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जेटली के बाद उनकी याद…
किसी इंसान का गुजर जाना किसी न किसी को असह्य पीड़ा दे जाता है. अरुण जेटली का गुजरना निश्चित रूप से उनके परिवार के लोगों के लिए काफी भारी रहा होगा. साथ ही उनका गुजरना उनकी पार्टी बीजेपी के लिए भी उतना ही खलने वाला वक्त है. लेकिन अखबारों, टीवी चैनलों, न्यूज पोर्टलों और सोशल मीडिया पर लोगों की प्रतिक्रिया को देखें तो पता चलता है कि उनके परिवार और पार्टी के साथ ही वो लोग भी बेतरह दुखी हैं जिनका उनसे इस तरह का करीबी रिश्ता नहीं था या फिर जेटली से कामकाजी, पेशेवर रिश्ता था. इनमें बहुत सारे पत्रकार हैं जो मुख्यधारा की पत्रकारिता में वर्षों से झंडा गाड़े हुए हैं.
कुछ पत्रकारों ने अपने लिखे का बचाव यह कहते हुए किया कि पत्रकार भी इंसान है और उसके भी इंसानों के साथ उसी तरह के रिश्ते हो सकते हैं. यहां दो छोटे उदाहरणों से पारिवारिक और पेशेवर रिश्तों का अंतर बरत कर आगे बढ़ते हैं. इंडियन एक्सप्रेस के मालिक अनंत गोयनका ने एक ट्वीट कर जेटली को याद किया जिसका सार यह था कि अरुण अंकल उनके परिवार के अभिन्न हिस्सा थे जिससे वो हमेशा सीख लेते रहेंगे. एक ट्वीट टाइम्स नाउ की एंकर नविका कुमार ने किया- उनके जीवन से रोशनी चली गई, अब वे हर सुबह किससे फोन पर बात करेंगी, किससे सीख लेंगी. अनंत के मामले में जेटली से जो रिश्ता है वो एक पुराना पारिवारिक रिश्ता है जिसे बच्चे आगे बढ़ा रहे हैं. नविका कुमार के मामले में जेटली से उनका सारा रिश्ता उनके पत्रकारिता में होने के चलते यानि उनके पेशे के चलते स्थापित हुआ है लिहाजा इसे स्वाभाविक पारिवारिक रिश्ता नहीं कहा जा सकता, यह म्युचुअल लेन-देन पर आधारित रिश्ता है.
25 अगस्त को ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ ने ‘फायरफाइटर गोज़ डाउन फाइटिंग’ (आग बुझानेवाला लड़ते हुए गुजर गया) शीर्षक से सात कॉलम का लीड लगाया जिसे रवीश तिवारी व लिज मैथ्यू ने लिखा है. ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने भी इसे छह कॉलम दिया है जिसका हेडिंग है- ‘ए शार्प माइंड एंड लार्ज सोल’ (तीक्ष्ण दिमाग व बड़े दिलवाला). सभी अखबारों ने (मूलतःअंग्रेजी के, टेलीग्राफ को छोड़कर) अरुण जेटली को ‘महामानव’ के रूप में ही याद किया है. लगभग हर अखबार ने लिखा है कि अरुण जेटली दिल्ली में मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मेंटर रहे. अखबारों ने तफ्सील से लिखा है कि जब 2002 के दंगे के बाद अटल बिहारी वाजपेयी मोदी को गुजरात के मुख्यमंत्री पद से हटाना चाहते थे तो मुख्य रणनीतिकार के रूप में अरुण जेटली ने ही लालकृष्ण आडवाणी और वेंकैया नायडू के साथ मिलकर वाजपेयी की घेराबंदी की थी और मोदी की मुख्यमंत्री की कुर्सी को सुरक्षित बनाए रखा.
‘इंडियन एक्सप्रेस’ में कूमी कपूर ने ‘ए मैन ऑफ ओपन हर्ट एंड माइंड, जेटली हैड फ्रेंड्स एक्रॉस डिवाइड’ में लिखा है कि जब 2010 में अमित शाह संकट में थे और उन्हें गुजरात से तड़ीपार कर दिया गया था तो कैसे वह संसद भवन में अरुण जेटली के कमरे के एक कोने में बैठे रहते थे. आगे वह लिखती हैं कि 1990 के दशक में जब नरेन्द्र मोदी को पार्टी का महासचिव बनाया गया था और दिल्ली में उन्हें जानने वाला कोई नहीं था, उसी वक्त जेटली ने मोदीजी की प्रतिभा पहचान ली थी. कूमी कपूर के अनुसार उस समय जो दोस्ती का हाथ बढ़ा था वह हाथ अंतिम दिनों तक नहीं छूटा.
