपल साइज़ में होता है.”

राजनीतिक चिंतक और विश्लेषक अभय कुमार दुबे इस संबंध में कहते हैं, “आजकल मीडिया में नैतिकता नाम की कोई चीज़ बची नहीं है. अगर सर्वे करने वाले का नाम और उसका संबंध गलती से छुपाया गया तो ये रिपोर्टर की नासमझी है और अगर जानबूझकर छुपाया गया है तो आप प्रोपेगेंडा का हिस्सा बन रहे हैं.”

हमारे संपर्क करने के बाद, अमर उजाला ने अब अपनी स्टोरी को अपडेट करते हुए उसमें एक लाइन जोड़ दिया है कि पब्लिक पॉलिसी रिसर्च सेंटर (लोकनीति शोध केंद्र) के निदेशक विनय सहस्त्रबुद्धे भारतीय जनता पार्टी की ओर से राज्य सभा सदस्य हैं. यह बदलाव ही इस स्टोरी को प्रासंगिकता बना देता है. अगर अमर उजाला ने किसी और नीयत से यह स्टोरी नहीं की थी तो फिर न्यूज़लॉन्ड्री द्वारा संपर्क करने के बाद उसमें बदलाव क्यों किया.

लेकिन यह मुद्दा बना हुआ है कि बीजेपी की ओर से जारी हुए सर्वे के आधार पर लोकसभा चुनाव के दौरान ख़बर की गयी और आम लोगों के बीच संदेश गया कि यह एक स्वतंत्र रिपोर्ट है. इसके अहम तथ्य को गायब कर एक गलत सूचना क्या मीडिया संस्थान ने अपने पाठकों तक पहुंचायी. क्या अमर उजाला ने यह सब किसी एजेंडे के साथ किया?

पीपीआरसी की रिपोर्ट के हवाले से भ्रम फैलाने का काम इससे पहले भी होता रहा है. 19 अप्रैल को दैनिक जागरण ने भी पीपीआरसी की रिपोर्ट के आधार पर एक ख़बर प्रकाशित किया था जिसका शीर्षक था- ‘पीपीआरसी ने किया दावा, नरेंद्र मोदी सरकार ने हर साल दीं 1.5 करोड़ नौकरियां’.

जागरण द्वारा इस ख़बर को प्रकाशित करने का समय बेहद दिलचस्प है. यह खबर तब आयी जब बीजेपी सरकार बेरोज़गारी के सवाल पर चौतरफा घिरी हुई थी. कुछ दिन पहले ही भारत सरकार की एनएसएसओ की रिपोर्ट में सामने आया था कि बेरोज़गारी पिछले 45 सालों की तुलना में साल 2017-18 में अपने शीर्ष पर पहुंच गयी है. विपक्षी दल, खासकर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अपनी चुनावी सभाओं में लगातार मोदी सरकार को उनके 2 करोड़ रोज़गार के वादे पर घेर रहे थे. लेकिन जागरण ने भी अपनी स्टोरी में यह नहीं बताया कि पीपीआरसी भाजपा से जुड़ी हुई संस्था है.