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‘मैं खुद में लखमीचंद को और लखमीचंद में खुद को देखने लग गया हूं’: यशपाल शर्मा

“जगत यो रैन का सपना रे

ना तू किसी का ना कोई तेरा”

मान सिंह और उनकी मंडली की आवाज़ गांव के शांत वातावरण में दूर तक जा रही है. सामने औरतों और मर्दों का हुजूम बैठा है. सभी इस भक्ति गीत में झूम रहे हैं. आठ साल का एक लड़का इस मधुर आवाज़ से खिंचा चला आ रहा है. वह सामने आकर घुटनों के बल बैठता है. श्रद्धालु श्रोताओं के साथ वह भी मधुर धुनों के प्रवाह में तैर रहा है. भजन ख़त्म होते ही हाथ जोड़े विनीत भाव से वह मान सिंह से कहता है, मुझे अपने साथ ले चलो, मुझे आपके साथ रहना है. आप से संगीत सीखना है. मान सिंह चौंकते और समझाते हैं कि सब कुछ इतना आसान नहीं है. बहुत मेहनत लगती है और फिर गाना भी आना चाहिए. कंठ में मिठास होनी चाहिए. वे उस लड़के से कुछ गाकर सुनाने के लिए कहते हैं. लड़का अभी-अभी सुनी गयी पंक्तियों को दोहराता है-

“जगत यो रैन का सपना रे

ना तो किसी का ना कोई तेरा”

यह लड़का लखीमचंद है. उसे जिंदगी की हर लय में संगीत सुनायी पड़ता है. बहती नदी की कलकल, घर में पानी की छलछल और हर प्रकार की हलचल में उसे कोई धुन सुनायी पड़ती है. गायक मान सिंह उसकी आवाज़ से मुग्ध होते हैं और उसके साथ उसके गांव जाते हैं.

यह हरियाणा के सिरसा जिले के जमाल गांव में चल रही ‘दादा लखमी’ फिल्म की शूटिंग का एक सीन है. अभी सूरज माथे पर नहीं आया है. फिर भी उसकी गर्मी महसूस की जा सकती है. इन दिनों सुबह से ही तपने लगता है. अभी 44 डिग्री तापमान है, जो दोपहर तक 48 डिग्री तक पहुंच जाता है. इस तपती दोपहरी में जमाल गांव और उसके आसपास के ग्रामीणों और कुछ कलाकारों के साथ यशपाल शर्मा टेक पर टेक लिए जा रहे हैं. फिर भी न उनके माथे पर शिकन है और न कभी आवाज़ ऊंची होती हैं. वे पूरे धैर्य से शूटिंग में शामिल कलाकारों और ग्रामीणों को समझाते हैं और फिर से एक्शन बोलते हैं.

धैर्य, लगन और तल्लीनता से शूटिंग में जुटे यशपाल शर्मा का एक ही लक्ष्य है कि किसी भी प्रकार ‘दादा लखमी’ की बायोपिक पूरी करनी है. इसे इसी साल नवंबर में रिलीज़ करना है. ‘दादा लखमी’ हरियाणवी में बन रही बायोपिक है, जो हरियाणा के लोक कलाकार लखमीचंद के जीवन और गायकी पर आधारित है.

निश्चित ही इसमें जोखिम और अनिश्चितता है, लेकिन उसके साथ गहन संतुष्टि भी है. फिलहाल तो यही संतुष्टि है कि रुटीन काम से अलग कुछ करने की ज़िद में मनमर्जी से एक फिल्म बन रही है. उस फिल्म की सफलता और उपयोगिता आख़िरकार दर्शक तय करेंगे. अभी यशपाल शर्मा उत्तर भारत की भीषण गर्मी में हरियाणा के गांव जमाल में ‘दादा लखमी’ की शूटिंग में व्यस्त हैं. ‘दादा लखमी’ हरियाणा के लोकप्रिय लोक गायक और कलाकार लखमीचंद के जीवन पर आधारित है. पिछली सदी में आज़ादी से पहले हरियाणा के इस लोक कलाकार ने अपने समाज के साथ पंडित जवाहरलाल नेहरू तक को विस्मित किया था. अपने समाज के दुख-दर्द, आंसू और खुशी को सांग और रागिनियों के माध्यम से उन्होंने जन-जन तक पहुंचाया. लोक साधना और जीवन के ज़मीनी अनुभव से उन्हें ब्रह्मज्ञान प्राप्त हुआ. वे ‘सूर्य कवि’ के नाम से विख्यात हुए. लखमीचंद की गायकी और रचनाओं में मध्ययुगीन भक्त कवियों की निर्गुण परंपरा, पंजाब की सूफी परंपरा और गांव-समाज के दैनंदिन व्यवहार और समस्याओं का सहज चित्रण मिलता है.