खैर, इसका बहुत मतलब नहीं है कि हम सभी घटनाओं के विस्तार में जाएं. लेकिन सवाल सिर्फ यह है कि पत्रकारिता के सारे के सारे ‘हू इज हू’ लिख रहे हैं कि मोदीजी को गुजरात दंगे में अभयदान दिलानेवाले अरुण जेटली ही थे. मोदीजी के नेतृत्व में तीसरी बार गुजरात विधानसभा का चुनाव जीतने के बाद जब लोकसभा चुनाव में नेतृत्व करने की बात आई तब कैसे-कैसे षडयंत्र किए गए यह जानने के लिए जनचौक पर अनिल जैन का लेख जरूर पढ़ा जाना चाहिए जिसमें विस्तार से वह अरुण जेटली की भूमिका का वर्णन करते हैं.
अनिल जैन लिखते हैं, “उस समय अरुण जेटली और सुषमा स्वराज के साथ ही वेंकैया नायडू और अनंत कुमार की गिनती भी आडवाणी के बेहद भरोसेमंद नेताओं में होती थी. मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे. भाजपा की अंदरुनी राजनीति में उन्हें भी आडवाणी खेमे का ही माना जाता था. वे भी अध्यक्ष के रूप में गडकरी को नापसंद करते थे. उनकी नापसंदगी तो इस हद तक थी कि जब तक गडकरी अध्यक्ष रहे, उन्होंने पार्टी कार्यसमिति और पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की हर बैठक से दूरी बनाए रखी थी. अरुण जेटली उस समय राज्यसभा में विपक्ष के नेता हुआ करते थे और वित्त मंत्रालय संभाल रहे चिदंबरम से उनकी दोस्ती जगजाहिर थी. चूंकि संघ नेतृत्व साफ तौर पर गडकरी के साथ था, लिहाजा पार्टी में किसी भी नेता में यह हिम्मत नहीं थी कि वह संघ नेतृत्व के खिलाफ खड़े होने या दिखने का दुस्साहस कर सके.
यह लगभग तय हो चुका था कि गडकरी ही निर्विरोध दोबारा अध्यक्ष चुन लिए जाएंगे. लेकिन निर्वाचन की तारीख से चार-पांच दिन पहले अचानक गडकरी के व्यावसायिक प्रतिष्ठान ‘पूर्ति समूह’ से जुडी कंपनियों के ठिकानों पर आयकर विभाग ने छापे मार दिए. छापे की कार्रवाई दो दिन तक चली. पूरा मामला मीडिया में छाया रहा. आडवाणी खेमे ने मीडिया प्रबंधन के जरिए गडकरी पर इस्तीफे का दबाव बनाया. जेटली को निर्विवाद रूप से मीडिया प्रबंधन का उस्ताद माना जाता था. छापे की कार्रवाई में क्या मिला, इस बारे में आयकर विभाग की ओर से कोई जानकारी नहीं दी गई थी लेकिन ‘सुपारी किलर’ की भूमिका निभा रहे मीडिया के एक बडे हिस्से ने गडकरी के खिलाफ ‘सूत्रों’ के हवाले से खूब मनगढ़ंत खबरें छापी. टीवी चैनलों ने तो अपने स्टूडियो में एक तरह से ‘अदालत’ लगाकर गडकरी पर मुकदमा ही शुरू कर दिया. अध्यक्ष के रूप में उनके दूसरी बार होने वाले निर्वाचन को नैतिकता की कसौटी पर कसा जाने लगा. मीडिया में यह सब तक चलता रहा, जब तक कि गडकरी अपना नामांकन वापस लेकर अध्यक्ष पद की दौड़ से हट नहीं गए.”
