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कठुआ रेप केस : न्याय हुआ पर डर अभी बाकी है

ये न्याय की ही जीत है. कठुआ बलात्कार और हत्या के मामले में सोमवार को पंजाब के पठानकोट की ट्रायल कोर्ट ने छह लोगों को दोषी ठहराया है. जिसमें सांझी राम, दीपक खुजरिया और परवेश कुमार को आजीवन कारावास और विशेष पुलिस अधिकारी सुरिंदर कुमार, हेड कांस्टेबल तिलक राज और सब इंस्पेक्टर आनंद दत्ता को सबूत मिटाने के लिए पांच साल जेल की सजा सुनायी है. जबकि सांझी राम के भतीजे, शुभम सांगरा को किशोर न्याय अदालत में मुक़दमे का सामना करना पड़ेगा और उनके बेटे विशाल जंगोत्रा को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया.

432 पन्नों के फैसले में, पठानकोट सत्र न्यायाधीश डॉ तेजविंदर सिंह ने कहा, “इस शैतानी और राक्षसी आपराधिक समूह ने पूरे समाज में सदमे और भय की लहर पैदा कर दी है. वास्तविक दोषी को न्याय की तलवार के नीचे लाने की ज़रूरत है.” उन्होंने अपराध करने वालों के लिए नैसर्गिक न्याय की आवश्यकता के बारे में बोलते हुए ग़ालिब के प्रसिद्ध शेर को उद्धृत किया- “पिन्हां था दाम-ए-सख़्त क़रीब आशियान के, उड़ने न पाए थे कि गिरफ़्तार हम हुए“. (चिड़िया के घोंसले के पास एक मजबूत जाल था जिसमें हम अपनी पहली उड़ान लेने से पहले ही  फंस गये थे). ये शब्द एक साल पहले हुए अपराध की भयावहता और जघन्यता को दर्शाते हैं.

10 जनवरी, 2018 को बकरवाल समुदाय (एक मुस्लिम खानाबदोश जनजाति) की 8 वर्षीय लड़की घोड़ों को चराने के लिए बाहर गयी थी, जिसके बाद वह जम्मू कश्मीर के कठुआ जिले के रसाना गांव से लापता हो गयी थी. बाद में परिवार वाले उसे खोजते हुए जिस जगह से कई बार गुज़रे थे, वहीं पर सात दिन बाद लड़की की बुरी तरह क्षत-विक्षत लाश बरामद हुई. उसके चेहरे पर कई चोट के निशान थे और मरने से पहले उसे कई बार नशीला पदार्थ खिलाया गया था और उसके साथ बलात्कार किया गया था.

ये मानते हुए कि एक आपराधिक साज़िश के तहत, पहले एक निर्दोष आठ साल की नाबालिग लड़की का अपहरण किया गया और गलत तरीके से उसको नशीला पदार्थ खिलाकर उसके साथ बलात्कार किया गया और बाद में उसकी हत्या कर दी गयी, अदालत ने अपने फैसले में कहा है कि ‘दोषियों ने इस तरह से व्यवहार किया है जैसे कि समाज में जंगल का कानून चल रहा था’. इस केस का फैसला एक साल से अधिक समय के बाद फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट की सुनवाई में लिया गया. इस केस को लेकर उच्चतम न्यायालय ने पिछले साल एक निर्देश जारी किया था कि मुक़दमे को जम्मू-कश्मीर से बाहर स्थानांतरित कर दिया जाये, क्योंकि कठुआ की अदालत में वकीलों ने 9 मार्च, 2018 को कोर्ट के बाहर प्रदर्शन करके क्राइम ब्रांच को आरोप पत्र दाखिल करने से रोक दिया था. इस मामले की अभियोजन टीम में जेके चोपड़ा, एसएस मिश्रा और हरमिंदर सिंह शामिल थे.

आठवें नाबालिग अभियुक्त शुभम सांगरा के ख़िलाफ़ मुकदमा अभी शुरू होना है, क्योंकि उसकी उम्र निर्धारित करने संबंधी उसकी याचिका पर जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय द्वारा सुनवाई की जानी है. यदि उसे नाबालिग घोषित किया जाता है तो उसे कठुआ में जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड में अलग से रखा जायेगा. वहीं साझी राम के बेटे, विशाल जंगोत्रा को सबूतों की कमी के कारण बरी कर दिया गया है. अदालत ने पाया कि “सबूतों, बैंक के खातों का विवरण और उपस्थिति पत्रक स्पष्ट रूप से इस बात को साबित करता है कि घटना के दिन आरोपी विशाल जंगोत्रा कठुआ में मौजूद नहीं था, बल्कि वह मीरनपुर, मुज़फ्फ़रनगर में मौजूद था और अपनी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था. जिससे ये पता चलता है कि आरोपी विशाल जंगोत्रा इस मुक़दमे में निर्दोष है और उसकी ‘याचिका’ अदालत द्वारा स्वीकार की जाती है. उसे यह अदालत, उसके ख़िलाफ़ लगाये गये सभी आरोपों से बरी कर देती है.

साथ ही सजा सुनाते समय न्यायालय ने यह टिप्पणी भी की कि दोषियों का यह पहला अपराध है, लिहाजा उनके पुनर्वास और सुधार के लिए एक मौका देना चाहिए.