एक संयोग ही है कि यशपाल शर्मा अपने राज्य हरियाणा के इस अप्रतिम लोक कलाकार से परिचित हुए. उनकी जिंदगी और कला ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि उन्होंने मुंबई में अर्जित अपनी ख्याति और काम को कुछ सालों के लिए रोक दिया. ‘पगड़ी’ और ‘सतरंगी’ हरियाणवी फिल्में करने के साथ यशपाल शर्मा ने अपनी भूमि और भाषा के लिए कलात्मक बेचैनी महसूस की. उनका अधिकांश समय हरियाणा की सांस्कृतिक गतिविधियों (रंगमंच, सिनेमा और अन्य संस्थानिक आयोजनों) में बीतने लगा. आसपास एकत्रित हुए रंगकर्मियों और सिनेप्रेमियों के उत्साह और जोश ने यशपाल शर्मा को नेतृत्वकारी भूमिका में ला दिया. उन्होंने अपनी मिट्टी के कलाकारों और लेखकों का आह्वान किया. उन्हें जागृत और सक्रिय किया. हरियाणवी सिनेमा के लिए कुछ नया करने का संकल्प लिया गया. इसी संकल्प का एक उत्कर्ष है ‘दादा लखमी’.

‘दादा लखमी’ हरियाणा के सबसे बड़े कलाकार रहे हैं. हरियाणा के लेखक और कलाकार राजू मान ने सबसे पहले यशपाल शर्मा को दादा लखमीचंद पर फिल्म बनाने की सलाह दी. दरअसल, यशपाल शर्मा ‘नटसम्राट’ पर हरियाणवी में कुछ करना चाहते थे. ‘नटसम्राट’ की कथावस्तु सुनने पर राजू मान ने उन्हें लखमीचंद के बारे में बताया. दोनों राजी हुए. राजू मान ने ‘दादा लखमी’ बायोपिक का बेसिक ढांचा तैयार किया. यशपाल शर्मा ने फिल्मों के अपने अनुभवों से उसे संवारा और शूटिंग स्क्रिप्ट तैयार की. लखमीचंद की बायोपिक के लिए शोध और संबंधित जानकारियां एकत्र करने में हरियाणवी फिल्मों के इतिहासकार और पत्रकार रोशन वर्मा ने मदद की. शोध और लेखन में लंबा वक्त लगा. इस बीच वे लखमीचंद के परिवार से मिले. उन पर और उनकी उपलब्ध सामग्रियों का संचयन और संकलन किया गया. सभी सामग्रियों के अध्ययन और आकलन के बाद उसे रोचक स्क्रिप्ट में बदला गया. आरंभ में यही योजना थी कि दो-ढाई घंटे की एक फिल्म बनायी जाये, लेकिन लखमीचंद से संबंधित विपुल सामग्री और उनके विशाल जीवन को देखते हुए इसे दो खंडों में बनाने का फैसला लिया गया है. मूल कहानी में इंटरवल के पहले और बाद के हिस्सों को ही दो खंडों में विभाजित कर दिया गया है. इन दिनों पहले खंड की शूटिंग चल रही है.

यशपाल शर्मा ने फिल्म के लिए हरियाणा के गायकों और कलाकारों का चयन किया है. ऑडिशन की लंबी प्रक्रिया चली. हरियाणा के कई शहरों में ऑडिशन किये गये ताकि ज़्यादा से ज़्यादा प्रतिभाओं को मौका मिल सके. उन्हें चुना जा सके. फिल्म की शूटिंग हरियाणा के ही वैसे गांवों में की जा रही है, जहां अभी तक पुराने किस्म के मकान बचे हुए हैं. शूटिंग की ज़रूरत और पीरियड की विश्वसनीयता के लिए गांव की पक्की सड़कों को मिट्टी से पाट कर कच्ची सड़क का रूप दिया गया. बस्तियों और गांवों के लुक में भी थोड़ी तब्दीलियां की गयीं. प्रोडक्शन और कॉस्टयूम डिज़ाइनर पूरा ख़याल रख रहे हैं कि फिल्म का परिवेश और लुक अस्सी-सौ साल पुराना लगे.

यशपाल शर्मा के इस सपने को साकार करने में रविंद्र राजावत की बड़ी भूमिका है. वह इस फिल्म के निर्माता हैं. उन्होंने इसके पहले भी यशपाल शर्मा अभिनीत एक फिल्म का निर्माण किया है. वहीं से परस्पर समझदारी बनी. राजस्थान के होने के बावजूद उन्होंने हरियाणा के कलाकार की जिंदगी में रुचि ली. उन्हें पर्दे पर लाने के प्रण में आर्थिक सहयोग दिया.