आज के इंडियन एक्सप्रेस में नितिन गडकरी ने भी अरुण जेटली को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए लिखा है- ‘ही हेल्प्ड बीजेपी सेट द नैरेटिव’. इसमें गडकरी ने दिल खोलकर अरुण जेटली की तारीफ की है कि पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद दिल्ली में अरुण जेटली ने किस रूप में उनकी मदद की. कहने का मतलब यह कि वह जेटली ही थे जिन्होंने अध्यक्ष के रूप में उनका मार्ग प्रशस्त किया. गडकरी ने अपने पूरे लेख में एक बार भी इस बात का जिक्र नहीं किया है कि कैसे उन्हें पार्टी अध्यक्ष पद से हटाया गया. इसके आर्किटेक्ट अरुण जेटली ही थे. अगर उस समय की अंदरूनी कहानियों पर यकीन किया जाए तो कहा जाता है कि जब रात के दस बजे नितिन गडकरी आसन्न संकट से निजात पाने के लिए अरुण जेटली के निजी आवास पर गए तो वहीं उनके अध्यक्ष पद के इस्तीफे का मजमून तैयार हुआ. इसे जेटलीजी की वकील बेटी ने तैयार किया और वहीं पर नितिन गडकरी ने पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया. मतलब यह कि जब नितिन गडकरी अरुण जेटली के घर पहुंचे थे तो अध्यक्ष थे और उनके घर से निकल रहे थे तो पूर्व अध्यक्ष हो गए थे! लेकिन एक शब्द उस घटना पर गडकरी ने नहीं कहा है. खैर, यह संघ का अनुशासन है कि कुछ भी हो जाए, ऑन द रिकार्ड कुछ भी रिकार्ड में नहीं आना चाहिए.
अब देश के सबसे लिबरल कहे जाने वाले वेब पोर्टल द वायर को लें. वायर ने अरुण जेटली को याद करते हुए तीन लेख छापे हैं. पहला लेख मशहूर टीवी पत्रकार करण थापर का है, दूसरा लेख विधि सेंटर फॉर लिगल पॉलिसी के अर्ध्य सेनगुप्ता ने लिखा है और तीसरा लेख नित्या रामकृष्णन ने लिखा है.
सबसे पहले करण थापर के लेख को देखें. लेख की शुरुआत कुछ इस तरह होती हैः “मैं यह दावे के साथ नही कह सकता हूं कि बीजेपी के ढेर सारे नेताओं को जानता हूं लेकिन मैं अरुण जेटली को अपना दोस्त होने का दावा जरूर कर सकता हूं. पूरे लेख को पढ़कर आप इसे सबसे उपयुक्त शब्द देना चाहें तो कह सकते हैं कि यह प्रशस्तिगान है! हां, उस लेख में करण थापर मोदी के उस कुख्यात इंटरव्यू का जरूर जिक्र करते हैं जिसे छोड़कर मोदी निकल गए थे, (जो अरूण जेटली ने ही तय करवाया था). लेकिन एक बार भी इस बात का जिक्र नहीं है कि उस दंगे और दंगे के बाद भी दिल्ली व विदेशी मीडिया में कैसे अकेले अरुण जेटली लगातार मोदीजी का बचाव करके जघन्य पाप किया था. करण थापर अपने लेख में लिखते हैं कि जब अरुण जेटली मंत्री बन गए तो वह कुर्ता-पायजामा पहनने लगे लेकिन वह पश्चिमी लिबास में ज्यादा जंचते थे. एक बार जब अरुण जेटली पश्चिमी लिबास में दिखे और मैंने उनकी तारीफ की तो वे मेरे लिए हरमिस का टाई लेकर आए.
अर्ध्य सेनगुप्ता के लेख का लब्बोलुवाब भी बिल्कुल वही है. अगर लेख में संतुलन की बात हो तो वह नित्या रामकृष्णन के लेख में है. द वायर जैसे पोर्टल को किसी एक व्यक्ति के गुणगान में इस तरह बिछ जाना शोभा नही देता है जबकि वह जानता हो कि कैसे वह खास व्यक्ति मोदी के हर गुनाह का न सिर्फ राजदार रहा है बल्कि सहयोगी भी रहा है.