इस केस का निर्णय काफी महत्वपूर्ण है, इसलिए हमें इसको समझने की ज़रूरत है कि ये मामला स्वयं में क्या है. मामले का एक स्तर यौन हिंसा है और इस लिहाज़ से न्याय सुनिश्चित हो चुका है. पीड़िता के परिवार ने अदालत के फैसले पर संतोष जताया है, लेकिन उन्हें इस बात का दुख अभी भी है कि उन्होंने अपनी बेटी खोयी है और साथ ही मरने से पहले जिस भयावह अनुभव से वह दो-चार हुई वह भी परिवार वालों को उम्र भर कचोटता रहेगा. जिस वैज्ञानिक तरीके से जांच हुई और अपने तार्किक निष्कर्ष तक पहुंची, वह भविष्य में यौन हिंसा के दूसरे मामलों में नज़ीर के तौर पर इस्तेमाल होनी चाहिए.

कठुआ मामले का महत्व लैंगिक हिंसा से कहीं अधिक है. आठ साल की बच्ची के मारे जाने और जांच शुरू होने के बाद उतना ही भयानक राजनीतिक ड्रामा शुरू हुआ. उसकी हत्या के एक महीने बाद एक दक्षिणपंथी हिंदू संगठन के नेतृत्व में सैकड़ों लोगों ने अपने हाथों में तिरंगा लेकर आठों आरोपियों के पक्ष में रैली निकाली. उनकी मांग थी कि आठों अभियुक्तों को, जो कि सभी उच्च जाति के हिंदू थे, रिहा कर दिया जाये. इसके बाद इस तरह के कई अभियान चलाये गये जिसमें कहा गया कि देश के एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य में हिंदुओं का दमन किया जा रहा है. अबोध पीड़िता का शव सांप्रदायिक उन्माद की धुरी बन गया. गुज्जर और बकरवाल समुदाय को पाकिस्तानी झंडे और आतंकवाद से जोड़कर उन्हें निशाना बनाया जाने लगा, जबकि इस इलाके के हालिया इतिहास में विद्रोह या आतंक की कोई घटना दर्ज़ नहीं हुई है. लड़की के अपहरण के पीछे स्थानीय सांप्रदायिक तनाव की अहम भूमिका थी. लड़की को उठाने का मकसद घुमंतू बकरवाल समुदाय को संदेश देना और उनमें भय पैदा करना था, क्योंकि उनके पालतू जानवर अक्सर यहां के ऊंची जाति वाले हिंदुओं के खेतों में घुस जाया करते थे.

एक महिला के साथ बलात्कार और हत्या किसी भी संघर्ष का विशिष्ट हथियार है. यह सब समझने के लिए स्थानीय राजनीति और ज़मीन संबंधी संघर्ष को समझना ही काफी है, जिसकी वजह से यह सब किया गया. लेकिन बच्ची की मौत के इतने समय बाद भी सांप्रदायिक दरार को और गहरा किया जा रहा है और उसका शरीर राजनीति का ज़रिया बन गया है. मुख्य रूप से बलात्कार और हत्या के मामले के दो पहलू होते हैं. एक है अपराध को अंजाम देना और दूसरा उसके इर्द-गिर्द औचित्य ठहराने की प्रवृत्ति. पहले यह लालच और आंशिक रूप से सांप्रदायिक भय से उपजी थी. दूसरा झूठ और दुष्प्रचार के माध्यम से इस स्थिति को पूरी तरह से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण में तब्दील कर दिया जाये.

सोमवार को आये फैसले के साथ बलात्कार और हत्या के मामले को तो सुलझा लिया गया है. लेकिन जम्मू के सामाजिक ताने-बाने में जो सांप्रदायिकता और राजनीति घुसी है उसे सुधरने में अभी काफी वक़्त लगेगा. पिछले साल आरोपियों के लिए समर्थन में पैदा हुए भयावह कोलाहल को देखते हुए इस फैसले के बाद पैदा हुई चुप्पी को अस्थायी ही माना जाना चाहिए. हिंदू एकता मंच ने अदालत के फैसले को त्रुटिपूर्ण बताया है और कहा कि वह इसके ख़िलाफ़ अपील करेगा. यह एक कानूनी उपाय है जो निर्णय से असहमत सभी लोगों के लिए उपलब्ध है. लेकिन कई चिंताजनक सवाल फिर भी हैं. क्या इस तरह के मामलों का निर्णय कोर्ट रूम से बाहर सड़कों पर सांप्रदायिक एजेंडा फैलाने के लिए किया जायेगा जैसा कि इस मामले में पिछले साल देखने को मिला? क्या यह फैसला कुछ लोगों के राजनीतिक हितों के लिए दुधारू गाय साबित होगा या फिर फिलहाल पैदा हुई शांति इतनी लंबी खिंचेगी कि सांप्रदायिक खाई को पाटा जा सके? क्या घुमंतू समुदायों के लिए हालात फिर से इतने सामान्य हो पायेंगे कि वे सर्दियों के मौसम में दोबारा से हिंदू बहुल जम्मू के इलाके में बिना किसी भय या चिंता के वापसी कर सकें? फिलहाल तो यह न्याय के जश्न का वक़्त है और उम्मीदों के परवान चढ़ने का वक़्त है.