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हिंदी सिनेमा 2019: विविधता और कामयाबी की पहली छमाही

2019 की पहली छमाही के आखिरी 2 हफ़्तों में 21 जून को संदीप रेड्डी वांगा की ‘कबीर सिंह’ और 28 जून को अनुभव सिन्हा की ‘आर्टिकल 15 रिलीज’ हुई. इन दोनों फिल्मों ने देश और फिल्म इंडस्ट्री में कहर बरपा दिया है. खास कर हिंदी समाज, हिंदी फिल्म इंडस्ट्री और हिंदी दर्शकों के बीच सरगर्मी है. कहर इस तरह से कि ‘कबीर सिंह’ की खुलेआम आलोचना हो रही है और ‘आर्टिकल 15 की खुलेआम सराहना हो रही है. पहली के समर्थक और दूसरी के निंदक ज़्यादा बोल नहीं रहे हैं. इस आलोचना और सराहना से परे है दोनों फिल्मों का कलेक्शन. ‘कबीर सिंह’ की आलोचना के विपरीत उसका जबरदस्त कारोबार हो रहा है. यह फिल्म पहली छमाही की सबसे अधिक कलेक्शन की फिल्म साबित होने जा रही है. दूसरी तरफ ‘आर्टिकल 15 का भी कारोबार अच्छा है, लेकिन सराहना के अनुपात में कलेक्शन का आंकड़ा कम है. कलेक्शन कम होने की बड़ी वजह यह है कि छोटी फिल्म होने की वजह से थिएटर में इसके कम प्रिंट हैं.

पहली छमाही की इन दोनों फिल्मों की आलोचना और सराहना तथा उनके कलेक्शन से हिंदी फिल्मों के दर्शकों की मानसिक भिन्नता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है. दर्शक हर तरह की फिल्में पसंद करते हैं. फूहड़, क्रूर, इमोशनल, कॉमिकल, ट्रैजिक और मुद्दापरक… किसी भी विधा की फिल्म हो. विषयवस्तु और प्रस्तुति की नवीनता उन्हें आकर्षित करती है. प्रयोग अच्छे लगते हैं, हिंदी दर्शकों के लिए फिल्में बौद्धिक जुगाली से अधिक भावनात्मक उछाल हैं. फिल्म कनेक्ट कर गयी तो भले ही एक्टर नया हो, फिल्म छोटी हो और क्राफ्ट कमजोर हो… वे टूट पड़ते हैं. दिक्कत तब होती है, जब बॉक्स ऑफिस के तराजू पर फिल्मों को (सब धान बाइस पसेरी के हिसाब से) तौला जाने लगता है. ‘कबीर सिंह’ और ‘आर्टिकल 15 की कमाई की तुलना नहीं हो सकती, क्योंकि ‘कबीर सिंह’ की रिलीज ज़्यादा प्रिंट के साथ अधिक स्क्रीन में हुई है. ‘आर्टिकल 15 को स्क्रीन ही कम मिले हैं और दोनों फिल्मों की लागत में फ़र्क़ है. लागत और मुनाफे के प्रतिशत और अनुपात से अनजान दर्शक केवल आंकड़े से ही मान बैठते हैं कि फलां फिल्म बड़ी हिट है और फलां वैसी हिट नहीं है.

पहली छमाही का कारोबार

आंकड़ों के लिहाज से पहली छमाही की 10 अधिक कमाई की फिल्मों में ‘उरी’, ‘भारत’, ‘कबीर सिंह’, ‘गली ब्वॉय’, ‘टोटल धमाल’, ‘केसरी’, ‘कलंक’, ‘बदला’, ‘दे दे प्यार दे’ और ‘मणिकर्णिका’ हैं. ट्रेड पंडितों की राय में पहली छमाही की कामयाब फिल्मों की फेहरिस्त से लगता है कि 2019 अच्छा गुज़रेगा. 100 करोड़ से अधिक कमाई की इन फिल्मों के साथ कुछ वैसी भी कामयाब फिल्में है, जो इस जादुई आंकड़े से नीचे रह गयीं, लेकिन निर्माता को मुनाफा दे गयीं. पहली छमाही में 48 फिल्में ही रिलीज हुई हैं. पिछले सालों की तुलना में यह संख्या कम है. थिएटर में भीड़ नहीं हो पायी हर शुक्रवार को. ज़्यादातर फिल्मों को कमाई का पर्याप्त स्पेस मिला. इसकी वजह से पहली छमाही में हिंदी फिल्मों ने 2200 करोड़ से अधिक की कमाई की, जो पिछले साल की तुलना में 10-12% ज़्यादा है.