इस महत्वाकांक्षी फिल्म के लिए यशपाल शर्मा ने अपना कैरियर और जीवन झोंक दिया है. फिल्म यूनिट के साथ-साथ हरियाणा के सभी फिल्मप्रेमियों को लग रहा है कि ‘दादा लखमी’ हरियाणवी फिल्मों के लिए एक अनुकरणीय प्रस्थान साबित होगी. इस फिल्म से हरियाणवी फिल्मों की दिशा बदलेगी. हरियाणवी सिनेमा को अपेक्षित मान और सम्मान मिलेगा. राष्ट्रीय पहचान मिलेगी.

यशपाल शर्मा से बातचीत:

एक तरफ मुझे लगता है कि आपने ‘दादा लखमी’ के रूप में एक बड़ा उद्देश्य चुना है, लेकिन दूसरी तरफ लगता है कि क्या आप इस उद्देश्य को पूरा कर सकेंगे? इस कोशिश में कितनी चीज़ें छूटेंगी और क्या पायेंगे आप?

काम करते-करते कभी एक ऐसा मोड़ आता है, जब आपके जीवन की दिशा बदल जाती है. मैंने ‘राउडी राठौर’, ‘टशन’, ‘सिंह इज़ किंग’ जैसी फिल्में कर लीं. इन सारी सुपर-डुपर हिट फिल्मों से भी संतुष्टि नहीं मिली. एक कसक बनी रही. मुझे लगता रहा कि अपने मन का काम अब नहीं तो कब करूंगा? टाइम बीता जा रहा है. यह सोचा-समझा फैसला है. पिछले चार सालों में मैंने बहुत कम हिंदी फिल्में की हैं. गुजराती, असमी, डोगरी, तेलुगू और हरियाणवी आदि भाषाओं की फिल्में कर रहा हूं. मैं देख रहा हूं कि हिंदी फिल्मों में भी क्षेत्रीय रुझान और सम्मान बढ़ा है. हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, मध्य प्रदेश, बिहार और उत्तर प्रदेश फिल्मों में आ रहा है. हरियाणवी में ‘पगड़ी’ और ‘सतरंगी’ करने के बाद अपनी भूमि और भाषा पर मेरा ध्यान गया. मुझे लगा कि देश की अन्य भाषाओं में फिल्में कर रहा हूं तो हरियाणवी में क्यों न करूं? मैंने देखा कि हरियाणा में बगैर लालच के कोई और पहल नहीं करता. मुंबई से काम, पैसा और परिवार को त्याग कर कोई हरियाणा नहीं आयेगा. अपने तई मुझे लगा कि मेरे लिए पहल ज़रूरी है. मैंने इसे पांच साल देना तय किया है. उसके बाद भी असफल रहा तो मान लूंगा कि मेरी पहल और चुनी गयी ज़मीन गलत थी. अभी चौथा साल है.

इन चार सालों में हरियाणा में कैसा समर्थन और सहयोग मिला है?

बहुत पॉजिटिव रिस्पांस है. हम सभी के प्रयासों से राज्य में फिल्म नीति भी बन गयी है. हलचलें जारी हैं. हरियाणवी फिल्म और वीडियो की क्वालिटी में सुधार आया है. बेशक म्यूजिक वीडियो में बहुत गंदगी आ गयी थी. अभी सपना चौधरी समेत तमाम गायक और परफॉर्मर में भी बदलाव दिख रहा है. मुझे तो लगता है कि मेरी सक्रियता, गतिविधि और सोशल मीडिया प्रेजेंस से फ़र्क़ पड़ा है. गंदे गाने और नाच बंद हुए हैं. मेरी कोशिश है कि हरियाणवी सिनेमा के बारे में लोग जानें. कम से कम देश के अंदर उसकी पहचान हो. मैं तो इसे इंटरनेशनल लेवल पर ले जाना चाहता हूं. ‘दादा लखमी’ की रिलीज़ में यह सब होगा.

दादा लखमी की योजना कैसे बनी?

