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क्या सोचते हैं देश भर के कार्टूनिस्ट सेंसरशिप के सवाल पर?

दुनिया के सभी लोकतांत्रिक समाजों में कार्टून्स ने अपनी मजबूत जगह बनायी है. कार्टून कला का ऐसा माध्यम रहा है, जिसमें समाज के मुद्दों को रोचक तरीके से, डार्क-ह्यूमर के ज़रिये और तंजपूर्ण ढंग से उठाया जाता है. समय-समय पर ऐसा भी देखने में आया है कि कार्टून विधा का प्रभाव इतना गहरा होता है कि उससे सरकार में बैठे लोग, धार्मिक मठाधीश और समाज के ओहदेदार असहज हो जाते हैं.

यह असहजता कई बार इतनी बड़ी हो जाती है कि कार्टूनिस्टों पर नकेल कसने की कोशिशें की जाती हैं. फ़्रांस की राजधानी पेरिस के साप्ताहिक अख़बार चार्ली हेब्दो को तो आतंकी हमले का भी सामना करना पड़ा था. कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी को साल 2012 में अपने कार्टून्स के लिए देशद्रोह के मुकदमे का सामना करना पड़ा था.

पिछले एक दशक में सोशल मीडिया माध्यमों के ज़ोर पकड़ने के साथ एक अच्छी चीज़ हुई है कि जानकारियों पर किसी किस्म की रोक या प्रतिबंध कारगर नहीं हो पाता. यही बात कार्टूनों के साथ भी है. इंटरनेट के सहारे ‘मीम’ भी हमारे बीच मजबूत उपस्थिति दर्ज़ करा चुके हैं. हालांकि, अब ये माध्यम भी लगातार सेंसरशिप की राडार पर रहते हैं, और इनके आधार पर कार्रवाइयां भी होती हैं.

हाल में, पश्चिम बंगाल में भाजपा की युवा नेता प्रियंका शर्मा ने ममता बनर्जी की एक फोटोशॉप्ड तस्वीर सोशल मीडिया पर शेयर की थी, जिसके चलते उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और 4 दिन बाद सुप्रीम कोर्ट से उन्हें सशर्त ज़मानत दी गयी. इस मामले पर टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि “अभिव्यक्ति की आज़ादी तभी तक है, जब तक कि इससे किसी को कोई परेशानी न हो.” कोर्ट ने प्रियंका शर्मा को लिखित में माफी मांगने का भी निर्देश दिया. सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को लेकर पत्रकारिता और कला की दुनिया में कई तरह के विरोधाभासी बयान आने लगे हैं. क्या किसी को फोटोशॉप्ड इमेज शेयर करने के लिए जेल में डालना चाहिए या लिखित माफी मांगनी चाहिए?

हालांकि, यह मामला फोटोशॉप्ड इमेज़ से जुड़ा हुआ है, लेकिन कार्टून्स को लेकर सरकारों व मठाधीशों के रवैये के इतिहास को देखते हुए और सुप्रीम कोर्ट के इस बयान के आलोक में न्यूज़लॉन्ड्री ने कुछ कार्टूनिस्टों से कार्टून्स और सेंसरशिप को लेकर बातचीत की.

सुनील नम्पू

केरल के कार्टूनिस्ट सुनील नम्पू पेशे से इंजीनियर हैं, बतौर कार्टूनिस्ट फ्रीलांस करते हैं और स्वतंत्र रूप से कार्टून बनाने के पक्षधर हैं. कार्टून के कला पक्ष पर बोलते हुए सुनील कहते हैं, “कार्टून कला की बेहद शक्तिशाली विधा है, इसलिए इसका इस्तेमाल बहुत सावधानी से किया जाना चाहिए. इसे भी लोगों को समझना चाहिए कि कार्टून फोटोशॉप की गयी तस्वीरों से बहुत अलग चीज़ है. मेरा साफ़ मानना है कि कार्टून्स का इस्तेमाल किसी व्यक्ति पर हमले के लिए या ट्रोल करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए.”

