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सिंगरौली: हवा से लेकर ज़मीन तक ज़हर घोलते कोयला बिजलीघर

मध्यप्रदेश के सिंगरौली इलाके में पावर कंपनी एस्सार के बंधौरा स्थित कोयला बिजलीघर के ऐशडेम का टूटना एक बार फिर याद दिलाता है कि हमारे बिजली संयंत्र, सुरक्षा नियमों को लेकर कितने लापरवाह हैं. बुधवार रात को भारी बरसात के बाद 1200 मेगावाट पावर स्टेशन का यह ऐशडेम टूट गया. गांव वालों का कहना है कि करीब 3 से 4  किलोमीटर दूरी तक इस प्लांट से निकली राख फैल गयी. किसानों ने यहां खेतों में धान, उरद, अरहर, मक्का और ज्वार जैसी फसलें बोई थीं जो बर्बाद हो गईं.

 सिंगरौली इलाके में बिजलीघरों की राख ने नदियों का ये हाल कर दिया

स्थानीय लोगों का आरोप है कि प्लांट से पहले भी रिसाव होता रहा है लेकिन एस्सार ने इन आरोपों से इनकार करते हुये कंपनी के आधिकारिक बयान में घटना के लिये “तोड़फोड़ को स्पष्ट वजह” माना है और कहा है कि पहले भी “गांव वाले” इस तरह का नुकसान करते रहे हैं.

दूसरी ओर सिंगरौली के जिलाधिकारी केवीएस चौधरी ने माना कि 500 किसान परिवार इस रिसाव से प्रभावित हुये हैं. उन्होंने कहा कि, “घटना की प्राथमिक जांच कराई जा रही है और इसमें एस्सार के बयान समेत सभी पहलुओं को देखा जायेगा.”

यह पता करना प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड और प्रशासन का काम है कि ऐशडेम कैसे टूटा और गलती कहां हुई लेकिन यह बात किसी से छुपी नहीं है कि बिजलीघर पर्यावरण मानदंडों और सुरक्षा नियमों की अनदेखी करते रहे हैं जबकि सरकार का आदेश है कि पावर प्लांट द्वारा निकली 100% राख का इस्तेमाल सुनिश्चित किया जाये. इस राख का इस्तेमाल ईंट और सीमेंट उद्योग में किया जाता है.

खेतों में कई किलोमीटर तक बिखरी राख ने फसल चौपट कर दी

उधर यूपी के सोनभद्र-सिंगरौली इलाके में पर्यावरण मामलों में काम कर रहे जगत नरायण विश्वकर्मा कहते हैं कि पावर प्लांट ऐशडेम की दीवारों के लिये मज़बूत पत्थर या कंकरीट लगाने के बजाय फ्लाई ऐश को ही इस्तेमाल कर लेते हैं जो कि बेहद खतरनाक होता है.

भारत की कुल बिजली उत्पादन का करीब 63% कोयला बिजलीघरों से है. कोल पावर प्लांट की राख में लेड, क्रोमियम, कैडमियम, आर्सेनिक और मरकरी समेत कई भारी तत्व होते हैं जो स्वास्थ्य के लिये बहुत हानिकारक हैं. पिछले साल अप्रैल में इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एडवांस इंजीनियरिंग एंड रिसर्च डेवलपमेंट में छपा यह शोध बताता है कि सरकार के आदेश के बावजूद बिजली कंपनियां फ्लाई ऐश 100 % इस्तेमाल नहीं कर रही.

शोध के मुताबिक, “2016-17 में भारत में कुल 169.25 मिलियन टन फ्लाई ऐश का उत्पादन हुआ जबकि 107.10 मिलियन टन ही इस्तेमाल हो पाई. करीब 63 मिलियन टन पड़ी रह गई.” यानी करीब 37% राख यूं ही पड़ी रह गई. शोध बताता है कि

  • जो राख इस्तेमाल नहीं हो पाती उसके लिये डम्पिंग यार्ड बनाना होता है जिसके लिये कृषि भूमि पर अतिक्रमण किया जाता है.
  • इतने बड़े डम्पिंग यार्ड भूमि, स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिये बहुत बड़ा ख़तरा हैं.
  • इसके निस्तारण के लिये बहुत धन की ज़रूरत होती है और हानिकारक भारी धातुओं के कारण आसपास के वातावरण में मिट्टी और पानी पर कुप्रभाव पड़ता है.