इसी तरह सभी लेखों या रिपोर्टिंग में यह जिक्र है कि कैसे जब वह 19 महीना जेल मे बिताकर इमरजेंसी के बाद बाहर निकले तो इंडियन एक्सप्रेस के खिलाफ तत्कालीन इंदिरा गांधी के सरकार के खिलाफ कानूनी लड़ाई उन्होंने ही लड़ी. साथ ही, कौन-कौन लोग उनके क्लाइंट थे. साथ ही, उनके किस तरह और कौन, हर पार्टी में दोस्त थे (इन दोस्तों के नाम में ‘मशहूर’ व्यक्ति अमर सिंह का नाम छोड़ दिया गया है) लेकिन सभी लेखकों या एक भी पत्रकार ने इस बात का जिक्र नहीं किया है कि जिन्दगी में एक भी कॉमन आदमी का मुकदमा जेटलीजी ने नहीं लड़ा. उनके सारे क्लाइंट हाई प्रोफाइल लोग ही रहे.
सबने यह लिखा कि अरुण जेटली पत्रकारों के बहुत चहेते थे. टाइम्स नाउ की नविका कुमार और बरखा दत्त के ट्वीट को देखकर बहुत कुछ समझा जा सकता है. बरखा दत्त ने अपने ट्वीट में लिखा है, ‘कितना भयावह है अरुण जेटली का गुजर जाना. श्रंद्धाजलि. उन्होंने मुझे हमेशा, हर तरह से गाइड किया. वही वह शख्स हैं जिन्होंने मुझे सलाह दी कि मैं टीवी से बाहर निकलूं और कॉलम व रिसर्च के बारे में सोचूं. मैं उनसे हमेशा कश्मीर, खाना, कानून और राजनीति पर बहस करती रहती थी.’
हकीकत तो यह भी है कि बरखा दत्त को नीरा राडिया टेप में अरुण जेटली ने ही बचाने की कोशिश की थी. इस बारे में मशहूर पत्रकार विनोद मेहता ने अपनी किताब ‘लखनऊ ब्यॉय’ के पेज नंबर 249 पर लिखा है- फिर भी, वीर सांघवी और बरखा दत्त सचमुच काफी मुश्किल में फंस गए थे. 2जी का मसला हर दिन बड़ा से और बड़ा होता जा रहा था. विपक्षी दल इसे संसद और संसद के बाहर लगातार उठा रहे थे. अरुण जेटली 2जी के मसले को संसद में उठाना चाहते थे लेकिन बरखा दत्त ने आकर उनसे विनती किया कि जब वह सरकार पर हमला करें तो टेप वाली बात का जिक्र न करें.
लेकिन किसी ने भी अपने श्रद्धांजलि लेख में इस पर नहीं उठाया कि जेटली के चलते कितने पत्रकारों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा. इस बात का भी कहीं जिक्र नहीं है कि मजीठिया वाले मामले में देश के इतने बड़े वकील ने कभी कुछ कहा. हां, एक मंत्री के रूप में उनका यह बयान बार-बार आता रहा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा हर बार विधायिका के मामले में इस तरह की दखलअंदाजी लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है.
अरुण जेटली के देहांत के बाद मीडिया की पूरी कवरेज में जो बात मेरे दिल को छू गई वह यह कि अरुण जेटली ने अपने साथ काम करने वाले सभी कर्मचारियों और उनके बच्चों का बहुत ख्याल रखा. इस बारे में अभिषेक मनु सिंधवी ने भी जिक्र किया है कि कैसे उन्होंने अपने कर्मचारियों को रहने के लिए घर भी दिलवाया. इसी तरह उन्होंने साथ काम करने वाले कर्मचारियों के बच्चों को जिस स्कूल में उनके खुद के बच्चे पढ़े वहीं नाम लिखवाया और आर्थिक मदद भी की. मैं जेटली के इसी गुण का कायल होना चाहूंगा और इसे ही याद रखना चाहूंगा.
वर्तमान समय में जब हम अपने सगे भाई-भतीजे तक की शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध नहीं कर पाते हैं, उस वक्त अरुण जेटली ने अपने हर स्टाफ के बच्चों की परवरिश का ध्यान रखा, उन सबका अपना घर हो, इसे सुनिश्चित किया. यह बड़ी ही नहीं बल्कि विलक्षण बात थी. हकीकत तो यह भी है कि जो लोग उनकी तारीफ में कशीदे काढ़ रहे हैं और जिनके लिखे से यह जानकारी मिली है, उनमें से अधिकाश लोगों ने अपनी संतानों के अलावा किसी के लिए कुछ नहीं किया है.
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