मैं अपने प्रयास के लिए विषय खोज रहा था और हरियाणा में था. उन दिनों जाट दंगे चल रहे थे. मैं उससे बड़ा आहत हुआ कि जात-पात के नाम पर गंदी राजनीति और हिंसा फैल रही है. सीधे उस विषय पर फिल्म न बना कर मैं ऐसा विषय चुनना चाहता था, जिसमें यह सारे मुद्दे भी आ जायें और एक संदेश हो. महिलाओं की समस्या, जात-पात की मुश्किलें, शिक्षा की बदहाली और तत्कालीन राजनीति को दिखाते हुए मैं एक कलाकार की ज़िंदगी बता सकूं. इसी कोशिश में लखमीचंद जी से मुलाकात हुई. उनके बारे में जाना और समझा. मैं उन्हीं की जीवनगाथा पेश कर रहा हूं. प्रसंगवश इसमें पंडित जवाहरलाल नेहरू भी होंगे. यह एक ईमानदार व्यक्ति की कहानी है, कला की साधना में उसे क्या-क्या दिक्कतें आती हैं. कहीं न कहीं यह फिल्म मेरी जिंदगी से जुड़ चुकी है. मेरे अनुभव भी इसमें शामिल हो रहे हैं. मैं खुद में लखमीचंद को और लखमीचंद में खुद को देखने लग गया हूं. लखमीचंद की दिक्कतों से कम मेरी दिक्कतें नहीं है. ईर्ष्या, दुश्मनी, बाधाएं सब कुछ है, लेकिन मैं इन सभी से अप्रभावित होकर ‘दादा लखमी’ के जीवन को पर्दे पर उतार रहा हूं. मैं सामाजिक व्यक्ति हूं. इस समाज में रहता हूं तो उससे बच नहीं सकता. फिर भी मैं निबट रहा हूं. गुस्सा, धमकी और मुकाबले की भावना से नहीं चल रहा हूं. बाधाओं की छोटी लकीर के सामने अपनी मेहनत और लगन से बड़ी लकीर खींचने की कोशिश में लगा हूं. चार सालों से सोशल मीडिया पर जो वादे करता रहा हूं, उन सभी को इस फिल्म के ज़रिये पूरा कर रहा हूं, इसमें मुझे ढेर सारे लोगों का भरपूर सहयोग मिल रहा है,

हरियाणवी फिल्मों का स्तर साधारण है. बीच-बीच में कुछ फिल्में ज़रूर चर्चित हुईं और उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर हरियाणवी फिल्मों की कोई पहचान नहीं है?

इसी पहचान की कोशिश में मैंने स्तरीय टीम बनायी है. अभी तक हरियाणवी फिल्मों की तकनीकी और कलाकारों की टीम सचमुच साधारण रही है. मैंने हरियाणा की प्रतिभाओं के साथ हिंदी फिल्मों के सफल तकनीशियनों को जोड़ा है. ‘दादा लखमी’ के संगीतकार उत्तम सिंह है तो एडिटर असीम सिन्हा हैं. कॉस्टयूम डिज़ाइन में माला डे, कैमरामैन जॉय सेन और मेकअप अनिल पालांडे कर रहे हैं. इन सभी प्रतिभाओं के योगदान से निश्चित ही मैं एक बेहतरीन फिल्म ले आऊंगा. मेरे एक्टर और सिंगर हरियाणा के हैं. मेरा मानना है कि अच्छी फिल्म पैसों से नहीं पैशन से बनती है. कंटेंट सबसे ज़रूरी है. हमारे पास कम पैसे हैं, लेकिन दमदार कंटेंट है. इस फिल्म के साथ मैं हरियाणा में सिनेमा का माहौल भी तैयार कर रहा हूं.

दादा लखमी के व्यक्तित्व में ऐसा क्या खास है, जो आप बायोपिक के लिए प्रेरित हुए?

मैंने दादा लखमी की कहानी अपने अनेक दोस्तों को सुनायी, जैसे कि कमल तिवारी और रघुवीर यादव. उन्होंने सुनने के बाद यही कहा कि अरे यह तो मेरी कहानी है. मतलब एक कलाकार को परिवार, समाज और अनेक तरह की बाधाएं झेलनी पड़ती हैं. मैं चाहता हूं लखमीचंद के संघर्ष को सभी जानें. उनके काम से परिचित हों. उनके योगदान को समझें.

कैसी दिक्कतें हैं इस महत्वाकांक्षा को पूरी करने में?

सबसे बड़ी दिक्कत आर्थिक है. रविंद्र राजावत मुझे पूरा सहयोग दे रहे हैं. हरियाणा के कलाकार और निवासी मदद कर रहे हैं. मुझे सीमित साधनों और संसाधनों में फिल्म पूरी करनी है. वास्तविक रूप देने के लिए मैंने हरियाणा में ऐसे गांव खोज निकाले हैं, जिन्हें सौ साल पहले का लुक आसानी से दिया जा सके. सोनीपत में लखमीचंद के गांव में भी शूटिंग करूंगा. उसके अलावा जमाल, बकरियांवाली, गुसाईंना, नाथूश्री आदि गांव में कच्चे घर और ढूहों के बीच अपनी टीम के साथ इस बायोपिक को साकार करने में लगा हूं.