बंधौरा में किसानों को अपनी बर्बाद फसल का कितना मुआवज़ा मिलेगा यह पता नहीं लेकिन इस रिसाव से ज़मीन में फैले हानिकारक तत्व भविष्य के लिये चुनौती ज़रूर हैं.

 बंधौरा के ग्रामीणों का सवाल है कि नुकसान की भरपाई कौन करेगा.

पर्यावरण से जुड़े मामलों पर काम कर रहे वकील राहुल चौधरी कहते हैं, “पर्यावरण नियमों में साफ तौर पर लिखा गया है कि कोयला बिजलीघर  से निकलने वाली राख का प्रबंधन किस तरह किया जाये. कंपनियों को उचित आकार का ऐश पोंड बनाना और राख का नियमित निस्तारण करना चाहिये लेकिन अक्सर कुछ सालों में ऐश पोंड भर जाते हैं और फिर प्लांट से निकलने वाली राख को यूं ही लापरवाही से यहां-वहां बिखेर दिया जाता है.”

जानकार बताते हैं कि 0.5 से लेकर 300 माइक्रोन तक साइज़ के कण हवा में आसानी से तैर कर कहीं भी पहुंच जाते हैं. ऐसे में यह राख, हवा के साथ नदियों, समुद्र और तालाबों  को दूषित कर इंसान और वन्य जीवों को बीमार कर सकती है. सोनभ्रद के इलाके में रेणुका नदी पर्यावरण पर हो रहे हमले का साफ उदाहरण है जहां फ्लाई ऐश का सैलाब नदी को निगल गया है.

वैसे अगर विशुद्ध रूप से वायु प्रदूषण की ही बात करें  तो भी भारत के कोयला बिजलीघरों को शायद ही कोई फर्क पड़ता है. सरकार ने 2015 में प्रदूषण के नये मानक तय किये लेकिन 2017 तक किसी कंपनी ने मानकों का पालन नहीं किया. यह हैरत वाली बात है कि सरकार ने इन कंपनियों पर दंड लगाने के बजाय इन्हें 5 साल की मोहलत दे दी. यानी 2022 तक यह बिजलीघर इसी तरह प्रदूषण कर सकते हैं.

भारत सरकार तेज़ी से साफ ऊर्जा (सौर और पवन) के संयंत्र लगाने की बात भले ही कर रही हो लेकिन खुद केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (CEA) ने कहा है कि 2030 तक भारत की 50% बिजली कोयला बिजलीघरों से ही आयेगी यानी धुंयें और राख से निजात मिलने की संभावना कम ही है.  उधर पिछले साल प्रकाशित एक रिसर्च में कहा गया था कि अगर कोयला संयंत्रों का प्रदूषण ऐसे ही जारी रहा तो करीब 3 लाख लोगों की 2030 तक इस प्रदूषण से मौत हो सकती है और 5 करोड़ से अधिक लोग अस्पताल में भर्ती होंगे.

इस बीच भारत की सबसे बड़ी बिजली निर्माता कंपनी नेशनल थर्मल पावर कॉर्पोरेशन (एनटीपीसी) ने पिछले महीने ही कहा कि वह छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में “दुनिया का सबसे साफ पावर प्लांट” लगायेगी.  यहां 800 मेगावॉट के पावर प्लांट में अल्ट्रा-सुपर क्रिटिकल टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया जायेगा जिससे वायु प्रदूषण 20 प्रतिशत कम होगा. यह एक अच्छी ख़बर हो सकती है लेकिन कोयला बिजलीघरों के अब तक के रिकॉर्ड को देखते हुये यह ज़रूरी है कि सरकार तमाम बिजलीघरों में हर तरह के मानकों को सख्ती से लागू करे.

(  तस्वीरें- प्रभात कुमार )