(सुनील नम्पू के फेसबुक वाल से साभार)

सुनील आगे कहते हैं, “कार्टून का इस्तेमाल किसी मसले पर सवाल उठाने के लिए बौद्धिक तरीके से किया जाना चाहिए. जैसा भारत में 70-80 के दशक में होता भी था. कार्टून बनाते हुए आप सीधा हमला नहीं बोल सकते हैं. आपने कार्टून बना दिया है, उसके बाद यह पाठकों के विवेक पर निर्भर करता है कि वे इसका इस्तेमाल किस रूप में करते हैं. पाठक कार्टून में छिपी कला को देख पाते हैं, या ह्यूमर व पॉलिटिक्स को देख पाते हैं, यह उनकी समझ पर निर्भर करता है. और यकीनन कार्टूनिस्ट से भी कहीं ज़्यादा कार्टून को पाठक ही समझता है. कभी भी किसी को डिफेम करने के लिए कार्टून नहीं बनाया जा सकता है. यह करना बहुत आसान होता है कि किसी नेता या व्यक्तित्व की छवि के साथ खिलवाड़ करके उस पर हमला किया जाये. पर यह सही नहीं है. सीधा-सीधा ही सब कहना है तो कार्टून क्यों चाहिए?”

(सुनील नम्पू के फेसबुक वाल से साभार)

सरकार और सेंसरशिप के सवाल पर सुनील कहते हैं, “केवल 2014 के बाद ही नहीं, हमेशा ही सरकारें दमन करती हैं. उन्हें सवाल पसंद नहीं आते हैं. ऐसे में कार्टूनिस्टों की भूमिका बढ़ जाती है और ऐसी स्थिति में ही कार्टूनिस्टों की समझ का भी पता चलता है कि उनके अंदर ज़मीनी मुद्दों को लेकर कैसी और कितनी समझदारी है. हम ऐसे कार्टून बनाएं जिनसे जरूरी सवाल भी उठायें जा सकें और सरकार तिलमिलाने के बावजूद आपका कुछ न बिगाड़ पाये. दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज के समय में हमारे देश में कुछ ही कार्टूनिस्ट ऐसा कर पाने में सक्षम हैं. संस्थान भी हमसे अपने मनमुताबिक कार्टून बनाने को बोलते हैं. मान लीजिये कि आपको फासीवाद पर कार्टून चाहिए तो किसी व्यक्ति विशेष की छवि क्यों चाहिए? मैं इसे कार्टून का काम नहीं मानता.”

(सुनील नम्पू के फेसबुक वाल से साभार)

असीम त्रिवेदी

अपने बनाये कार्टून्स के लिए साल 2012 में देशद्रोह का मुकदमा झेल चुके और जेल जा चुके असीम त्रिवेदी न्यूज़लॉन्ड्री से सेंसरशिप के सवाल पर कहते हैं, “कोई भी कलाकार नहीं चाहेगा कि सेंसरशिप हो. क्योंकि कलाकार का काम है सृजन करना और सेंसरशिप उसे रोकती है. इसलिए हमेशा यह दोनों एक-दूसरे के ख़िलाफ़ ही खड़े मिलेंगे. सेंसरशिप रोकने, प्रतिबंध लगाने और सीमित करने के लिए ही इस्तेमाल की जाती है. तो कार्टूनिस्ट और सेंसरशिप हमेशा एक-दूसरे के विरोध में खड़े हैं, आमने-सामने हैं, इसलिए कलाकार सेंसरशिप से कभी सहमत नहीं हो सकता. न ही कभी सेंसरशिप कलाकार से सहमत होगी और ऐसा हमेशा रहेगा.”

असीम के मुताबिक, “समाज में कई तरह की दिक्कतें हैं. एक तरफ़ संविधान हमें कई तरह के अधिकार देता है, वहीं लोगों की कमजोरी का राजनेता फायदा उठाते हैं. सेंसरशिप कोई मौलिक चीज़ नहीं है, यह राजनीति का हिस्सा है, यह अलग से कोई स्वाभाविक प्रक्रिया नहीं है. शक्तिशाली लोग अपने फायदे के लिए टूल के रूप में सेंसरशिप का इस्तेमाल करते हैं. वहीं, कला की स्थिति अपने देश में मजबूत नहीं है. कला के क्षेत्र में गिने-चुने लोग हैं, पैसा है नहीं, अभी विकास की प्रक्रिया से ही गुज़र रहे हैं सभी. कला पॉपुलर कल्चर का हिस्सा भी नहीं है, गंभीर आर्ट की जगह बनी नहीं है. इसलिए कई बार एजेंडे के तहत भी लोग आर्ट का इस्तेमाल करते हैं कि किसी बड़े नेता का विरोध करेंगे तो प्रसिद्ध हो जायेंगे, या किसी के ख़ास हो जायेंगे.”