अच्छी और बुरी फ़िल्में

पहली छमाही की अच्छी फिल्में चुनें तो उनमें ‘आर्टिकल 15’, गली ब्वॉय’, ‘हामिद’, ‘मर्द को दर्द नहीं होता’, ‘नो फादर्स इन कश्मीर’, ‘फोटोग्राफ’, ‘सोनी’ और ‘गॉन केश’ का उल्लेख लाज़मी होगा. इनमें से सभी का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन उल्लेखनीय नहीं रहा, लेकिन विषयवस्तु, संवेदना, निरूपण और शिल्प के स्तर पर इन फिल्मों की चर्चा हुई. हिंदी फिल्मों की वितरण प्रणाली के व्यावसायिक जाल में इस कदर उलझ गयी हैं कि बेहतरीन फिल्मों को उचित शोटाइम और स्क्रीन नहीं मिल पाते. मल्टीप्लेक्स के मालिकों के लिए फुटफाल्स (दर्शकों की संख्या) सबसे महत्वपूर्ण होती है.. उसी के आधार पर वे शो टाइमिंग और स्क्रीन तय करते हैं. इस फैसले में किसी भी फिल्म के संभावित बिज़नेस का अनुमान उसके फेस वैल्यू (स्टार प्रेजेंस, बैनर और लागत) के आधार पर किया जाता है. दर्शक व फिल्मकार लगातार यह चिंता व्यक्त कर रहे हैं कि वितरण और प्रदर्शन के असंगत निर्णय से फिल्में ढंग से थिएटर में नहीं लग पातीं. असुविधाजनक समय पर स्क्रीनिंग हो तो दर्शक आ नहीं पाते और दर्शक नहीं आते तो फिल्म उतार दी जाती हैं. छोटी फिल्म ‘नक्काश’ के साथ यही हुआ.

वैसे दर्शक न मिलें तो चर्चित और अपेक्षित फिल्में भी वीकेंड गुजरते-गुजरते औंधे मुंह गिर जाती हैं. धर्मा प्रोडक्शन की दो फिल्में ‘कलंक’ और ‘स्टूडेंट ऑफ द ईयर 2 के साथ यही हुआ. ‘कलंक’ का आक्रामक प्रचार था’ इस फिल्म में संजय दत्त-माधुरी दीक्षित और वरुण धवन-आलिया भट्ट की जोड़ियां मुख्य आकर्षण के तौर पर प्रचारित की गयीं. विभाजन के समय के लाहौर की कहानी थी. इस फिल्म के पीरियड और परिवेश की भी चर्चा थी, लेकिन फिल्म रिलीज़ हुई तो ‘ऊंची दुकान फीका पकवान’ साबित हुई, यही हाल ‘स्टूडेंट ऑफ द ईयर 2 का भी रहा. टाइगर श्रॉफ भी दर्शकों को फिल्म में नहीं ला सके. इन दोनों फिल्मों की असफलता से अधिक दर्शकों की नापसंदगी ने धर्मा प्रोडक्शन को सकते में ला दिया है. ख़बर है कि करन जौहर की महत्वाकांक्षी फिल्म ‘तख्त’ की प्लानिंग हिल गयी है. पहली छमाही में कमाई के बावजूद ‘टोटल धमाल’ और ‘कबीर सिंह’ की गिनती 2019 की बुरी फिल्मों में होती रहेगी. फूहड़ता और क्रूरता की पराकाष्ठा इन फिल्मों में थी. इनकी कमाई से ज़ाहिर है कि इन्हें दर्शक मिले, लेकिन उसे इन फिल्मों की गुणवत्ता का पर्याय मान लेना अनुचित होगा. गोविंदा की ‘रंगीला राजा’ पहली छमाही की निकृष्टतम फिल्म मानी जा सकती है. किसी ज़माने के लोकप्रिय स्टार का यह हश्र देखना दुखी करता है, लेकिन लगता है कि क्या लोकप्रियता की फिसलन के साथ कलाकारों का विवेक भी चटक जाता है.