(www.bandw.in से साभार)

असीम मानते हैं कि “यह अच्छी बात हुई है कि सोशल मीडिया जैसे माध्यमों ने आम लोगों को एक स्थान दे दिया है, जिससे तमाम मसलों पर ख़ूब तंज किये जाते हैं, अलग-अलग विधाओं में. किसी और माध्यम या विधा में ही सही, अगर व्यंग्य हो रहा है, तो कार्टून रहें न रहें क्या फ़र्क पड़ता है. बहुत अर्थपूर्ण न सही, तंजपूर्ण बातें हो रही हैं, काफ़ी है.

सुहैल नक्शबंदी

कश्मीर दशकों से कॉनफ्लिक्ट ज़ोन बना हुआ है. यहां प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर सवालिया निशान खड़े होते रहते हैं और कार्टून या अन्य किसी विधा में भी यहां के हालात की सच्चाई बयान करना मुश्किल होता है. कश्मीर के मक़बूल कार्टूनिस्ट सुहैल नक्शबंदी सेंसरशिप के सवाल पर कहते हैं, “सबसे पहली बात तो यह कि सेंसरशिप होनी नहीं चाहिए. कार्टूनिस्ट हो या कोई भी आर्टिस्ट, वह ज़िम्मेदार इंसान होता है. उसे पता है कि कब और कहां पर क्या बनाना चाहिए. अगर सरकार के ख़िलाफ़ आप कार्टून बनाते हैं, तो मुझे नहीं लगता इसमें कोई सीमा लागू होनी चाहिए, क्योंकि हमारा काम आईना दिखाने का होता है. अगर कोई गलत चीज़ हो रही है तो आप सच्चाई दिखाओगे ही. हां, कुछ सीमायें होती हैं, जिसके बारे में हर पॉलिटिकल कार्टूनिस्ट को पता होता है. तो अपने पॉलिटिकल इंटरेस्ट को बचाने के लिए कार्टूनिस्ट की जगह को और ज़्यादा सीमित करना ठीक नहीं है.”

(सुहैल नक्शबंदी के फेसबुक वाल से साभार)

अभिव्यक्ति की सीमा के बारे में बताते हुए सुहैल कहते हैं, “बतौर कार्टूनिस्ट मैं अपनी ज़िम्मेदारी समझता हूं. मसलन धार्मिक भावनाओं को भड़काने वाले कार्टून मैं नहीं बनाता, इस रास्ते पर संभल कर चलता हूं कि किसी की भावना को ठेस न पहुंचे, इसे लेकर मैं सावधान रहता हूं. बाक़ी सरकार को लेकर किसी सीमा को फॉलो करने की बात मैं नहीं मानता. अगर हम सरकार को आईना नहीं दिखायेंगे तो कौन दिखायेगा. पॉलिटिकल क्लास को असहज करना प्रेस का काम है. अगर कुछ सही नहीं हो रहा तो इसे बताना हमारी ज़िम्मेदारी है. कार्टूनिस्टों की तो यह प्राथमिक ज़िम्मेदारी बनती है कि हम समाज के मुद्दों को उठायें और सरकार से सवाल करें.”

(सुहैल नक्शबंदी के फेसबुक वाल से साभार)

अपने समकालीन कार्टूनिस्टों के बारे में बात करते हुए सुहैल कहते हैं, “दिल्ली बेस्ड मीडिया में सतीश आचार्या जैसे कार्टूनिस्ट हैं जो बेहतर काम कर रहे हैं और मुश्किल सवाल उठा रहे हैं. दुर्भाग्यपूर्ण है कि पूरे ग्लोबल स्तर पर सेंसरशिप बढ़ी है और यह एक फासिस्ट सोच का ही हिस्सा है. लेकिन एक अच्छी बात यह हुई कि इसी समय ग्लोबल स्तर पर ‘कार्टूनिस्ट राइट्स नेटवर्क इंटरनेशनल’ जैसे कार्टूनिस्टों के समूह भी उभरे हैं, जो आंदोलनधर्मी हैं और दुनिया के किसी भी कोने में दमन झेल रहे कार्टूनिस्ट के लिए आवाज़ उठाते हैं, और मदद करते हैं. पहले ऐसा कोई समूह नहीं था जो कार्टूनिस्टों के लिए काम करता हो.”