पहली छमाही की कुछ फिल्मों में राष्ट्रवाद की बघार डाली गयी तो कुछ शुद्ध रूप से ‘राष्ट्रवाद के नवाचार’ से प्रेरित फिल्में थीं. फिल्मों में ‘जन गन मन’ डालना, राष्ट्रीय झंडा दिखना और देशभक्ति की बातें करना जबरन ठूंसा जा रहा है. चुनाव और सत्ताधारी पार्टी के हित को ध्यान में रखकर रिलीज की गयी फिल्मों में केवल ‘द ताशकंद फाइल्स’ ने दर्शकों का ध्यान खींचा. उसकी वजह लाल बहादुर शास्त्री की संदिग्ध मौत रही होगी. हालांकि यह फिल्म भी उनकी आकस्मिक मौत का रहस्य नहीं खोल सकी. निर्देशक संविधान में ‘समाजवाद’ शब्द की प्रविष्टि पर सवाल उठाने में अधिक लीन दिखे. लोकप्रिय नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जीवन पर आधारित ‘पीएम नरेंद्र मोदी’ दर्शकों को पसंद ही नहीं आयी. एक समीक्षक ने लिखा कि जब रीयल नरेंद्र मोदी का करिश्माई व्यक्तित्व दिन-रात संचार माध्यमों से दिख रहा हो, तो रील नरेंद्र मोदी में किसी की क्या रुचि होगी? वह भी तब जब उनका किरदार कोई साधारण अभिनेता निभा रहा हो.

चमकती प्रतिभाएं

पहली छमाही में चमकती प्रतिभाओं में पहला उल्लेख लेखक गौरव सोलंकी का होना चाहिए. हिंदी के लेखक, कवि और फिल्म समीक्षक गौरव सोलंकी ने ‘आर्टिकल 15 से जोरदार दस्तक दी है. ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’ की लेखिका ग़ज़ल धालीवाल ने स्त्री समलैंगिकता की कहानी को बड़े परदे पर पूरी समानुभूति से लिखा. निर्देशकों में ‘उरी’ के निर्देशक आदित्य धर पर नज़र रहेगी. ‘दे दे प्यार दे’ में अकीव अली ने प्रेमत्रिकोण को नया एंगल दिया, लेकिन अंत में लड़खड़ा गये. अभिनेत्रियों में तापसी पन्नू (‘बदला’ और ‘गेम ओवर’), रसिका दुग्गल (हामिद), आलिया भट्ट (गली बॉयज), सान्या मल्होत्रा (फोटोग्राफ), श्वेता त्रिपाठी (गॉन केश), सलोनी बत्रा (सोनी) और सोनी राजदान (नो फादर्स इन कश्मीर) में अभिनय की योग्यता दिखायी. अभिनेताओं में विकी कौशल (उरी), गुलशन देवैया (मर्द को दर्द नहीं होता), रणवीर सिंह (गली ब्वॉय), नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी (फोटोग्राफ), आयुष्मान खुराना (आर्टिकल 15) में अभिनय के नये आयाम दिये. पहली छमाही की तीन फिल्में ऐसी हैं, जिनमें एक से अधिक कलाकारों ने अपने दमदार अभिनय से फिल्म का प्रभाव बढ़ा दिया. अभिनय की यह सामूहिकता विरले मिलती है, जब सारे कलाकार सुसंगत सुर में हों. स्क्रिप्ट में अगर चरित्रों को पर्याप्त महत्व और निर्वाह मिला हो तो वह पर्दे पर उभर कर आता है. इस लिहाज़ से गली बॉयज (रणवीर सिंह, आलिया भट्ट, सिद्धांत चतुर्वेदी और विजय वर्मा), सोनचिरैया (मनोज बाजपेयी, आशुतोष राणा, भूमि पेडणेकर, रणवीर शौरी और सुशांत सिंह राजपूत) और आर्टिकल 15 (आयुष्मान खुराना, मोहम्मद जीशान अय्यूब, कुमुद मिश्रा, मनोज पाहवा, सुशील पांडे और अन्य) का ज़िक्र करना ही होगा.

पहली छमाही विविधता और कामयाबी दोनों ही दृष्टियों से उल्लेखनीय रही है. हिंदी फिल्मों का यह बेहतरीन दौर है. दर्शक साधारण मनोरंजन के साथ फिल्मों की विषय वस्तु पर भी ध्यान दे रहे हैं.